Tuesday 31 December 2013

उम्मीद के गीत





1. 

आशा भरी सुबहें 
विश्वास से लिपटी शामें 
मस्ती भरे दिन 
चैन से कटती रातें 


2. 

उम्मीदों की नदी 
दुखों के पहाड़ का सीना चीर कर 
सुखों के मैदानों को सींचती 
जा मिलेगी  
आनंद के असीम सागर में !

3. 

यूँ ही नहीं कहा शैली ने 
कि सर्द हवाओं के बाद 
बहेगी बासंती बयार 
इसलिए मेरे दोस्त
मत होना निराश . 

दुखों के काले बादल  
तो बरस कर चले जाएंगे 
और रह जाएगी सिर्फ सुख की रोशनी 

मत घबराना 
निराशाओं की स्याह रात से   
आशाओं का सवेरा सोख लेगा इस स्याही को   
और रह जायेगी उम्मीदों की सुर्ख सफ़ेद चादर 

मत घबराना अपने भीतर की कायरता से
तुम्हारे हौसलों की ऊष्मा 
जलाकर  कर देगी राख़
सारी कायरता को 
और निर्मित कर देगी तुम्हारे भीतर एक ऐसा संसार  
जहाँ होंगे
बिंदास ठहाके 
खनखनाती हसीं  
मंद मंद मुस्कान 
उम्मीद ही उम्मीद 
आशा का सागर 
रोशनी का सूरज

और कहीं दूर खड़े दुःख  
उस पर कर रहे होंगे रश्क़ !





4.

क्या दूँ दोस्त तुम्हें
इस नए साल के मुबारक मौके पर

थोड़ी सी धूप कड़कड़ाती सर्दी के लिए
थोड़ी सी छाँव चिलचिलाती गर्मी के लिए
थोड़ी सी छत घनघोर बारिश के लिए
थोड़ी सी बूंदे तपते रेगिस्तान के लिए
थोड़ी सी नींद बेचैन रातों के लिए
थोड़ी सी फुर्सत दौड़ते भागते दिन के लिए
थोड़ी सी आस निराश जिंदगी के लिए
थोड़ी सी हँसी उदास लम्हों के लिए
थोड़ी सी खुशी ग़मों के सागर के लिए
थोड़ा सा प्यार नफरतों की बारिश के लिए
थोडा सा साहस अन्याय से लड़ने को 
थोड़ी सी रोशनी घोर अंधेरे के लिए 

ये 'थोड़ा थोड़ा' सा ही 'बहुत सा' वाले समय में 
ये थोड़ा तुम्हारे पास रहे 
ये थोड़ा मेरे पास रहे 
बस इस थोड़े से ही अच्छे से उम्र कटे।  



Wednesday 18 December 2013

लोकपाल बिल






46 सालों से लटका  लोकपाल बिल आखिर पास हो ही गया। अण्णा जी ने अपना अनशन समाप्त कर दिया।वे खुश हो रहे हैं कि उन्होंने बिल पास करा दिया। उनके समर्थक जश्न मना रहे हैं। तमाम राजनीतिक दल इसे पास कराने का श्रेय भी उन्हें दे रहे हैं। लेकिन बिल पास होने की जो टाइमिंग है और जो परिस्थितियाँ हैं उसके हिसाब से इसका श्रेय अण्णा को देना बेमानी है। 
           इसमें कोई संदेह नहीं कि इसे पास कराने के लिए उन्होंने लगातार आंदोलन किया। पिछली बार जब उन्होंने आमरण अनशन किया था तब उनका जीवन भी खतरे में पड गया था। उस समय अण्णा और टीम अण्णा को जो जन समर्थन मिला था वो अभूतपूर्व था। देश भ्रष्टाचार के गम्भीर और बड़े घोटालों से जूझ रहा था। जन समर्थन को देख कर सारी राजनीतिक पार्टियां ही नहीं सरकार भी सकते में आ गयीं थी। सरकार को झुकना पड़ा। उसे अण्णा के पास आना पड़ा और लोकपाल बिल पास करने का वायदा करना पड़ा। 
          हालाँकि  इसे राजनितिक पार्टियों ने संसद की गरिमा पर हमला बताया। लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर में अविश्वास बताया। पर तमाम विरोध के बावजूद दिखावे को ही सही संसद में बिल प्रस्तुत किया गया। पर पास नहीं हो सका होना भी नहीं था। रामलीला मैदान का अनशन इस बिल को लेकर किये जाने वाले आंदोलन का चरम था। यदि अण्णा की वजह से ये बिल पास होना था तो उस समय ही हो गया होता। लेकिन नहीं हुआ। बिल संसद में पेश जरूर किया गया पर उसे तमाम पेचीदगियों और अरंतु परन्तु में उलझा दिया गया। कोई भी राजनीतिक दल इस बिल को पास नहीं करना चाहता था।  क्योंकि इसे पास करने का मतलब था अपनी जड़ों पर ही प्रहार करना जिसके बल पर वे खड़ी हैं। फिर चाहे सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस हो या पार्टी विथ डिफरेन्स बी जे पी हो। सभी पार्टियों की सरकारों पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप हैं। और फिर क्यों नहीं कोई भी पार्टी अपने को सूचना के अधिकार के अंतर्गत नहीं आने देना चाहती। 
                   अब जब अण्णा दिल्ली से हज़ारों मील दूर  बैठे अपने गाँव में थोड़े से लोगों के साथ अनशन पर बैठे तो सरकार ने उनके आंदोलन के डर से या प्रभाव से बिल पास कर दिया? आखिर क्या बात है कि संसद सत्र शुरू होने के साथ अण्णा अनशन शुरू करते हैं और आनन् फानन में बिल पास हो जाता है। क्या इसमें कांग्रेस और अण्णा में  सांठ गाँठ की बू नहीं आती। एक तरफ चौतरफ़ा घोटालों से घिरी कांग्रेस की साख बचाने की जरूरत और दूसरी और केजरीवाल की आशातीत सफलता के बाद अपने अप्रासंगिक हो जाने की अण्णा की दुविधा। 
             दरअस्ल इसका श्रेय उस वैकल्पिक राजनीति को दिया जाना चाहिए जो हालिया दिल्ली विधानसभा चुनाव की देन है। इस चुनाव ने भारतीय राजनीति को कई तरह से बदला है। इस चुनाव ने परम्परागत राजनीति करने वाले दलों पर संकट खड़ा कर दिया। इस चुनाव ने जनता को इन दलों के अलावा भी एक विकल्प दिया है। और यहीं से राजनीतिक दलों में घबराहट का दौर शुरू होता है। अपनी विश्वसनीयता पर आये संकट से उबरने की चुनौती प्रस्तुत होती है। और यहीं से जनता की आकांक्षाओं को मान देने का महत्व समझते हैं। और लोकपाल बिल का पास होना उसकी परिणति बनती है। 
     ये ही वे राजनितिक दल हैं जिन्होंने इस बिल को पास होने से 46 साल रोके रखा। बड़ा आंदोलन खड़ा किया हुआ तो राजनीति में आकर क़ानून बनाने की चुनौती दी। दल बनाया तो मजाक उड़ाया। लेकिन चुनाव ने सभी दलों की बोलती बंद कर दी। क्या आप इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि इस चुनाव में एक नया विकल्प नहीं होता तो अब तक दिल्ली में सरकार नहीं बनती। जिस राजनीति में कुछ दल के नेता  30 या 40 सांसदों के बल पर  पी.एम. बनने के सपने देखते हो, वहाँ एक राजनीतिक दल सबसे अधिक सीट जीत कर भी दूसरी पार्टी से सरकार बनाने को कहे। जहाँ दल  बदल क़ानून की धज्जियां उड़ाई जाती हो वहाँ दल दूसरे दल को बिना शर्त समर्थन करें। ये सब इसी वैकल्पिक राजनीति की दें है। 
                     भ्रष्टाचारों के आरोपों से त्रस्त कांग्रेस और सरकार तो पहले से ही बैकफुट पर थी। उसके सामने अपनी साख बचाने का बड़ा संकट पहले से मौज़ूद था। तमाम सर्वे भाजपा की जबर्दस्त बढत बता रहे थे। और ये लगभग तय था कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप ना होती तो भाजपा को बड़ी आसानी से बहुमत मिल जाता। लेकिन इस पार्टी ने जनता को जो विकल्प दिया उसने भाजपा की भी नींद उड़ा दी। आखिर कैसे बिल पर एकाएक सहमति बन गयी। 
                                निसंदेह लोकपाल का बन जाना बड़ी बात है। सूचना के अधिकार के क़ानून की तरह इसके भी दूरगामी सकारात्मक परिणाम हो सकते हैं और होने भी चाहिए। पर इसके पास होने का श्रेय कम से कम तात्कालिक कारण होने का श्रेय तो इसी वैकल्पिक राजनीति के उदय को दिया जाना चाहिए। 











Saturday 30 November 2013

कलंक गाथा







                              तेजपाल प्रकरण से अब सारा हिंदुस्तान अवगत हो चुका है। तहलका पत्रिका ने नवंबर में गोआ में एक अंतरराष्ट्रीय महोत्सव थिंक फेस्ट आयोजित किया। इस आयोजन के दौरान पत्रिका के एडिटर इन चीफ और प्रख्यात पत्रकार ( अब कुख्यात ) तरुण तेजपाल ने अपनी सहयोगी पत्रकार का यौन उत्पीड़न किया। और ऐसा उन्होंने एक बार नहीं दो दिन किया। वो पत्रकार उनकी बेटी की उम्र की, उनकी बेटी की दोस्त और खुद उनके मित्र की बेटी है।
                              पहले मामले को उन्होंने अपने आप समेटने की कोशिश की।पीड़ित महिला पत्रकार को इस नसीहत के साथ कि 'ये नौकरी चलाने का सबसे आसान तरीका है' जब लड़की ने हिम्मत जुटाई और इस सम्बन्ध में पत्रिका की मैनेजिंग एडिटर शोमा चौधरी को मेल भेज कर घटना की सारी जानकारी दी। उन्होने इस मामले को पत्रिका के अंदर दबाने की कोशिश की। लेकिन जब जानकारी लीक हो गयी तो मामले को दूसरी तरीके से निपटाने की कोशिश की गयी। तेजपाल ने कहा कि उन्होंने पीड़िता से बिना शर्त माफी मांग ली है और प्रायश्चित करने के लिए अपने पद से 6 माह के लिए हट गए। इसे पत्रिका अन्दुरुनी मामला बताया गया। 
                                इस केस की सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि तेजपाल महोदय ने स्वयं को दोषी मानते हुए खुद को सजा भी दे डाली। उनकी इस अदा पर तमाम लोग फ़िदा हो गए और इसे साहसिक कदम बताया जाने लगा। पर मामला और तूल  पकड़ता गया। तब इसे बी जे पी का षड़यंत्र बताया जाने लगा ,कुछ ने उनके पुराने कार्यो का वास्ता दिया। एक महोदय ने पीड़िता की तुलना मोनिका लेविंस्की तक से कर दी। जब और आगे बात बढ़ी तो तेजपाल महोदय ने आरोप  को झूठा बता दिया। जिन महाशय ने पहले अपना अपराध मानते हुए खुद को सजा देने की घोषणा कर दी थी अब वो उस पापकर्म को बेशर्मी से नकार रहा है। इससे हास्यास्पद और क्या हो सकता है। यहाँ पर फेसबुक पर तेजपाल के बचाव में दिए कुछ टीप प्रस्तुत हैं। उल्लेखनीय है कि  ये सब बड़े और समाज के सम्मानित लोगों की टीप हैं तथा ऐसी और भी बहुत सी टीप होंगी …
                            1.   ".... yes, the question stands.but the lady journalist has still not filed any fir.we will talk of her when it comes up.but what makes those enthusiasts go out of their body to get tejpal arrested --isn't it a politico-communal design?
                            2. "… but I still feel that the fall of an angel should not be equated with the habitual acts of any devil." 
                           3. "..Think about a scientist, working 40 years in a laboratory, in absolute confinement, forgetting food, family, pleasures ..just to find a cure of a fatal decease, killing millions of people....think of those long fourty fifty years ...and one day, in fraction of moment...in a spurt of impulses he commits something wrong....and he admits it, confessing it in public....will you all erase all those contributions..
                            4 " ...."क्या आप अपना पक्ष तय कर चुके हैं ? मुझे याद आता है कारंत जी के साथ घटी घटना. जब आप सब लोग उनको फ़ांसी दिलाने के पक्ष में थे..शायद मैं अकेला था जब 'दिनमान' में उस घटना के विवेकपूर्ण, संयत और न्यायिक तरीके से देखने के पक्ष में लिखा था"
                                पिछले दिसम्बर में राजधानी दिल्ली में निर्भया काण्ड हुआ  था। पूरा देश आंदोलित हुआ। वो एक गंभीर अपराध था। हालांकि तेजपाल काण्ड की तुलना करना बेमानी है, पर इस मामले को उसके परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की जा सकती है क्योंकि ये दोनों ही मामले नारी के यौन उत्पीड़न से जुड़े हैं। ये सही है इस मामले में दरिंदगी उस हद तक नही हुई है पर कुछ मायने में ये उससे ज्यादा गम्भीर अपराध भी है और गम्भीर निहितार्थ लिए हुए है 
                         निर्भया कांड के दोषियों की पृष्ठभूमि देखिये तो पता चलेगा कि सारे अपराधी निम्न मध्य वर्ग के थे ,कम पढ़े लिखे थे ,अपने घरों से दूर जीविका अर्जित करने आये थे ,उनकी अपनी कुंठाए रही होंगी। उन्होंने एक अनजान लड़की को देखा और उसके साथ घोर निंदनीय दरिंदगी कर डाली। ऐसा अपराध जिसके लिए मृत्यु दंड भी छोटा लगने लगा। 
                           इसके विपरीत तेजपाल समाज के सबसे सपन्न और प्रबुद्ध वर्ग से आते है। समाज इनसे न केवल नेतृत्व की अपेक्षा करता है बल्कि अपेक्षा करता है कि वे समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत कर मार्गदर्शन भी करेंगे।ये वो वर्ग है जिसे हर तरह की सुविधाएँ उपलब्ध है ,ऐशो आराम से रहते है। निश्चय ही तेजपाल का मन किन्ही चिंताओं से कुंठित नहीं रहा होगा और उन्होंने जो कुछ भी किया वो सोच समझ कर किया। उन्होंने स्वीकार भी किया है कि 'उनका कृत्य परिस्थितियों का गलत मूल्यांकन था'। यानि जो किया सोच समझ कर  किया और सोच समझ कर किया जाने वाला अपराध अचानक हो जाने वाले अपराध से बड़ा होता है। इस दृष्टि से तेजपाल का कृत्य  एक बड़ा अपराध है और संपन्न वर्ग के आदर्शो से च्युत होने की कलंक गाथा है। 
                              वे पढ़े लिखे बुद्धिजीवी वर्ग से आते हैं। बुद्धिजीवी वर्ग ही अपने ज्ञान के प्रकाश से समाज का मार्गदर्शन करता है। उनसे सबसे ज्यादा विवेकवान  होने की अपेक्षा की जाती है। उनसे हर कार्य विवेकसम्मत तरीके से करने की भी अपेक्षा की  जाती है।ऐसे में उनका अपराध कम पढ़े लिखे विवेकहीन लोगों की तुलना में अधिक बड़ा है। और उनका कृत्य बुद्धिजीवी वर्ग की प्रतिष्ठा को धूल धुसरित करने की कलंक गाथा है। 
                                    वे पत्रकार थे। पत्रकारिता के शिखर पर थे। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है। पत्रकार की समाज में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उससे अपेक्षा होती है कि समाज में और विशेष रूप से महिलाओं पर हो रहे अन्याय, अनाचार, अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करेगा। इसके विपरीत तेजपाल का अपने साथी पत्रकार के साथ ये कृत्य पत्रकारिता पेशे के उसूलों को बदनाम करने की कलंक गाथा है। 
                               उन्होंने जिस लड़की के साथ ये कृत्य किया वो कोई अनजान नहीं थी। उनकी माहतत कर्मचारी थी,उनकी साथी पत्रकार थी,उनके द्वारा सेवायोजित थी। सेवायोजकों का कर्त्तव्य है वो ना केवल अपने कर्मचारियों से बेहतर सम्बन्ध बनाए बल्कि उसके हितो की रक्षा भी करे। इस तरह से तेजपाल का ये कृत्य सेवायोजकों के मूल्यो से विचलन की कलंक गाथा है। 
                                    वो लड़की उनके अपने साथी और दोस्त की बेटी थी। वो दोस्त अब इस दुनिया में नहीं है। ऐसे में तेजपाल का ये गुरुतर दायित्व बनाता था कि वो उसकी हर तरीके से रक्षा करे। उसे हर मुसीबत से बचाये। लेकिन उसने अपनी बेटी की उम्र की उस लड़की का बेजाँ फ़ायदा उठाना चाहा। इस दृष्टि से उसका ये कृत्य दोस्ती को कलंकित करने की कलंक गाथा है।
                            वो लड़की केवल तेजपाल के दोस्त की बेटी ही नहीं थी बल्कि उसकी खुद की बेटी की भी दोस्त थी। वो बचपन से उसकी बेटी के साथ रहती आयी थी। उसके दोस्त की बेटी और उसकी बेटी की दोस्त और उसकी हमउम्र होने के कारण उसकी बेटी की तरह थी। इस दृस्टि से उसका कृत्य स्थापित बाप बेटी के पवित्र रिश्ते को बदनाम करने की कलंक गाथा है।  
                                 दरअस्ल ये इस बात कि अभिव्यक्ति है कि समाज के सुविधा संपन्न वर्ग के लिए, शीर्ष पर बैठे सत्ता और अधिकारों से लैस मुट्ठी भर लोगों के लिए उनकी अपनी इच्छा,अपनी सनक ही क़ानून है। वे जब चाहे जो चाहे कर सकते हैं।विधि स्थापित क़ानून सिर्फ आम आदमी के लिए हैं। वे स्वयं क़ानून से ऊपर है।असल में ये लोकतंत्र नहीं कुछ प्रभावशाली लोगों का उनके अपने हितो को साधने का तंत्र है और इस तंत्र में ऐसी कलंक गाथाओं से आपका वास्ता पड़ता ही रहेगा !!!  

Friday 15 November 2013

विदा सचिन !!!




15 नवम्बर 2013। मुम्बई का वानखेड़े स्टेडियम। समय दिन के लगभग दस बजकर चालीस मिनट।ड्रिंक्स के बाद का पहला ओवर। देवनारायण की गेंद। सचिन के बल्ले का एज लगा। कप्तान सैमी ने कैच पकड़ने में कोई गलती  नहीं की। सचिन आउट। सचिन की आखिरी इनिंग समाप्त। पूरा स्टेडियम स्तब्ध। सचिन वापस पवैलियन लौट रहे हैं। पूरा स्टेडियम खड़े होकर उन्हें विदा कर रहा था। 24 साल पहले 1989 को करांची से जो कहानी शुरू हुई थी आज उसका समापन हो रहा था। सचिन ने 12 चौकों की मदद से 118 गेंदों में 74 रन बनाये।

                   सचिन ने अपनी  इनिंग कल शुरू की थी। कल 38 बनाकर नॉट आउट थे। आज जिस तरह से खेल रहे थे लगा बड़ा स्कोर करेंगे। आज का खेल पुजारा ने शुरू किया। सिंगल लेकर स्ट्राइक सचिन को दी। अब पूरा स्टेडियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था।  जल्द ही सचिन ने शिलिंगफोर्ड को दो चौके मारे। स्कोर 47 हुआ। फिर शिलिंगफोर्ड पर सिंगल लिया। स्कोर 48 हुआ। इसके बाद टीनो बेस्ट की गेंद पर अपना ट्रेडमार्क स्ट्रेट ड्राइव कर चौका लगाकर अपना 68 वाँ अर्ध शतक पूरा किया।

                     सचिन जबर्दस्त क्रिकेट खेल रहे थे। वे जानते थे कि वे 40 हज़ार दर्शक स्टेडियम में और करोड़ों टी वी पर उन्हें आखिरी बार खेलते देख रहे हैं। वे अपना बेस्ट देना चाहते थे। वे एक एक क्षण को जी लेना चाहते थे। ठीक वैसे ही जैसे दर्शक इस इनिंग को हमेशा हमेशा के लिए यादगार बना लेना चाहते थे। अपने 24 साल का सारा अनुभव इस इनिंग उड़ेल दिया था। 24 सालों के सारे खेल को इस एक इनिंग में भर देना चाहते थे। दर्शकों की दीवानगी के बीच एकाग्रचित होकर अपनी पारी को आगे बढ़ा रहे थे। 60 पार किया। 70 पर पहुँचे। अब लगने लगा था सचिन की 101वीं सेंचुरी बना लेंगे। पर विधान को कुछ और ही मंजूर था। 74 पर देवनारायण ने 24 साल पुरानी लम्बी यात्रा पर आखिरकार विराम लगा दिया। ये वकार युनुस से करांची में शुरू हुए दुनिया भर के गेंदबाजों के लिए दुःस्वप्न का अन्त था।

  सचिन आज के बाद तुम मैदान पर क्रिकेट खेलते नज़र नहीं आओगे। अब तुम्हारा नए सिरे से मूल्यांकन   होगा। तुम्हारे कैरियर की चीर फाड़ होगी। तुम्हे भगवान बताया जायेगा। तुम्हे महान बताया जायेगा। तुम्हारी आलोचना भी होगी। पर इन सब से तुम वापस खेलने मैदान पर तो  नहीं आओगे। और अगर तुम मैदान पर नहीं भी दिखाई दोगे तो भी क्रिकेट तो चलता ही रहेगा ना। भारत जीतता भी रहेगा,हारता भी रहेगा। किसी के खेलने या न खेलने से क्रिकेट पर क्या फ़र्क़ पड़ता है। हाँ फर्क़  पडेगा तो तुम्हारे उन चाहने वालों पर पड़ेगा जिनके लिए क्रिकेट का मतलब ही सचिन होता था। अब उनके लिए क्रिकेट अब वो क्रिकेट नहीं होगी जो तुम्हारे खेलने पर होती थी। अब तुम उनके लिए सिर्फ याद बन कर रहोगे। अब जब भी क्रिकेट की बात होगी तो तुम्हारी याद आएगी। तुम अब उन सब के लिए मानक बन कर उनकी स्मृतियों में बस जाओगे हमेशा के लिए। अब तो जब भी कोई  … 
 _  रन बनाएगा तो याद आयेगा  तुमने टेस्ट मैचों में सबसे ज्यादा 15921 रन बनाये हैं। 
             … तो याद आयेगा  तुमने एकदिनी मैचों में सबसे ज्यादा 18426 रन बनाये हैं.
             … तो याद आयेगा  तुमने दोनों में मिलाकर सबसे ज्यादा 34347 रन बनाये हैं
 _  सेंचुरी बनाएगा तो याद आयेगा तुमने शतकों का शतक बनाया है। 
             …  तो याद आयेगा तुमने टेस्ट मैचों में सबसे ज्यादा 51 शतक बनाए है।                 
             …  तो याद आयेगा तुमने एकदिनी मैचों में सबसे ज्यादा 49 शतक बनाए है।
 _  टेस्ट कैप मिलेगी तो तुम याद आओगे तुमने 16 साल की उम्र में पहला टेस्ट खेला।
 _  संन्यास लेगा तो याद आयेगा कि तुमने 200 टेस्ट खेले
 _  याद आयेगा एकदिनी मैचों में पहला दोहरा शतक तुमने ही मारा।
 _  सिक्स मारेगा तो याद आयेगा तुमने शोएब अख्तर को थर्ड मैन के ऊपर सिक्स मारा था।

सिर्फ इतना ही नहीं अब जब भी …
 _  कप्तान किसी खिलाड़ी को कोई नसीहते देगा तो याद आओगे कि साथी खिलाड़ी सचिन जैसा हो
 _  कोई बच्चा क्रिकेट का बात पकड़ेगा तो उस याद आयेगी वो सचिन जैसा बने।
 _  कोच ट्रेनिंग देगा तो उसे तुम याद आओगे कि सचिन जैसा शिष्य हो।

          सच तो ये है तुम्हारी हर बात याद आयेगी ! सचिन भले ही तुम मैदान में ना दिखो। पर अपने फैन्स के दिलों में हमेशा रहोगे। हमेशा उनके दिलों पर राज़ करोगे।विदा सचिन !खेल के मैदान से !! विदा सचिन !!!

(चित्र गूगल से साभार )

Thursday 7 November 2013

प्रेम



आओ साथी आओ
डाले हाथ में हाथ
चले साथ
और प्रेम के विरोधियो को
सिखाएं प्रेम का पाठ


आओ चलें चाँद पर
समेट कर वहाँ से लाएँ
ढेर सारी शीतलता
और उससे कर दें शांत
प्रेम विरोधियों की सारी घृणा


 आओ चले सूरज के पास
 माँग कर वहाँ से लाएँ
 ढेर सारी ऊष्मा
 और भर दे
 प्रेम विरोधियों में प्रेम की गर्मी


आओ चले बृहस्पति के पास
बटोर कर वहाँ से लाएँ
ज्ञान का भण्डार
और सिखा दे
प्रेम विरोधियों को प्रेम के मायने

आओ चलें शुक्र के पास
उतार ले आएं वहाँ से
प्यार की गंगा
और तर्पण कर दे
प्रेम विरोधियों के सारे पूर्वाग्रह और कुंठाएं


आओ चले शनि के पास
सीख कर आएं वहाँ से
थोड़ा सा जादू
और दूर कर दे
प्रेम विरोधियों के मन की सारी कलुषता


आओ चलें तारों के पास
भर कर लाएं वहाँ से
रोशनी की झोली
और उतार दे उसको
प्रेम विरोधियों के दिमाग में
(ताकि देख सकें प्रेम को साफ़ साफ़ )


आओ सिखा दे
प्रेम विरोधियों को
स्वयं सैनिकों को
धर्म विद्यार्थियों को
खाप पंचायतों को
प्रेम करना


और बता दे उन्हें
कि वे भी तो किसी के प्यार की उपज हैं।








Sunday 27 October 2013

मैंने शिव को देखा है


मैंने शिव को देखा है 

गली, चौराहों, सड़को और घरों में 

यहाँ तक कि लोगों की जेबों में देखा है। 

कभी सर्जक 

तो कभी विध्वंसक होते देखा है।

कभी जमींदारों का  हथियार 

और पूंजीपतियों का कारखाना होते देखा है 

तो कभी  मजदूरों की बंदूक होते देखा है।  

कभी सभ्यताओं को  विकसित करते 

और आज उन्हें विनाश के मुहाने खडा करते देखा है  

मैंने आदमी को देखा है। 


खेल



कंचे गुल्ली डंडे से लेकर फुटबॉल क्रिकेट तक
सभी खेल हो चुके है पुराने
और इन्हें खेलते खेलते ऊब चुके है हद तक
क्योंकि इनमे नही होते धमाके
नहीं बहता खून
नहीं मचती चीख पुकार
नहीं उजड़ते मांगो के सिन्दूर
नहीं होते बच्चे अनाथ
नहीं नेस्तनाबूत होते घर परिवार
और पल भर उजड़ता संसार

तो आओ खेले एक ऐसा खेल
जिसे कभी सिखाया था हमारे आकाओं ने
और हमने भी सीखा अच्छे शिष्यों की तरह
और खेले जिसे हम आजादी पाने के उन्माद में
खेले भागलपुर में
भिवंडी में
मलियाना में
दिल्ली में
गुजरात में
आसाम में
और मुज़फ्फरनगर में भी तो


तो शुरू करें खेल - "धरम गरम"
तू तू तू हिन्दू हिन्दू हिन्दू ऊ ऊ  ऊ ऊ.।
ये मारा एक लोना
गुजरात मेरा
तू तू तू तू मुस्लिम मुस्लिम म म म म म …
वो मारा एक लोना
और ये हुआ उत्तर प्रदेश मेरा
तू तू तू बांग्ला बंगला ला ला ला ला
वो मारा एक और लोना
हुआ आसाम मेरा

कितना आनन्द आ रहा है
एक के बाद एक लोना जीतते जा रहे है
तो फिर रुकना क्यों
लगातार खेलते जाना है
कब्जे में पूरा हिन्दुस्तान जो लाना है
क्रिकेट में तो विश्व चैंपियन है
इसका भी तो ताज पहनना है।

(लोना =कबड्डी में एक टर्म जो विपक्षी टीम के सभी खिलाडियों को आउट करने पर मिलता है और कुछ एक्स्ट्रा पॉइंट मिलते हैं )  

Monday 21 October 2013

भगवान सन्यास ले रहे है



            "मैंने भगवान् को देखा है वो भारत में नम्बर चार पर बैटिंग करने आता है।"
                                                                                                          मैथ्यू हेडन
                              और क्रिकेट का ये भगवान् अब सन्यास लेने जा रहा है ।

      एक लम्बे समय से जिसका इंतज़ार हो रहा था आखिर वो समय आ ही गया। क्रिकेट के भगवान यानी सचिन रमेश तेंदुलकर ने घोषणा कर दी कि अपने दो सौवे टेस्ट मैच के बाद वे टेस्ट मैच से भी सन्यास ले लेंगे। बी सी सी आई ने घोषणा की है कि ये मैच वानखेड़े स्टेडियम मुंबई में नवम्बर में वेस्ट इंडीज के खिलाफ होगा। पिछले बीस सालों से वे भारतीय क्रिकेट टीम के अनिवार्य अंग बने हुए थे।उनका सन्यास क्रिकेट में एक ऐसा सूनापन भर देगा जिसे जल्दी भरना संभव नहीं होगा। ये वास्तव में दिलचस्प होगा उनका स्थान कौन  लेगा। 

         वे 'क्रिकेटिंग जीनियस' थे। उनमे क्रिकेट की जबरदस्त समझ थी। उनके बारे में कहा जाता है उनके पास हर बॉल को खेलने के लिए दो शॉट होते थे। ये उनकी महान प्रतिभा का ही प्रमाण है। उन्होंने तमाम नए शॉट ईजाद किए या  इम्प्रोवाईज़ किए। वे क्रिकेट के प्रति पूरी तरह समर्पित थे। उनका व्यक्तित्व भी बड़ा सौम्य था। मैदान में वे बड़े शांत दिखाई देते थे। क्रिकेट के प्रति उनका समर्पण और उनका व्यक्तित्व खिलाड़ी के रूप में उनके कद को और भी ऊँचा कर देता है। 

          लाखों  करोडों लोगों की तरह मैं भी सचिन का जबर्दस्त फैन रहा हूं। मेरे लिए भारतीय पारी का मतलब सचिन की पारी था। सैकड़ो बार ऐसा हुआ कि सचिन के आउट होते ही मेरे लिए भारतीय पारी समाप्त हो जाती थी और रेडियो या टी.वी.बंद हो जाता था और अगली इनिंग का इंतज़ार होने लगता था। अब सोचता हूँ क्या  गजब की दीवानगी थी ! सचिन ने अब इतने रिकार्ड्स बना दिए है की या तो वे टूटेगे ही नहीं और अगर टूटे भी तो बहुत समय लगेगा। और सच ये है कि मैं चाहता भी नहीं कि सचिन का कोई रिकॉर्ड टूटे भी। 

        अलग अलग प्रारूप में देखे तो कई खिलाड़ी उनसे आगे खड़े नज़र आते है। यहाँ बात मैं सिर्फ भारतीय खिलाडियों की ही कर रहा हूँ।और नज़रिया खेलते देखने का हो तो सचिन की तुलना में बहुत से ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्हें देखने के लिए आप सचिन पर वरीयता देना चाहेंगे। टेस्ट में राहुल द्रविड़ का शानदार क्लासिक खेल और डिफेन्स,वी वी एस लक्ष्मण की कलात्मक बैटिंग या फिर जी. विश्वनाथ और मो. अज़हरुद्दीन का शानदार रिष्ट वर्क सभी सचिन पर भारी पड़ते हैं।एकदिनी क्रिकेट में वीरेंदर सहवाग का आक्रामक खेल या युवराज के लम्बे शॉट लगते देखना सचिन को भुला देने के लिए पर्याप्त हो सकता है। टी-20 में तो सचिन उतने सफल रहे ही नहीं। क्षेत्र रक्षण में भी वे ठीक ठाक ही थे।

        और इन सब के ऊपर अगर किसी एक खिलाड़ी का नाम में लेना मुझे लेना हो जिसे मैं खेलते देखने में सचिन के ऊपर वरीयता दूं तो वो नाम मोहिंदर अमरनाथ का है। मोहिंदर के खेलते देख कर हमेशा लगा कि क्रिकेट वास्तव में जेंटलमैन गेम है। वे बड़े ही इत्मिनान से खेलते थे। वेस्ट इंडीज के तेज गेंदबाजों को भी इस इत्मीनान से खेलते थे कि ऐसा लगता मानो हर बाल खेलने के लिए उनके पास बहुत सारा समय है। वे हुक बहुत किया करते थे।वे प्यार से सहला कर हुक कर बॉल बाहर भेजते थे।उन्हें खेलते देखकर आप को ऐसा महसूस होता था मानो उस्ताद बिस्मिल्लाह को या फिर उस्ताद अमजद अली खान साहब को सुन रहे है आपको लगता  कि मंद मंद समीर बह रही है। जैसे तितली फूलों  के साथ हठखेलिया कर रही हो। सही मायने में मोहिंदर को खेलते देखना मन को सुकून देता था।

         इतना सब होते हुए भी सचिन टोटलिटी  में महानतम खिलाड़ी हैं। कोई खिलाड़ी उनके सामने ठहर नहीं सकता है। आज टीम में जिस तरह का माहौल है उसमे सचिन जैसा खिलाड़ी सहज महसूस कर ही नहीं सकता। जिस तरह सीनियर खिलाड़ियों को एक एक कर बाहर का रास्ता दिखाया गया और जहाँ अहंकार सर चढ़ कर बोलता हो वहां सचिन का सन्यास लेना ही मुनासिब था। 

    सचिन भले ही तुम मैदान में ना दिखो। पर अपने फैन्स के दिलों में हमेशा रहोगे। हमेशा उनके दिलों पर राज़ करोगे।  क्रिकेट के इतिहास में लाखों सितारों के बीच सूर्य की भांति हमेशा चमकते रहोगे। विदा सचिन !खेल के मैदान से !! विदा सचिन !!!

Wednesday 25 September 2013

रिश्ता




जब भी गाँव जाता हूँ मैं

मिलना चाहता हूँ सबसे पहले

कृशकाय वृद्ध महिला से

जो रोज़ सुबह आती है दरवाज़े पे

ओढ़नी से काढ़े लंबा सा घूंघट

और लिए एक टोकरा सर पर और कभी कमर पर टिकाये  

खटखटाती है सांकल

ले जाती है दैनंदिन का कूड़ा

इसे गाँव कहता है चूढी(जमादारिन )

पर माँ मेरी कहती है 'बीवजी '

मैं बुलाता हूँ अम्मा

देखते ही मुझे जब  पूछती है वो

"कैसा है बेट्टा"

तो मन में बजने लगते हैं वीणा के तार

 कानों में घुल जाता है  शहद

दुनिया भर की माओं का प्यार उमड़ आता  है इस एक वाक्य में    

तब मेरी बेटी  पूछती है  मुझसे

किस रिश्ते से ये तुम्हारी अम्मा लगती हैं

तो मैं समझाता हूँ उसे

कि बहुत से रिश्ते गाँव की रवायतें बनाती हैं

जो अब मर रहीं हैं

और ये ऐसे रिश्ते हैं शब्दों  में बयां नहीं हो सकते

उन्हें सिर्फ और सिर्फ महसूसा जा सकता है।

स्त्री


वो हमेशा से दो सीमांतों पर ही रहती आयी  है  

इसीलिए हाशिये पर बनी हुई है 

वो या तो  "यत्र नार्यस्ते पुज्यन्तू....."वाली  देवी  है 

जौहर और सती होकर"देवत्व"को प्राप्त करती हैं  

या फिर दीन हीन होकर रहती है 

ढोल और पशु के समान 

ताड़ना की अधिकारी बनती है 

आखिर कब वो संतुलन के केंद्र में आएँगी 

केवल मनुष्य कहलाएंगी 

अपनी  समस्त

सम्वेदनाओ,

भावनाओं,

इच्छाओं,

राग विरागों,

कमियों और खूबियों से लैस 

हाड मांस का साक्षात्

साधारण मानव बन पाएगी। 


ख़तरा आ चुका है






ट्रेन के इंतज़ार में खड़ा स्टेशन पर

कि अचानक एक छोटा सा लड़का सामने आया

मांगने के लिए  हाथ बढ़ाया 

गरीबी को समझाया 

भूख की दुहाई दी 

माँ की बीमारी का वास्ता दिया 

और खूब ही गिडगिडाया 

पर मेरे आदर्शवाद ने उसकी सारी  दलीलों को ठुकराया 

मैं बोला पढ़ो लिखो और काम करो 

उसने पूछा आपके साथ चलूँ 

मैं सकपकाया और जल्दी से एक नोट उसके हाथ थमाया

नोट थामते ही उसकी आँखे बोल उठी 

 मेरी तरह अपने स्टैंड पर दृढ रहो 

और सफलता के लिए लगातार प्रयत्न करो

 सफलता मिलती है 



फिर वो  गया और जल्दी ही पास की स्टाल पर प्रकट हुआ 

 पेप्सी  और चिप्स का  पैकेट हाथ में लिए 

उसने कुछ घमंड और उपेक्षा भरी नज़रों से देखा 

मानो कह रहा हो उपभोग करना सिर्फ तुम्हारा अधिकार नहीं 

उपभोग को मैंने भी अच्छी तरह से सीख  पढ़ लिया है 



मैं सिहर उठा 

पानी सर से ऊपर जा चुका है 

शत्रु निकट से निकटतर आ चुका है 

बाज़ार का जादू उसके ही सर चढ़ कर बोल रहा है 

और दिल के रस्ते दिमाग को जकड चुका है 

जिसके लिए कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो रची गयी 

और बन्दूक की नली से क्रांति करी गयी। 

Wednesday 18 September 2013

फ़ुटबाल_और कितने नीचे

                      12 सितम्बर को जब अर्जेंटीना ,इटली ,हालैंड ,अमेरिका और कोस्टारिका जैसी टीमें 2014  के विश्व कप फुटबाल के लिए क्वालीफाई कर रही थीं उसी समय काठमांडू नेपाल के दशरथ रंगशाला स्टेडियम में भारतीय फ़ुटबाल की दुर्दशा की  एक और इबारत लिखी जा रही थी। सैफ फ़ुटबाल टूर्नामेंट के फाइनल में अफगानिस्तान ने भारत को 2 -0 से हरा दिया।  दो साल पहले भारत ने अफगानिस्तान को 4 -0 से हरा कर ये टूर्नामेंट जीता था। इस क्षेत्रीय टूर्नामेंट में विश्व की एकदम निचली रैंक वाली टीमें भाग लेती हैं।इस पूरे टूर्नामेंट में  भारत का बहुत ही लचर प्रदर्शन रहा। लीग स्टेज में पाकिस्तान को 1-0 से हराया,बांग्लादेश से 1-1 से ड्रा खेला,और नेपाल से 1-2 से हारी। किसी तरह सेमीफाइनल में पहुँची जहाँ मालदीव को 1-0 से हराया।
        दक्षिण एशियाई देशों के इस टूर्नामेंट में भाग लेने वालों देशों में भारत सबसे बड़ा और सबसे अधिक संसाधनों वाला देश है। लेकिन सीमित संसाधनों वाले इन छोटे देशों ने भारत की अपेक्षाकृत बेहतरीन फुटबाल खेली। विशेष तौर पर अफगानिस्तान की तारीफ करनी होगी जिसने सीमित संसाधनों और आतंकवाद से जूझते हुए भी शानदार खेल का प्रदर्शन किया और पिछले दो तीन सालों में खेलों में शानदार प्रगति की। टूर्नामेंट से पहले उसकी फीफा रैंकिंग 139 थी जबकि भारत की रैंकिंग 145 थी। अफगानिस्तान टीम के कम से कम 7 खिलाडी जर्मनी और अमेरिका की निचली फुटबॉल लीग में  खेलते हैं। ये बात काबिलेतारीफ़ है कि अफगानिस्तान इन परिस्थितियों में भी खेलों में इतनी प्रगति कर रहा है। इस हार के बाद फीफा रैंकिंग में भारत 10 स्थान नीचे खिसक कर 155 वें और अफगानिस्तान 7 स्थान ऊपर चढ़ कर 132 वें स्थान पर आ गया है।
      भारतीय फुटबॉल की ऐसी स्थिति हमेशा नहीं थी। हॉकी की तरह फ़ुटबाल का भी एक  स्वर्णिम इतिहास रहा है।भले ही वो हॉकी जितना चमकदार ना हो। ये समय है 1948 से 1964 तक का। 1948 का लन्दन ओलिंपिक। पहली बड़ी प्रतियोगिता थी जिसमें भारत ने भाग लिया। यहाँ उनका मुकाबला फ्रांस से था। वे 1-2 से मैच हारे जरूर । पर दर्शकों का दिल जीत लिया। ज्यादातर खिलाडी नंगे पैरों से खेल रहे थे। पर शानदार खेल दिखाया। यदि उन्होंने दो पेनाल्टी को गोल में तब्दील कर दिया होता तो कहानी कुछ और होती। इसी समय सैयद अब्दुल रहीम भारतीय फ़ुटबाल परिदृश्य पर उभरते हैं। कोच के रूप में उन्होंने भारतीय फुटबॉल को नई ऊँचाई तक पहुँचाया। 1951 में पहले एशियाई खेल नई दिल्ली में आयोजित किये गए। यहाँ टीम ने स्वर्ण पदक जीता। क्वार्टर फाइनल में इंडोनेशिया को 3-0 से और सेमी फाइनल में अफगानिस्तान को 3-0 से हराया। फाइनल में ईरान को 1-0 हराकर स्वर्ण पदक जीता। मेवालाल साहू जीत के नायक रहे। उन्होंने सर्वाधिक 4 गोल दागे। लईक, वेंकटेश ,अब्दुल लतीफ़ और मन्ना टीम के अन्य सितारे थे। इसके बाद भारतीय फुटबाल की एक नई गाथा लिखी जानी थी। सन 1956 मोंट्रियाल ओलिंपिक। पहला मैच - हंगरी से वॉक ओवर मिला। दूसरा मैच क्वार्टर फाइनल। मेजबान ऑस्ट्रेलिया को 4-2 से हराया। नेविल डीसूजा मैच के हीरो - हैट ट्रिक बनाने वाले पहले एशियन बने और इस तरह ओलिंपिक फुटबॉल के सेमी फाइनल में पहुँचने वाली पहली एशियाई टीम बनी। सेमी फाइनल यूगोस्लाविया से। पहला हाफ गॉल रहित। दूसरा हाफ - 55वें मिनट में नेविल डिसूजा ने भारत को बढ़त दिलाई। पर इस बढ़त को कायम न रख सके। अंततः 4-1 से हारे। प्ले ऑफ मैच में बुल्गारिया से 3-0 से हारे और चौथा स्थान प्राप्त किया। 1951 के बाद 1962 के जकार्ता एशियाई खेलों में भारतीय खिलाडियों ने शानदार खेल दिखाया और पुनः स्वर्ण पदक जीता। हाँलाकि लीग स्टेज में साउथ कोरिया से 0-2 से हारे पर थाईलैंड को 4-1 से और जापान को 2-0 से हरा कर सेमी फाइनल में प्रवेश किया जहाँ साउथ विएतनाम को 3-2 से हराया। फाइनल में साउथ कोरिया को 2-1 से हरा कर न केवल स्वर्ण पदक जीता बल्कि लीग में हार का बदला भी ले लिया। इसके बाद साल 1964 तीसरा  ए.एफ.सी.एशियन कप इस्रायल में आयोजित हुआ। यहाँ रजत पदक जीता। चुन्नी गोस्वामी, इन्दर सिंह और सुकुमार जैसे खिलाड़ी इस टीम के सदस्य थे। यहीं से भारतीय फुटबॉल के पतन की कहानी शुरू होती है जो सितम्बर 2012 में चरम पर पहुँच गयी जब भारत फीफा रैंकिंग में 169वें स्थान पर आ गया। 1964 में रजत पदक जीतने के बाद केवल दो बार  ए.एफ.सी.एशियन कप के बमुश्किल क्वालीफाई कर सकी 1984 और 2011 में। जबकि एशियाई खेलों में1982 में नई दिल्ली  में क्वार्टर फाइनल तक पँहुचे। इसके अतिरिक्त और कोई बड़ी उपलब्धि भारतीय फुटबॉल की नहीं है।
                भारत में फुटबॉल की खराब होती स्थिति को सुधारने के कुछ प्रयास भी हुए। पर कोई विशेष नतीजा नहीं निकला। 1982 में एक अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंट नेहरु कप शुरू किया गया  जो अभी तक जारी है। हाँलाकि ये 1998  से 2006 तक स्थगित रहा। 1987 में टाटा स्टील ने जमशेदपुर में टाटा फुटबॉल अकादमी शुरू की। आल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन ने भी गोवा ,मुंबई और कोलकाता में तीन रीजनल फुटबॉल अकादमी और गोवा में एक इलीट फुटबॉल अकादमी स्थापित की है। 1996 में ए.आई.एफ.एफ. ने पहली  फुटबॉल लीग शुरू की।  2006 में  इसे समाप्त कर आई लीग की स्थापना की गयी। आई लीग में टॉप 14 टीम खेलती हैं। हर साल अंतिम दो टीम आई लीग (डिवीज़न दो) में आ जाती हैं और डिवीज़न दो की 21 टीमों में से टॉप दो टीम आई लीग में शामिल हो जाती हैं। इसी साल ए.आई.एफ.एफ. आई पी एल की तरह की एक और लीग शुरू करने जा रही है। विदेशी कोच भी नियुक्त किये गए। 2002 से 2005 तक स्टीफेन कांतेस्ताइन ,2006 से 2011 तक बॉब होटन और 2012 में विम कोवरमेंस कोच बने। लेकिन इन प्रयासों का कोई नतीज़ा निकलता दिखाई दे रहा है। स्थिति जस की तस बनी हुई है। 

Sunday 15 September 2013

क्यों जाता हूँ गाँव



शहर में मची आपा-धापी से ऊब कर 

बार-बार लौट जाता हूँ गाँव  

खेत खलिहानों की हरियाली को निहारने

हल चलाने की कोशिश करने 

रहट चलाने

झोंटा बुग्गी हाँकने 

होल़े भुनकर खाने 

कोल्हू मे बनते ताज़े गुड को चखने

छप्पर पड़े घर में दुबकने

बड़े से घेर में उछल कूद मचाने

घी-दूध की नदियो में मचलने 

रागिनियाँ सुनने 

 सांग देखने 

चौपाल पर बैठने 

हुक्का गुडगुडाते बाबा से नसीहते सुनने 

अखाड़ो  में भाई बन्धुओ को जोर आजमाइश करते देखने 

बच्चों के साथ कंचे और गुल्ली डंडा खेलने 

कली पीती दादी माँ का दुलार पाने 

चरखा कातती ताई-चाची से आशीर्वाद  लेने  

साँझी को सजाने

बरकुल्लों को होलिका पर अर्पण करने

यारों से मिलने

बचपन की यादों के कोलाज़ सजाने

और भी ना  जाने क्या क्या करने ,देखने,सुनने और गुनने



लौट आता हूँ मैं गाँव बार-बार 

क्योंकि मैं भूल जाता हूँ 

कि अब हो रहा है भारत निर्माण 

और बदल रही है गाँव की तस्वीर

घरों की जगह ईंट सीमेंट से बने दड़बों ने ले ली है

 गाँव बन गया है पॉश कालोनियों से घिरा  टापू

जहाँ विकास की रोशनी पहुँचती है थोड़ी बहुत छनकर

 मैकाले की फ़िल्टरेशन थ्योरी की तरह

पर और बहुत सारी ग़ैर ज़रूरी चीजे पहुँच जाती आसानी से

बिना किसी रोकटोक के भरपूर

 पब्लिक स्कूल उग आये है कुकुरमुत्तों की तरह

जहाँ दुखहरन मास्टरजी नहीं ,पढ़ाती हैं टीचरजी

दारु के ठेके भी  देर रात तक रहते हैं गुलज़ार

कुछ शोह्देनुम लोग भी दिखाई पड़ने लगे हैं गाँव में

चौपालों पर तैरने लगे हैं राजनीतिक षड़यंत्र

गलियों में कुत्तों के साथ साथ घूमने लगे है माफिया

और इन्ही लोगों के साथ-साथ चुपके से बाज़ार ने कर ली है घुसपैठ




फिर भी लौट लौट जाता हूँ गाँव

जैसे बाबा हर बार अपने बेटे के पास से लौट आते थे गाँव

जीवन की सांध्य बेला में पिताजी को भी नहीं रोक सकी शहर की

कोई सीमा

वैसे ही

जड़ों से उखड़ने के बाद  शहर की भीड़ के बियावान में गुम

अपनी पहचान की तलाश में

अपनी जड़ो की और लौटता हूँ मैं भी

उन्हें सींचने और बनाने मजबूत

लौटता हूँ गाँव बार बार। 


(                                               (भूमि अधिग्रहण के बाद उजाड़ पड़ा गाँव )

बेटी



मेरे आँगन में गौरय्या

फुदकती चहकती

करती तृप्त अपनी स्वर लहरियों से

चाह उसमें उड़ने की उन्मुक्त 

आकाश में

पंख फैलाकर उड़ती है अनंत गगन में



पर लौट आती है

लहुलुहान होकर

गिद्धों से भरा पड़ा  है पूरा आसमान

जिनकी (गिद्ध )दृष्टि क्षत विक्षत देती है उसकी आत्मा  को

तार तार कर देती हैं उसकी सारी उमंगें 

पस्त कर देती हैं उसके सारे हौंसले



वो लौटती है हाँफती  हाँफती

आ बैठती है मेरे कन्धे  पर

उदास उदास सी  

आँखों में प्रश्न लिए देखती है मेरी और

क्या होगा मेरा जब तुम नहीं रहोगे।

नेता (मुज़फ्फरनगर के दंगों के संदर्भ में )




सूअर है  

आदत जाती नहीं गंदगी फ़ैलाने की 

और जब गंदगी फ़ैल जाती है चारों ओर 

और सारा वातावरण भर जाता है सडांध  से 

तो गिरगिट की तरह रंग बदलकर 

बन जाता है कुत्ता 

और अपनी पूँछ से साफ करने कोशिश करता है उस गंदगी को 

जो उसने फैलाई थी 

हिलाता है दुम 

दिखाता है स्वामीभक्ति 

मानो वो ही है उनका रक्षक 

ताकि सौंप दी जाये उसे सत्ता 

साँप की तरह कुंडली मारकर करेगा उसकी रक्षा।


Sunday 1 September 2013

साइना दा जवाब नी

         
         इंडियन बैडमिंटन लीग का पहला संस्करण हैदराबाद हॉटशॉट्स ने अवध वारियर्स को आसानी से ३ -१ सेहराकर जीत लिया। मोटे तौर पर देखा जाए तो ये पहला संस्करण काफ़ी हद सफल रहा। इस पूरी प्रतियोगिताके दौरान बड़ी संख्या में दर्शक मैच देखने आए और वो भी टिकट खरीद कर। भारत  में ऐसा सामान्यतयाकेवल क्रिकेट में ही होता है. अच्छा खेल देखने को मिला और कुछ बड़े अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़िओं को खेलते देखने  का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। लेकिन इतने भर से ही ये मान लेना कि इससे भारतीय बैडमिंटन में कोई बड़ा बदलाव आने वाला है, ये कहना अभी जल्दबाजी ही होगी। क्रिकेट में आईपीएल की सफलता के बाद
पहले हॉकी में और अब बैडमिंटन में लीग की शुरुआत हुई है। ये लीग खेलों को बहुत फ़ायदा पहुचाएंगे इसबारे में आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। जिस लीग की तर्ज़ पर ये लीग शुरू की गयी हैं खुद उस आइपीएल ने क्रिकेट का कितना भला किया है, ये सभी जानते हैं। हाँ ये सफल जरूर रही है, पर उससे ज्यादा उसके साथ विवाद जुड़े हैं। इसके छठे संस्करण ने तो क्रिकेट की  विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया था। मुझे कोई भी एक बड़ा नाम याद नहीं आता जो आइपीएल ने भारतीय क्रिकेट को दिया हो। दूसरी बात ये कि ये लीग मुख्यतया इनके मालिकों और प्रायोजकों के लाभ अर्जन के लिए आयोजित-प्रायोजित की जाती हैं  और इस प्रक्रिया में खेलों का फायदा हो जाए तो उनके लिए सोने पे सुहागा। इंडियन बैडमिंटन लीग में महिला डबल्स को केवल इसलिए ड्राप कर दिया कि इससे टीम मालिकों को नुकसान हो रहा था। फलतः अश्विनी और ज्वाला गुट्टा जैसी शीर्ष खिलाड़ियो को आधा दाम मिला। इस एक उदाहरण से ये जाना जा सकता है कि प्राथमिकता क्या है। तीसरे इसमें मनोरंजन का तत्त्व प्रमुख होता है। न तो खिलाड़ी और न ही खेल आयोजक खेल के स्तर के प्रति बहुत गंभीर होते हैं। इस तरह की प्रतियोगिताओं में खिलाड़िओं में खेल के प्रति वो गंभीरता ,लगन ,प्रतिबद्धता नहीं आ सकती जैसी कि देश के लिए खेलते हुए आती है और जब खेल उचांई को नहीं छुएगा तो खेल का स्तर कैसे ऊँचा होगा।
                खैर मैं बात बैडमिंटन लीग की नहीं बल्कि साइना नेहवाल की करना चाहता हूँ। साइना ने इस पूरी प्रतियोगिता के दौरान शानदार खेल का प्रदर्शन किया और वे एकमात्र ऐसी खिलाडी रही जिन्होंने एक भी मैच नहीं हारा। ये बात इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण है कि लीग शुरू होने से पहले साईना को चुका हुआ करार कर दिया गया था और पी वी सिन्धु को हाईलाइट किया जा रहा था। इस लीग में साईना और सिन्धु के बीच होने वाले मुक़ाबले को मीडिया ने जबरदस्त हाइप दिया था। ये बात विश्व बैडमिंटन प्रतियोगिता के बाद तब शुरू हुई जब फेवरिट साइना सेमीफ़ाइनल में नहीं पँहुच सकी और सिंधु ने सेमीफाईनल में प्रवेश कर किसी भी भारतीय महिला खिलाडी द्वारा इस प्रतियोगिता का पहला पदक जीता। इस पूरी प्रतियोगिता में सिन्धु ने शानदार खेल दिखाया और  ऊँची रैंक की दो-दो चीनी खिलाड़िओं  को हराया। लेकिन किसी एक प्रतियोगिता या मैच के आधार पर किसी खिलाडी या टीम को सफल घोषित कर देना या खारिज़ कर देना ठीक नहीं। ये बात सही है कि प्रशंसक अपनी फेवरिट खिलाडी या टीम को हमेशा जीतते हुए देखना चाहते हैं और हारने  पर निराश होकर आलोचना करते हैं लेकिन मीडिया से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती। अक्सर ऐसा होता है कि एक सफलता या असफलता से उसको सफल करार दिया जाता है या उसे खारिज कर दिया जाता है, जबकि कोई भी टीम या खिलाडी लगातार मैच नहीं जीत सकता। साइना के साथ भी ऐसा ही हुआ।
              इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि साइना महान  ख़िलाड़ी हैं। उन्होंने भारतीय बैडमिंटन को नई ऊंचाई दी है। वे विश्व रैंकिंग में दूसरे नंबर तक  पँहुच चुकी है और अभी भी नंबर तीन पर काबिज़ है। विश्व की अनेक प्रतियोगिताएँ उन्होंने जीती हैं और ओलिंपिक खेलों में बैडमिंटन का  पदक जीतने वाली पहली भारतीय खिलाडी हैं । लेकिन ओलिंपिक के बाद वे कोई प्रतियोगिता नहीं जीत सकीं । उतार चढ़ाव हर खिलाडी के कैरियर में आते हैं और साईना का ओलिंपिक  के बाद का दौर उतार का दौर था। हो सकता है ओलिंपिक में पदक जीतने के बाद उनमें एक प्रकार का संतुष्टि का भाव आ गया हो। ये भारतीय खिलाड़ियों की हमेशा से कमी रही है। संतुष्टि भारतीय संस्कृति का प्रमुख तत्त्व है और शायद अपने इस जन्मजात संस्कार के कारण वो किलिंग स्पिरिट नहीं आ पाती जो विदेशी खिलाड़िओं में होती है। लेकिन विश्व प्रतियोगिता के बाद जिस तरह से उनको खारिज़ किया जाने लगा उससे शायद उनके अहं को चोट पंहुची हो और इसका जवाब उन्होंने कोर्ट में देने का निश्चय किया, ठीक वैसे ही जैसे कि तेंदुलकर अपनी हर आलोचना का जवाब अपने बल्ले से मैदान में देते हैं। सिन्धु के साथ पहले मैच में शुरुआत में वे थोडा लडखडाई जरूर लेकिन एक बार जब उन्होंने अपनी लय पाई तो फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस प्रतियोगिता में सिन्धु को  दो बार हरा कर और लगातार मैच जीत कर उन्होंने ये दिखाया कि उनमे अभी भी बहुत खेल बाकी है।
          यहाँ मैं सिन्धु को खारिज नहीं कर रहा हूँ। वे संभावाना जगाने वाली भविष्य की खिलाड़ी हैं  जिनसे भारत साइना से आगे बढ़कर उम्मीद कर सकता है। पर उनकी सफलता को साइना के साथ प्रतिद्वन्दिता के तौर पर नहीं बल्कि साथी के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाना चाहिए। प्रतिद्वन्दिता और वो भी अपनी टीम के साथी के साथ ,एक तरह का नकारात्मक भाव उत्पन्न करती है। यदि इन दोनों के बीच  प्रतिद्वन्दिता बढ़ती गयी तो दोनों का ध्यान एक दूसरे को हराने पर ही केन्द्रित होगा और एक बड़ा लक्ष्य भारतीय बैडमिंटन को अन्तराष्ट्रीय स्तर पर नई  ऊंचाईयों पर ले जाने का-पीछे रह जायेगा। साइना ने चाइना की दीवार को भेदने में कुछ हद तक सफलता पाई है,लेकिन चाइना की ये दीवार इतनी लम्बी है कि बिना साथियों के पूरी तरह से भेद पाना कठिन है। ये काम साईना और सिंधु सहयोगी के तौर पर आसानी से कर सकती हैं, प्रतिद्वंदी के तौर पर नहीं। हमें उम्मीद रखनी चाहिए ये दोनों मिलकर भारत के खाते में बहुत सारी उपलब्धियाँ दर्ज़ कराएंगी।  

Saturday 17 August 2013

उम्मीद

सोना जरूर सोना

लेकिन इसलिए नहीं कि उम्मीद नहीं 

कोई जगाने  आएगा

सोना इसलिए भी नहीं कि कोई आँख तुम्हारे लिए आंसू नहीं बहाएगी

सोना इसलिए  

कि हर रात के बाद सवेरा होगा

शरद के बाद बसंत आएगा

रुदन के बाद हँसी  आएगी

दुःख के बाद सुख  आएगा

तूफ़ान के बाद शांति होगी

सोना जरूर सोना मेरे दोस्त

जरूर सोना

इस विश्वास के साथ सोना

कि  सवाल के बाद ही उत्तर आता

सोना मेरे दोस्त जरूर सोना। 

Friday 16 August 2013

माँ तेरा आँचल


         

बाबा की तरेरती आँखों से बचने का कवच तेरा आँचल

घर में आये जाने अनजाने चेहरों से मूँह छिपाने का ठिकाना तेरा आँचल 

 जेठ की तपती दुपहरी में हवा करता बसंती बयार सा तेरा आँचल

 दुःख की धूप में सुख की सी छाया देता तेरा आँचल

 दुनिया की सारी बुरी नज़रों से बचाता वज्र सा कठोर तेरा आँचल

 पर मखमल सा नरम नरम सा मुलायम सा तेरा आँचल

 और शरारतन खाने के बाद हाथ पोछने का गुदगुदाता खिलखिलाता सा

 तेरा आँचल

 माँ तुझे सलाम  

 कसम तेरी माँ , ऐसा कुछ भी नहीं जैसा तेरा आँचल
 !

ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...