ये वाकई एक बेहतरीन उपन्यास था जो आपको शुरू से अंत तक बांधे रखता है। कहानी बहुत ही हल्के फुल्के अंदाज़ में शुरू होती है। किशोर वय से अभी अभी जुदा दोस्तों की रूमानियत से जिसमें गालियों की भरमार है। लेकिन जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती जाती है रूमानियत धीरे धीरे गंभीरता में बदल जाती है और हल्का फुल्का अंदाज़ कब गंभीर प्रश्न बन आपके मस्तिष्क में हलचल मचाने लगते हैं,मथने लगते हैं,आपको इसका एहसास उपन्यास के ख़त्म होने पर होता है। लड़कपन की इन प्रेमकथाओं के कथानक के भीतर अनेक अंतर्कथाएँ बहती हैं -मध्यमवर्गीय परिवारों में लड़कियों की स्थिति की ,जातिवाद की ,साम्प्रदायिकता की और आतंकवाद तथा उस पर की जाती राजनीति की भी । और इन कथाओं तथा अन्तर्कथाओं को पकड़ने सहेजने में आपको कोई प्रयास नहीं करना होता क्योंकि विमल की केवल भाषा में ही लय नहीं है बल्कि विचारों में भी गजब की लयबद्धता है जिसमें आप अनायास ही बहे चले जाते हैं बिना किसी प्रयास के। विमल की अपने पात्रों पर गजब की पकड़ होती है और विवरण बहुत ही सूक्ष्म। आप जल्द ही उन पात्रों में डूब कर खुद को खोजने लगते हैं और अपने को महसूस करने लगते हैं। यही लेखक की सबसे बड़ी सफलता होती है। विमल ऐसा करने में सफल हैं। भले दिनों की बात पढ़ते हुए आप निश्चित ही अपनी युवावस्था को एक बार पुनः जी पाएँगे ऐसा मुझे लगता है। रिंकू, सुधीर, राजू, कमल में खुद को खोजेंगे और सविता ,अनु ,टयूबलाइट में अपनी फिएंसी को। विमल की बनारस पर लिखी एक बेहतरीन कविता है बार बार लौटता हूँ बनारस .... "इस पुरातन शहर की आत्मा में हुए छेदों को भरने की कोशिश करता करता हूँ / सड़क पर टहलता हूँ अकेला रात-रात भर /इसकी सांस अवरुद्ध होती है फेफड़ों में जमे धुंए की वजह से /मैं इसके सीने पर तेल और अजवाइन मिलाकर मलता हूँ … " दरअसल बनारस विमल में रचा बसा है,वे उसका दुःख दर्द समझते हैं,उसका इतिहास भूगोल जानते है और शिद्दत से जीते हैं। इसीलिये भले दिनों में पूरे बनारस को, उसके मोहल्लों को, उसकी गलियों को और उसमें रहने वालों की धडकनों को रचा बसा देते हैं जिन्हें आप उन्हें सुन सकते है,महसूस कर सकते हैं। इन भले दिनों में प्यार भी पूरी सरसता के साथ कथानक में गुँथा है। विमल प्यार के चित्र भी पूरी मार्मिकता और सरसता के साथ खींचतें हैं। यहां मैं उनकी एक और कविता का ज़िक्र करना चाहता हूँ। "आई लव यू सूपर्नखा" में जिस तरह इतिहास के सबसे घृणित और उपेक्षित पात्र को प्रेम का श्रेष्ठ प्रतीक बना देते हैं,इसे कोई प्रेम में आपादमस्तक डूबा व्यक्ति ही कर सकता है।तभी तो वे लिखते हैं ...तुम्हे प्रेम करना आता था सुपनखा उससे भी अधिक उसका इज़हार करना ....और जीने के लिए दिल धड़कना उतना ही ज़रूरी है /मैं अपने जीने की सूरत चुनता हूँ /तुमसे अपनी बात कहता हूँ /आई लव यू सुपनखा। " सविता में सुपनखा का ही विस्तार दीखता है। उपन्यास का
शुरुआती प्रेम है ".... कालोनी का हर लड़का कालोनी की हर लड़की को
कभी न कभी चाह चुका होता था। इसीलिए किसी भी लड़की की शादी
होती थी तो कालोनी के सभी जवान लड़को को सांप सूंघ जाता और
क्रिकेट के मैदान में तीन चार दिनों तक मरघट जैसा सन्नाटा छाया
रहता। कालोनी की एक लड़की शादी करके अपने ससुराल जाती थी और
किसी न किसी घर में एक “मुख्य दिल” और कई घरो में कई “सहायक
दिल” टूटा करते थे..." जो धीरे धीरे गहन और गंभीर होता जाता है और
वैसे ही खूबसूरत दृश्य उभरते जाते हैं। मसलन .... "सविता उसी तरह
देर तक खड़ी रही और थोड़ी देर बाद उसे लगने लगा था कि नदी के बहने
की जो आवाज़ बहुत दूर सुनाई दे रही थी,वह उसके भीतर समाती जा
रही है। थोड़ी देर में उसे वह समूची नदी अपने भीतर कलकल बहती हुई
सुनाई देने लगी। उसे लगा जैसे ये नदी उसके भीतर बरसों से थी,लेकिन
उसे उसका अंदाज़ा नहीं था और यह एक जगह पर रूकी हुई थी " और
इससे भी खूबसूरत ये ......." सविता के होंठ थोड़े से पीछे गए जैसे
सकुचा गए हों और फिर से वापस उन होंठों की तरफ ऐसे आए जैसे
नदियॉ महासागर की तरफ आती हैं। दो जोड़ी होंठ एक दूसरे से जुड़ गए
और पार्क किसी की भी उपस्थिति से खाली हो गया। आसमान एक
चादर बन गया और उन दोनों को ढकने के लिए नीचे उतर आया। "
ये उपन्यास उनके पसंदीदा शायर फ़राज़ को डेडिकेट है और हर
दृश्यांतर के बाद (शायद) फ़राज़ साहब के शेर आते हैं। मैंने ऐसा प्रयोग
पहले नहीं देखा(मैंने बहुत नहीं पढ़ा है ) . उपन्यास काफी लंबा होता है।
खास तरह की एकरसता आने की पूरी संभावना है यदि कहन कमजोर
हो तो। उस दृष्टि से ये टेकनीक अच्छी है क्योकि ये एकरसता तो तोड़ने
में सहायक है। लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं। ये अशआर बीच बीच में
आकर कहानी की लय को भंग भी करते हैं ,व्यवधान उत्पन्न करते हैं।
समर्थ रचनाकार को इसकी दरकार नहीं। एक और बात। गालियों की
आमद बेरोकटोक है। ये बात सौ फीसदी सही है कि जिस वातावरण की
निर्मिति वे करना चाहते थे वो इसके बिना संभव ही नहीं था। सिनेमा
में भी इसका खूब इस्तेमाल हो रहा है और लेखन में भी चलन बढ़ा है।
फिर भी कहूँगा कि हमारे कान और दिमाग तो इसके खूब अभ्यस्त हैं
क्योंकि ये हमारी बोलचाल का अभिन्न अंग बन गयी हैं। हम बचपन से
इन्हें सुनते आए हैं। बोलचाल के स्तर पर आपको पता नहीं लगता।
लेकिन आँखें अभी ऐसे शब्दों को देखने की वैसी अभ्यस्त नहीं हुई हैं
जैसे कि कान। इसलिए अधिक प्रयोग आँखों के रस्ते दिमाग को चुभता
हैं। जो भी हो ये आम पात्रों की साधारण कहानी का असाधारण उपन्यास
है। विमल आपको हार्दिक बधाई। और हाँ एक दायित्व आपके मत्थे भी।
भले दिनों की बात थी और ई इलाहाबाद है भइया की छपी सैकड़ों
प्रतियों में से दो इलाहाबाद के एक घर में आपके हस्ताक्षर के इंतज़ार में
आज भी हैं।