Monday 21 December 2015

विदा सहवाग ,खेल के मैदान से अलविदा।


गूगल से साभार

                      एक ऐसे समय में जब विद्वान श्री कालबुर्गी की ह्त्या और व्यक्ति के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर हमले के विरोध में तमाम बुद्धिजीवी सडकों पर उतरे हों और सांप्रदायिकता,असहिष्णुता और महंगाई के मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे हो, इन महत्वपूर्ण मुद्दों से हट कर किसी और विषय पर बात करना थोड़ा अश्लील हो सकता है।इस समय इन गंभीर मुद्दों पर बड़े बड़े विद्वान और प्रबुद्ध वर्ग आंदोलित है,लेकिन आम आदमी के लिए शायद महंगाई को छोड़कर बाकी मुद्दे उतने प्रासंगिक नहीं ही हो पाते हैं ।वो तो अपनी रोज़मर्रा की कठिनाईयों से दो चार होता रहता है और उनसे दो चार होता हुआ उनसे पार पाने की कोशिश में ही उसकी ज़िंदगी बीत जाती है और कई बार तो उनसे पलायन करने की जुगत में भी लगा रहता है।अपनी कठिनाइयों से पलायित करने के लिए आसान और सुलभ शरणगाह हैं सेक्स,शराब और सिनेमा।आप चाहे तो इस सूची में अब क्रिकेट को भी जोड़ सकता हैं । गंभीर मुद्दों के बीच आम आदमी के लिए ये चीजें भी उतनी ही महत्वपूर्ण बनी रहती हैं। यही ज़िंदगी है और ऐसे ही चलती रहती है। तो चलिए गंभीर मुद्दों से हट कर हम भी क्रिकेट की कुछ बात कर लेते हैं।
                        
                                       पिछली 20 अक्टूबर को विस्फोटक बल्लेबाज़ वीरेंदर सहवाग ने अंतर्राष्ट्रीय  क्रिकेट से संन्यास लेने की घोषणा कर के लोगों को थोड़ा सा चकित कर दिया, खासकर अपने समर्थकों को जो अब भी उनकी वापसी की उम्मीद लगाए बैठे थे। ये घोषणा उनकी अपनी बैटिंग की शैली जैसी थी,आश्चर्य में डालने वाली जिसके बारे में कोई भी सही सही कुछ भी नहीं कह सकता था। उनके जाने से जो खालीपन क्रिकेट में पसरा है उसे जल्द नहीं भरा जा सकेगा। वे एक शानदार खिलाड़ी ही नहीं बल्कि एक बड़े एंटरटेनर भी थे और इसी वजह से वे अपने साथ के अन्य खिलाड़ियों से अलग मुकाम पर खड़े दिखाई पड़ते हैं। जिस समय वे भारतीय क्रिकेट में अपना मुकाम बना रहे थे उस समय इंडिया टीम में सचिन,सौरव,द्रविड़ और लक्ष्मण 'फैबुलस फोर' का जलवा था और इनकी छाया से निकल कर उन्ही के समकक्ष जगह बनाना और टीम में उतना ही महत्वपूर्ण सदस्य वो ही बन सकता था जिसमें 'कुछ बात' हो और सहवाग में वो काबिलियत और सलाहियत थी। अपने दमदार खेल की बदौलत वे उन चारों के साथ टीम के लिए उनके जितने ही महत्वपूर्ण बने रहे। ये बात उन्हें  महान खिलाड़ियों में शामिल करने के लिए पर्याप्त है।जब वे राष्ट्रीय परिदृश्य  उभरे तो  वे मैदान में सचिन की छाया लगते थे, कद काठी में  ही नहीं बल्कि हाव भाव और खेलने  तरीके में भी। लेकिन ये सहवाग   में माद्दा था कि वे उससे बाहर आए  अलग पहचान बनाई।
           उनके खेल की सबसे बड़ी विशेषता ये थी कि वे बहुत ही आक्रामक बल्लेबाज़ थे। वे अपने आक्रामक खेल से बड़े से बड़े बॉलर को अदना  साबित देते थे। उनके ऑफ साइड के कट्स उनके सबसे शानदार शॉट्स थे। उनकी खेल शैली एक दिवसीय क्रिकेट के लिए ज़्यादा मुफ़ीद थी पर वे टेस्ट क्रिकेट में ज़्यादा सफल रहे। वे अपने समय के सबसे बड़े मैच विनर थे।उनके रिकॉर्ड बताते हैं कि वे कितने बड़े खिलाड़ी थे।सहवाग ने 104 टेस्ट मैचों में  49.34 की औसत और 82.23 की स्ट्राइक रेट से 8586 रन और 251 एक दिवसीय मैचों में 104.33 की स्ट्राइक रेट से 8273 रन बनाए।किसी भी भारतीय खिलाड़ी द्वारा टेस्ट मैच में गए तीन सबसे बड़े स्कोर सहवाग ने ही बनाए हैं-319,309 और 293 रन। क्रिकेट इतिहास में दो तिहरे शतक बनाने वाले डॉन ब्रैडमैन और ब्रायन लारा के बाद तीसरे खिलाड़ी थे। बाद में ये कारनामा क्रिस गेल  ने किया। एक दिवसीय मैचों में भी उन्होंने दोहरा शतक (219 )बनाया।
स्वभाव से सीधे सरल सहवाग बल्ले के हाथ में आते ही आक्रामक हो उठते थे। 'बॉल देखो और मारो उनके खेल का मूल मंत्र था।आक्रमण उनके खेल का स्वाभाविक भाव था। '2010 में दक्षिण अफ्रिका की टीम भारतीय दौरे पर थी और डेल स्टेन अपनी 150 किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड से आग उगल रहे थे। उस समय क्रिकेट इतिहासकार बोरिया मजूमदार ने जब सहवाग से पूछा आप स्टेन का सामना कैसे करेंगे तो सहवाग ने कहा "आप हो या स्टेन क्या फ़र्क़ पड़ता है। बॉलर का काम गेंद डालना और मेरा काम मारना। वो डालेगा मैं मारूंगा।" दरअसल उनका माइंड सेट ही ऐसा था। इनिंग की पहली गेंद पर भी सिक्स लगा सकते थे और 300 रन भी सिक्स लगा कर पूरे कर सकते थे। एक दिवसीय मैचों का भारतीय द्वारा सबसे तेज शतक(60 गेंद) उन्होंने ही लगाया है. टेस्ट मैचों में सबसे तेज तिहरा शतक और सबसे तेज 250 रन भी उन्होंने बनाए। 'बात 2004 की है चेन्नई टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया की टीम चौथे दिन का खेल समाप्त होने से कुछ ही समय पहले आल आउट हो गयी। भारत को तीन ओवर खेलने थे सहवाग और युवराज बैटिंग करने गए। ऐसी स्थिति में कोई भी बल्लेबाज़ खेलना पसंद नहीं करता  अगर खेलना भी पड़े तो किसी तरह विकेट बचाकर अगले दिन नए सिरे से अपनी पारी शुरू करना चाहेगा।लेकिन सहवाग ने इस दौरान तीन ज़बरदस्त चौके लगाए। शाम को जब आकाश चोपड़ा ने उनसे पूछा अब आप काफी रहत महसूस कर रहे होंगे तो आकाश की आशा के विपरीत सहवाग का जवाब था काश कुछ और देर खेल होता तो मुझे कुछ और स्कोर करने का मौक़ा मिलता।'
             अक्सर उनके आलोचक उनकी इस बात के लिए आलोचना करते है कि उनका फुटवर्क ठीक नही था। ये बात सही है। उनके खेलने की शैली पारम्परिक या शास्त्रीय नहीं थी बल्कि उनका हैंड-आई कोर्डिनेशन कमाल का था और रिफ्लेक्शन बहुत ही तेज। दरअसल उनकी जो खेल शैली थी वो वैसी ही हो सकती थी जैसी उनकी थी और वो उनकी अपनी पृष्ठभूमि से उपजी थी।
          1975 वो साल है जब हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी अपनी बुलंदियों पर था। उस साल भारत ने कुआलालम्पुर मलेशिया में संपन्न हॉकी विश्व कप जीता था। उसके बाद की कहानी हॉकी के ढलान की कहानी है। 1980 में  हॉकी में ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीता ज़रूर था लेकिन उस मास्को ओलम्पिक का पश्चिमी देशों ने बहिष्कार किया था और हॉकी खेलने वाले सभी प्रमुख देश वहां से नदारद थे। ये वो समय था जब क्रिकेट देश में लगातार लोकप्रिय हो रहा था। कहना गलत नहीं होगा काफी कुछ हॉकी की कीमत पर। और तब 1983 का साल आया। कपिल देव के नेतृत्व में भारत ने क्रिकेट का पहली बार क्रिकेट विश्व कप जीता। इसने भारत में क्रिकेट को लोकप्रिय बनाने में ट्रिगर का  काम किया। देखते ही देखते भारत में क्रिकेट बहुत ज्यादा लोकप्रिय हो गया। यही वो समय है जब क्रिकेट का चरित्र भी बदल रहा था। सामान्यतः क्रिकेट भद्र जनों  का खेल माना जाता था जिसे पहले अंग्रेज और राजा महाराजा और राज परिवार के लोग ही अधिक खेलते थे। खेलने के तौर तरीकों और अभिजात्य के कारण ही इसे जेंटलमैन गेम कहा जाता था/है । अस्सी के दशक तक कमोवेश इस खेल का चरित्र यही बना रहा और भद्र लोगों के बीच लोकप्रिय बना रहा। लेकिन हॉकी के पराभव और 1983 के क्रिकेट विश्व कप में भारत की जीत से इसकी लोकप्रियता बढ़ने से इसके चरित्र में भी परिवर्तन आने लगा था। अब ये खेल जन साधारण के बीच भी अपनी पैठ बनाने लगा। इस समय तक ये खेल मुख्यतः बड़े बड़े शहरों और क्लबों तक सीमित था। भारतीय टीम के ज़्यादातर खिलाड़ी दिल्ली,मुंबई,बंगलोर जैसे बड़े बड़े शहरों से होते थे। राष्ट्रीय प्रतियोगिता में मुंबई दिल्ली और कर्नाटक तीन टीमों का बोलबाला होता था। लेकिन 1983 की जीत ने सारा परिदृश्य बदल दिया। इस जीत ने क्रिकेट को बड़े बड़े शहरों से निकाल कर छोटे छोटे शहरों और कस्बों तक पहुंचा दिया। अब ये खेल बड़े बड़े क्लबों के मैदानों से निकल कर गली मोहल्लों तक पहुँच गया। जैसे जैसे लोगों की भागीदारी बढ़ रही थी वैसे वैसे इसका चरित्र बदल रहा था। भद्र जनों का खेल अब जनसाधारण के खेल में तब्दील हो रहा था। खेलने के तौर तरीके बदल रहे थे। मैदानों में पसरी नफासत  कुछ कुछ भदेसपन में बदल रही थी। खिलाड़ियों की भक्क सफ़ेद पोशाकों पर  मिटटी और घास के हरे दाग दिखाई देने लगे थे। अब क्षेत्ररक्षक गेंद को रोकने के लिए जी जान लगा देने लगे थे। अब पैर या हाथ की जगह पूरा शरीर इस्तेमाल करने में कोई गुरेज नहीं होता था। वे लम्बी लम्बी डाइव लगा कर भी गेंद रोकना चाहते थे। बल्लेबाज अब बेसिक्स पर उस तरह से ध्यान नहीं देने लगे थे। उनके लिए रन बनाना अधिक महत्वपूर्ण हो गया था। बैटिंग में शास्त्रीयता की जगह नैसर्गिकता ने ले ली। मैदान में पसरे एक तरह के अलसायेपन की जगह फुर्ती ने ले ली। अब मैदान में  अभिजात्य साधारणता में तब्दील हो रही था। पहले लोग शौकिया खेलते थे अब ये लोगों का लक्ष्य बन रहा था। और यही इसकी असाधारणता थी,असामान्यता थी। पांच दिनी क्रिकेट के मुक़ाबिल एकदिनी क्रिकेट की बढ़ती लोकप्रियता इसका परिणाम भी है और कारण भी।
भारतीय क्रिकेट में अभिजात्य खेल के जनसाधारण के खेल में परिवर्तन के दो बिंदु स्पष्ट दिखाई देते हैं। ये दो बिंदु हैं भारतीय क्रिकेट के दो महानायक सुनील गावस्कर और कपिल देव। गावस्कर अपनी पृष्ठभूमि,अपने व्यक्तित्व,अपने खेल की शैली तीनों में क्रिकेट के अभिजात्य स्वरुप का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे मुंबई से थे,अंग्रेजीदां थे,उनकी बैटिंग शास्त्रीय शैली का उत्कृष्ट नमूना थी,मैदान में उनके खेल चाल ढाल,व्यवहार सबमें एक खास किस्म की नफासत और अभिजात्य आप साफ़ साफ़ लक्षित कर सकते हैं। जिस समय गावस्कर ढलान पर थे उस समय क्रिकेट का नया सितारा उभार पर था और एक नया महानायक बन रहा था। ये कपिल देव थे।वे क्रिकेट  के उस नए स्वरुप का प्रतिनिधित्व कर रहे जो क्रिकेट को जनसाधारण की भागीदारी ने दिया था। वे हरयाणा से थे। ठेठ गँवई अंदाज़ था। ये अंदाज़ उनकी खेलने की शैली में भी परिलक्षित होता है।मदनलाल,मोहिन्दर अमरनाथ,एकनाथ सोलकर,रोज़र बिन्नी की नफासत भरी माध्यम तेज गति की गेंदबाज़ी के मुक़ाबिल कपिल देव तूफानी गेंदबाज़ी पर ध्यान दें तो गावस्कर और कपिल देव  दोनों के खेलने की शैली में अंतर साफ़ साफ़ परिलक्षित होगा।भारतीय क्रिकेट की कमान गावस्कर से कपिल देव के हाथ में आयी। इसे आप एक रूपक के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। भारतीय क्रिकेट के ये दो महानायक इलीट क्रिकेट से पॉपुलर क्रिकेट तक के सफर के दो प्रतीक माने जा सकते हैं और इन दो खिलाडियों की दो पारियां - गावस्कर की 1975 के वर्ल्ड कप  के इंग्लैंड के विरुद्ध पहले मैच की  60  ओवरों में नॉट आउट 36 रनों की पारी  (172 बॉल ) और 1983 वर्ल्ड कप में कपिलदेव की ज़िंबाबवे के विरुद्ध लाजवाब धुआंधार 175 रनों की पारी और फाइनल मैच में 30-35 गज़ पीछे भागकर लिया गया वो ऐतिहासिक कैच भारतीय क्रिकेट के इस सफर के दो प्रस्थान बिंदु।
    सहवाग का जन्म 1978  में होता है। 1983 में भारत क्रिकेट विश्व कप जीतता है। उस समय सहवाग के हाथ में पहली बार बल्ला आता है। जब उनकी क्रिकेट की उनकी शिक्षा दीक्षा हो रही थी उस समय क्रिकेट का चरित्र जनसाधारण के खेल के रूप में बदल रहा था। जिसमें  शास्त्रीयता से अधिक संघर्ष का स्थान था और महत्त्व भी। सहवाग में वही आया। फिर जिस वर्ग से वे आते थे उससे इसी तरह के सहवाग का जन्म हो सकता था। उस वर्ग के आगे बढ़ने के लिए अभिजात्य तौर तरीके और नियम काम नहीं आते,उन्हें अपनी योग्यता और क्षमता के भरोसे आगे बढ़ना होता है। वे बाहरी दिल्ली की निम्नमध्यम वर्गीय बस्ती नज़फगढ़ के एक निम्नमध्यम वर्गीय संयुक्त परिवार से आते हैं जहां वे अपने 16 कज़िन्स के साथ रहते थे। क्रिकेट का ककहरा उन्होंने नज़फगढ़ की उन सँकरी  गलियों में ही सीखा जहाँ वे आड़ा बल्ला भी नहीं चला सकते थे। जिस समय और परिस्थितियों में सहवाग क्रिकेट सीख रहे थे उससे किसी 'क्लासिक सहवाग' का जन्म नहीं हो सकता था,बल्कि वही सहवाग बन सकता था जैसे सहवाग आज हैं।दरअसल सहवाग इलीट क्लास के बल्लेबाज़ नहीं थे वे मास  के बल्लेबाज़ थे।   
       दरअसल जो भी क्रिकेट जानकार उनका मूल्यांकन परम्परागत रूप से करते है वो शायद गलती करते हैं। जिस तरह से नई कविता का मूल्यांकन आलोचना के शास्त्रीय सिद्धांतों के आधार पर नहीं किया जा सकता था उसके लिए नए प्रतिमान गढ़ने पड़े।उसी तरह सहवाग का  और उनके जैसे तमाम खिलाड़ियों का आकलन किताबी शॉट्स के आधार पर नहीं किया जा सकता। उनके खेल में अगर आप रागों की बंदिशें ढूढेंगे तो निश्चय ही निराशा हाथ लगेगी। उनके खेल में आपको शास्त्रीयता का ठहराव,निबद्धता और गंभीरता मिलेगी ही नहीं। उनके खेल में आपको मिलेगा तो लोक संगीत का नैसर्गिक सौंदर्य मिलेगा, उसका ओज,उसकी सहजता और सरलता,उसका आवेग,उसकी मस्ती मिलेगी,उसका निर्द्वंद बहाव,लय और गति मिलेगी,उसका उत्साह और उल्लास मिलेगा ।
  जिस समय सचिन ने संन्यास लिया तो ऐसा लगा था 'कि सचिन मैदान में नहीं होंगे तो उनके चाहने वालों के लिए क्रिकेट वैसा नहीं रहेगा जैसा उनके खेलने से हुआ करता था। लेकिन मैं शायद गलत था। उनके बाद भी सहवाग मैदान में थे वे क्रिकेट खेल रहे थे और क्रिकेट वैसा ही था,कुछ मायने में उससे भी शानदार,उससे अलग। हाँ अब सहवाग नहीं हैं।  क्रिकेट अब भी वैसे ही चलता रहेगा। भारत जीतता और हारता रहेगा। किसी के खेलने या ना खेलने से क्या फ़र्क़ पड़ता  है। फ़र्क़ पडेगा तो सिर्फ  सहवाग के उन चाहने वालों पर जिनके लिए क्रिकेट सहवाग का पर्याय होती थी। उनके लिए क्रिकेट वो क्रिकेट नहीं होगी जो उनके  खेलने पर होती थी। अब उनके लिए वे एक याद बन कर रहेंगे उनकी स्मृतियों में, उनके ज़ेहन में, उनके ख्वाबों में, उनके सपनों में।मेरे जैसे न  जाने कितने लोग उनके खेल के प्यार में थे, हैं और रहेंगे। अगर चन्दन पाण्डेय के शब्द उधार लेकर कहूँ तो  'तुम्हारे खेल के प्यार में तो स्वयं समय भी पड़ गया था ,फिर मेरी क्या बिसात। '
                       विदा सहवाग ,खेल के मैदान से अलविदा।
गूगल से साभार




Thursday 29 October 2015

तासीर




एक लड़की का सपना नदी सा होता है
बहना चाहती है नदी सी
इतराती इठलाती सी
बेरोक टोक दुर्गम घाटियों से लेकर समतल मैदानों तक
बिखेरती चलती है हरा रंग अपने आस पास
और सोखती जाती है काला रंग                                      

वही सपना जब एक ग़रीब की आँखों में जन्मता है 
तो आग सा होता है
और उस आग से 
ज़िंदगी के चारों ओर फैले घने कोहरे को 
उड़ा देना चाहता है भाप की तरह  
जला देना चाहता है सारे जुल्म ओ सितम 


एक अमीर का सपना होता है
दूध दूह लेने वाली मशीन सा
जिसमें न ममत्व का स्पर्श 
न भावनाएं न दिल न जिगर
वो आदमी की जिंदगी को केवल दूहना और दूहना चाहता है

दरअस्ल सपने
बिलकुल पानी जैसे होते हैं
जिनकी अपनी कोई शक्ल सूरत या आकार नहीं होता
बस जिस आँख में जन्म लेते हैं
उसकी तासीर से हो जाते हैं।
(गूगल से साभार)

इस पतझड़



1.
इस पतझड़
तेरी याद
झर रही हैं
सूखते पत्तों की तरह
बस एक चिंगारी काफ़ी है
तेरे दीदार की
शोला भड़काने को।

2.
इस पतझड़
तेरी याद से
कुरेदे हुए कुछ ज़ख्म
सूख रहे हैं
और कुछ ख्म हरे हो रहे हैं
तेरी बिसरी यादों से। 

Saturday 3 October 2015

प्रेम


प्रेम 
मन में समाया 
ठहरा 
और चला गया। 

नहीं बचा कुछ भी 

कोई याद 
कोई सपना  
कोई उम्मीद 
कोई बिछोह 
कोई दुःख 
कोई अवसाद 
कोई राग द्वेष 
कुछ भी तो नहीं।

फिर इक दिन पता चला 

इक टुकड़ा प्रेम बचा रह गया 
मन में किसी फाँस की तरह 
इक बूँद प्रेम बचा रह गया
घास पर ओस की तरह
इक पल प्रेम बचा रह गया
कहीं ठहरे हुए समय की तरह।  
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Friday 25 September 2015

तुम्हारी आँखेँ



मैं जानता हूँ 
तुम्हारी ये छोटी छोटी गोल सी आँखे 
ना तो नीली झील सी गहरी  हैं 
कि इनमें डूब जाऊं मैं 
ना ही ये चंचल चितवन मृग नयन जैसी है 
जिनसे प्यार में डूब सकूँ मैं 
कमल दल जैसी भी नहीं हैं 
कि पूजा कर सकूँ मैं 
फिर भी बहुत खूबसूरत हैं तुम्हारी आँखें 
उतर आता है खूं  उनमें आज भी 
हर बेजा बात पर 
बचा हैं इनमें पानी 
नहीं मरा है अभी तक 
इन आँखों का पानी। 
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Thursday 17 September 2015

ख़्वाहिशें


 हर सुबह 
 जो ख़्वाहिश उग आती है 
 चमकते सूरज की तरह

 शाम ढले
 मद्धम हो बदल जाती है 
 चाँद में 

 और हर रात धीरे धीरे मरते हुए 
 बन के सितारा  
 जड़ जाती है 
आकाश में 

 बस रोज़ यूँ ही बढ़ता जाता है 
 सितारों का ये जमघट 
 रफ्ता रफ्ता 
 तमाम होती  
 ज़िंदगी के साथ में।
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Wednesday 16 September 2015

कोई और घर ढूँढ़ते हैं



परजीवी
कुछ कीटाणु
कुछ विषाणु
कुछ वनस्पतियां
और एक खास प्रकार की आदमी की प्रजाति ही नहीं होते
सबसे बड़े परजीवी होते हैं हमारे दुःख


दुःख जब एक बार किसी से कर लेता है परिचय जाने अनजाने 
नहीं भूलता जल्द उस को 
पहले कभी कभी मिलना होता है दुःख का उस व्यक्ति से 
धीरे धीरे गाढ़ा होने लगता है परिचय 
फिर उसके अंदर ही बना लेता है पैठ 
तब मज़े से भीतर ही भीतर जीवन रस पीकर
दुःख अपने अंदर से ही पैदा कर देता है कुछ और दुखों  
कमी पड़ती है तो कुछ और दुखों को कर लेता है बहार से आमंत्रित 
सिलसिला तब तक अनवरत चलता रहता है 
जब तक वो व्यक्ति नहीं हो जाता मिट्टी 

तब दुःख बतियाते हैं 
उफ्फ ! कितना बेवफा निकला 
हमने जिसका अंत तक साथ नहीं छोड़ा 
उसने हमारी वफ़ा का ये सिला दिया 
चलो छोड़ो इसे 
कोई और ठिकाना ढूँढ़ते हैं 
और उसके आँगन में अपनी महफ़िल सजाते हैं। 

जो ना हो सका



प्रेम 
आदमी के भीतर 

आग सा सुलगा
बादल सा बरसा

फूल सा खिला 
कांटे सा चुभा 

पवन सा चला 
नदी सा बहा

अमृत सा हुआ
विष सा बुझा

बचपन सा मुस्काया 
बुढ़ापे सा रोया 

समंदर सा गहराया
आसमान सा फैला

पक्षी सा उड़ा 
पतंग सा कटा 

विश्वास सा जमा
विश्वासघात सा फटा

सब हुआ किया
फिर भी क्या आदमी सा जिया।
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Friday 28 August 2015

बेशतर के खिलाफ विद्वेष का उदघोष



कुछ  दिन पहले
अपने से बहुत बहुत बेशतर एक कामरेड को
अपने से कमतरों पर अहंकार भरा उपहास  करते देखा था
तब  पहली बार किसी  बेशतर पर
गुस्सा नहीं बहुत बहुत दया आई थी

आखिर क्यों भूल जाते हैं बेशतर 
अपनी बेशी के दम्भ में 
कि हर का वज़ूद है किसी के होने से 
कमतर हैं तो हैं बेशतर


जैसे 
अंधेरे के होने से है रोशनी की हनक 
दुःख ही गढ़ते हैं सुख की परिभाषा 
बुराई तय करती है अच्छाई की सीमा 
गरीबी भोग कर ही समझ में आती है अमीरी 


वे  नहीं जानते  
जिस दिन ख़त्म हो जाएंगे सारे कमतर
उस दिन बहुत से बेशतर भी आ जाएंगे सीमान्त पर
और जब शिनाख़्त होगी बचे बेशतरों में कुछ कमतरों की
और सीमान्त से उनको धकेल दिया जाएगा बाहर 
तब समझ में आएगा एक बेशतर को
क्या होता है किसी बेशतर के लिए दया का उपजना । 

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एक कमतर का प्रलाप (प्रलाप शब्द शिरीष जी से उधार  )

Tuesday 25 August 2015

यादें





यादें 
मन के किसी कोने में 
इकठ्ठा होती रहती हैं 
किसी ख़ज़ाने की तरह 
छन से बाहर आती हैं 
किसी कठिन समय में 
और फ़ैल जाती हैं 
मन के आकाश पर 
बचाती है आदमी को स्खलित होने से उस समय में। 

जैसे दुःख से गीले मन में 

कोई याद छन से आती है 
चटक धूप की तरह 
और सोख लेती है सारी आर्द्रता 

जैसे किसी उदास लम्हे में 

इक याद आती है 
फूलों की खुशबू लिए ताज़ा हवा के झोकों की तरह 
और बहा ले जाती है सारी उदासी  

जैसे ज़िंदगी के किसी बदरंग मोड़ पर 

छन से उड़ आती है कोई याद 
सतरंगी इन्द्रधनुष की तरह  
और रंगों से भर देती है दुनिया 

जैसे जेठ माह से गुज़रते जीवन समय में
किसी मीठे सपने की याद
सावन भादों जैसे मेघ बरसकर 
कम कर जाती है ताप  

जैसे कनपटी पर या होठों और गालों पर 
उम्र की सफ़ेद लकीरों के उभरने पर  
छन से पहले क्रश की मीठी सी याद आती है 
किसी खिज़ाब की तरह 
और कर जाती है 
नामुराद सफ़ेद लकीरों को काला 

जैसे चेहरे पर 

पकी उम्र की झुर्रियों के उग आने पर 
छन से पहले प्यार की याद 
छा जाती है चेहरे पर नूर की तरह 
और मिटा देती है सिलवटों का नामोनिशां 

दरअसल यादें भी 
बहन की गुल्लक 
मां के चुटपुटिया बटुए 
और दादी मां की ट्रंक में सहेज कर रखी पोटली की तरह 
गाढ़े समय में  
सबसे विश्वसनीय धरोहर होती हैं। 



Sunday 23 August 2015

जीवन




ना जाने 
ये कब 
और कैसे हो गया 
मुठ्ठी में करते करते आसमां  
आसमां सा जीवन
मुठ्ठी सा अदना हो गया 

करते करते मुठ्ठी में जहाँ 

ये जीवन 
खाली मुठ्ठी सा 
रीत गया।



Thursday 20 August 2015

इस बरसात





1.
इस बरसात  
तेरी याद में 
कैसा सील गया है मन
घर में रखे सामां की तरह 
बस इक ख्वाइश है 
तेरे दीदार की धूप की। 



2.

इस बरसात 
कम बरसे बादल 
पर तेरी याद में 
खूब बरसे नैना 
बस इतनी सी इल्तिज़ा है मेरी 
तू भी तो एक बार भीग 
यादों की बारिश में।



3.
इस बरसात 
तेरी याद में 
धुआँ धुआँ हुआ सीला मन 
और धीमे धीमे सुलगा 
भीगा तन। 

Friday 14 August 2015

गाओ सपने ...


        











छोड़ दो खुला 
हमारे हिस्से का आसमान 
हम आ रहे हैं 
गाने को  
अंधेरों का शोकगीत 
और करने मुनादी 
कि उन्हें पहुंचा दिया है उनके अंज़ाम तक 

नहीं डरेंगे अब 
कि दुखों के पेड़ से उतर कर बेताल 
आ बैठेगा फिर फिर हमारे कंधों पर 
अब हम 
ओढ़ कर धूप 
खेलेंगे ख़ुशी 
गाएंगे सपने 
और आसमान पर लिख देंगे नाम 
ज़िंदगी ...ज़िंदगी ज़िंदगी   

Tuesday 4 August 2015

देह के पार जो दुनिया है




1.
एक अपारदर्शी समय में
जब  सबने अपने को छुपा रखा है कई कई तहों  के भीतर
तुम इतनी पारदर्शी हो
लगता ही नहीं कि तुम देह हो
देह के पार तुमने बसा रखी है एक दुनिया
जो तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी है
दिखाई देती है साफ़ साफ़।

2.

तुम्हारी देह पर सजे हैं जो भी आधे सच और आधे झूठ
उसका पूरा सच और झूठ दिखाई देता है उस पार
तुम्हारे कहे गए हाँ
जो भीतर ना थीं
और तुम्हारी ना
जो भीतर हाँ थे
सब लटके पड़े हैं तुम्हारी देह के उस पार
उल्टे चमगादड़ों की तरह
जो बाहर निकलने का रस्ता ढूंढने की कोशिश में
ध्वनि तरंगे की तरह
लौट लौट आते हैं बार बार
देह से टकरा कर
फिर फिर लटक जाते हैं उल्टे
उसी अंधेरी खोह में
जहां लटकते  आएं हैं सदियों से।

3.

ये जो तुम्हारी देह पर
उदास मुस्कान और बिखरी सी ख़ुशी टंगी हैं
ये भी आधा सच है
पूरा सच उस पार है
जहाँ दुखों का एक पूरा आकाश पसरा पड़ा है
भटकती आत्माओं की तरह दबे कुचले सपने हैं
अतृप्त इच्छाओं के उमड़ते घुमड़ते बादल हैं
 असहमतियों का लहराता अशांत समंदर है
और बग़ावत का ज्वालामुखी बस फटने को है
 देह ने बलात् रोक रखा है आने वाली उस प्रलय को
 जिससे बननी है एक नई सृष्टि

4.

आखिर कब तक देह का बाँध रहेगा
कब तक
तुम्हारा ये बेबस उधार सा
अपना जीवन
जीवन का अपना नहीं बनेगा।


Thursday 2 July 2015

शीर्षक



सबसे पहले आते हैं अक्षर 
अक्षर गढ़ते हैं शब्द 
शब्द से बनते है वाक्य 
वाक्य बनाते हैं पृष्ठ 
पृष्ठों से बनते हैं अध्याय 
अध्याय मिलकर लेते हैं आकार पुस्तक का 
अचानक आता है एक शीर्षक 
किसी सामंत की तरह 
मिट जाती है सबकी पहचान 
सब जाने जाते हैं उस शीर्षक से। 


Tuesday 30 June 2015

स्लम है कि कूड़ी

            

        जब कभी भी आप रेल से सफर कर रहे होते  और रात में किसी बड़े शहर में रेल प्रवेश कर रही होती है तो खिड़की से बाहर का नज़ारा देखना मन को कितना भाता है। पूरा शहर दूधिया रोशनी में नहाया हुआ। दूर तक जाती बल्बों की लम्बी कतारें और ऊंची ऊंची इमारतों के भीतर से आता प्रकाश पूरे शहर को आवृत कर रहा होता है। कही कहीं दिखाई पड़ता अंधकार अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्षरत सा प्रतीत होता है। पर उसमें सफल होता नहीं दिख पड़ता। लगता है छुपने के लिए कोने तलाश रहा है। रोशनी से नहाए शहर को देख कर आप किसी और जहाँ में पहुँच जाते हैं.... किसी तिलिस्मी दुनिया में विचरण करने लगते हैं आप…आप खुद इतना हल्के पाते हैं कि आसमान में उड़ता सा महसूस करने लगते हैं....सब कुछ स्वप्न सरीखा सा लगने लगता है.…एक अलग दुनिया में खो जाते हैं आप.…आपके सपनों की दुनिया…चाहतों की दुनिया…इच्छाओं की… अरमानों की दुनिया। पर अचानक किसी सिग्नल पर हलके से झटके से रेल रूक जाती हैं। उस हलके से झटके से आपकी सपनों की दुनिया भी बिखर बिखर जाती है। आप घबराकर सामने से नज़र हटाकर रेल के आस पास निगाहें फैलाते हैं  तो पटरियों के किनारे शहर के दूर छोर से छनकर आते मद्धिम से प्रकाश में सैकड़ों की तादात में दबड़े नुमा छोटी छोटी झोपड़पट्टी नज़र आने लगती हैं। 
            अचानक आप दूसरी फंतासी का शिकार हो जाते हैं। एक नए तिलिस्म में पहुँच जाते हैं । यहां सिर्फ अन्धेरा ही अन्धेरा नज़र आता है। दरअसल मुख्य शहर में रोशनी से पराजित अन्धेरा यहीं तो शरण पाता है। हताश,पराजित अन्धेरा यहाँ मानो अपनी ताकत फिर से संजोता है.…पुनः प्रकाश को चुनौती देने के लिए उठ खड़ा होता है। उसे लगता है जैसे ये उसका अपना ही तो घर है। हताश,निराश,गरीब,जीवन की जद्दोजहद में लगे लोगों के बीच उसे कितना अपनापन लगता होगा। सच में अन्धेरा गज़ब की ताक़त पा लेता है यहां। तभी तो यहाँ रोशनी आने में भी घबराती है। भूले भटके छन छनाकर कर थोड़ी बहुत कहीं से आ भी गयी तो वो अँधेरे से कहाँ पार पा पाती है। यहाँ तो वो खुद भी मरी मरी सी.…  बीमार सी नज़र आने लगती है।
                   और तब समझ आता है अरे ये तो हाशिया है.…और ये लोग ज़िंदगी के विशाल पृष्ठ पर खिंचे हाशिये में पड़े लोग हैं। ये तो सिर्फ जनसंख्या का अंक बताते हाशिये के उन नंबरों की तरह हैं जो सवालों और जवाबों की संख्या बताते हैं। अन्यथा रोशनाई और उससे लिखे अक्षर तो मुख्य पृष्ठ पर हैं। असली पहचान और महत्व तो उन्ही का है। ये.… ये.…  तो बस यूँ ही … बेसबब....अकारण.... कीड़े मकोड़ों की तरह..... डाल से टूटे पत्तों की तरह.…अपनी ज़मीन से कटे.…ना ना कटे नहीं बिछड़े……प्रवासी....विस्थापित। फिर तिलिस्म की एक और खोह में धँसे चले जाते हैं। लगने लगता है कि शायद ये स्लम्स तो राहु केतु की तरह हैं.…वैसे ही महत्वहीन....सौरमण्डल की परिधि से बाहर। सूर्य की ऊर्जा कुछ खास ग्रहों तक सीमित…प्रेम का ग्रह शुक्र,बुद्धि का बृहस्पति,जीवन का पृथ्वी,क्रोध यानी बल का मंगल,धन का बुध,तो न्याय का शनि.…महत्व के तो ये ग्रह हैं.....तो सूर्य का प्रकाश उसका तेज उसकी शक्ति भी तो इन्हीं को मिलेगी.... राहु केतु का क्या ये तो शत्रु ग्रह हैं,बेकार के ग्रह हैं.… इनकी क्या ज़रुरत है…ये तो बहिष्कृत हैं.… इन्हें क्योंकर कुछ मिलना चाहिए.... ये तो सौरमंडल के स्लम हुए ना। या यूँ कहें कि इन्हीं की तरह तो हैं स्लम…उपेक्षित,अनपेक्षित,अवांछित। 
                         आप तिलिस्म में और गहरे उतरते जाते है। एक नई दुनिया में। गाँव की दुनिया दृश्यमान होने लगती है। तभी अपनी बस यात्राओं की याद आ जाती है। वे यात्राएं जो अक्सर शहर से ग़ाँव और गाँव से शहर जाने के लिए की जाती हैं। जैसे ही आपको सड़क के किनारे दोनों और कूड़ियाँ पड़ी दिखाई दें,आप समझ जाएं  कि कोई गांव अाने वाला है,ठीक वैसे ही जैसे शहर जाते समय जब सड़क के दोनों ओर झोंपड़पट्टी दिखाई देने लगे तो आप समझ लेते हैं कि कोई शहर आने वाला है। मैंने तो यही पहचान बना रखी है बचपन से। कूड़ियां.... मतलब गाँव के घरों से निकला ढोरों डंगरों का मल मूत्र  अरे गोबर वगैहरा और घर घेर में सकेर सुकूर कर इकठ्ठा किया गया कूड़ा जहां एकत्र किया जाता है वही तो होती कूड़ी। सड़क बनाने के लिए दोनों किनारों से जब मिट्टी उठा कर सड़क पर डाल दी जाती है तो सड़क के दोनों ओर जो गड्ढे बन जाते हैं उनमें बेचारे किसान अपनी कूड़ी बना लेते हैं। इससे कम्पोस्ट खाद बनती है। भई मुझे तो स्लम और कूड़ी में साम्य ही साम्य नज़र आता है।जैसी कूड़ी वैसा स्लम। अब आप देखिए ना दोनों बाहर हाशिए पर..... एक गाँव के बाहर तो दूसरा शहर के। कूड़ी में क्या होता है घर गाँव का अपशिष्ट और कूड़ा जो उन्हें साफ़ सुथरा बनाने में निकलता है। और स्लम बनता है आदमियों से ऐसे आदमियों से जो अपनी जड़ों से उखड़े लोग हैं,सूखे पत्तों जैसे किस्मत की लहर पर सवार गली-कूंचों,मोहल्लों-मोहल्लों,डगर-डगर,शहर-शहर,भटकते कूड़े की मानिंद लोगों से। जो भटकते-भटकते पहुँच जाते हैं साफ़ सुथरे चमकते दमकते शहरों को गंदा करने। अब बाबूजी लोगों को,हुक्मरानों को,सेठ साहूकारों को ये कूड़ा कहाँ हज़म। ये उनकी शान पर बट्टा जो ठहरे। तो भई नगरपालिका के कारकून उन्हें धकिया धुकियाकर शहर के गड्ढों में कूड़े की तरह भर देते हैं। कई बार तो स्लम वालों को भी कूड़ी की किस्मत पर रश्क होता होगा कि वे स्लम से ज्यादा साफ़ सुथरी जगह पर है,खुली हवा में सांस ले रही हैं। उन्हें तो इतना भी मयस्सर नहीं। कूड़ी और स्लम में समानता यहीं ख़त्म नहीं होती। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। कूड़ी सड़ गल कर अपना अस्तित्व समाप्त कर बहुमूल्य खाद में बदल जाती है। बेजान मिट्टी में मिलकर उसे उर्वर बना देती है जिससे फसलें लहलहाने लगती हैं। किसान खुशी से झूम झूम उठते हैं।दबा कुचला मृतप्राय किसान लहलहाती फसल देख जीवंत हो उठता है। खुद को मिटाकर दूसरे को जीवन देना.... उसे धन धान्य से परिपूर्ण कर देना.... कैसा निश्छल और पूर्ण समर्पण। बिलकुल वैसे ही जैसे स्लम वाले करते हैं। शहरों की ऊँची ऊँची इमारतों को कौन बनाता हैं। शहरों की साफ़-सफाई कौन करता है। घरों का रंग रोगन,सफाई-पुताई,रोज़मर्रा के काम कौन करता है। स्लम वाला ही ना। अपना तन मन सब गला कर शहर की सेवा स्लम वाला ही करता है न। मैं तो कहता हूँ गाँव की कूड़ी और हर का स्लम दोनों एक ही हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कबीर दास की तर्ज़ पर कहूँ तो 'कूड़ी है कि स्लम है/स्लम है कि कूड़ी है/कूड़ी ही स्लम है /स्लम ही कूड़ी है,।  
         ... अचानक एक शोर सा उभरता है,चीख चिल्लाहट कानों से टकराने लगती है कि अचानक एक झटके से रेल रूक जाती है। प्लेटफार्म पर गाड़ी पहुँच चुकी है। ध्यान भंग होता है। तिलिस्म टूटता है।आप रेल से उतरने की जल्दी में सामान पैक करने लगते हैं।




Sunday 28 June 2015

कबूतर और बहेलिया



बहेलिया पहले डालेगा चुग्गा आश्वासनों का
उसमें मिलाएगा सुनहरे भविष्य के सपनों की अफीम
जब मदहोश हो जाएंगे कबूतर सारे
तो बिछाएगा मजबूत जाल
जिसका एक सूत्र होगा नस्ल का
एक बतियाने की बोली का
एक रहने की डाल का
एक उनके शरीर के रंगों का
जो रंगा होगा धर्म और देशभक्ति के गहरे रंगों से
इस बार बहेलिया नहीं खड़ा होगा पेड़ के पीछे
क्योंकि वो जानता है उनके उड़ जाने की बात
बल्कि हाथ में लिए चुग्गा खड़ा होगा कबूतरों के पास
और पेड़ के पीछे होंगे बहेलिए के व्यापारी मित्र
जिनकी गिद्ध दृष्टि टिकी होगी कबूतरों के घोंसलों पर
और भिड़ा रहे होंगे जुगत पेड़ों को कब्जाने की
इस बार नहीं उड़ पाएंगे मदहोश कबूतर
बाई द वे उड़ भी जाएं
तो जाएंगे कहाँ?
चूहे के पास ही ना !
पर वे नहीं जानते कि
चूहा भी मिल चुका है पेड़ के पीछे वाले व्यापारियों से
और खुद भी बन गया है बड़ा बहेलिया
उसके जाल कुतरने वाले दांत हो गए हैं भोथरे
और उसके हाथ लग गया है और भी ज्यादा मदहोशी वाला रसायन
सीख गया है कबूतरों को जाल में फंसाए रखने की जुगत
वो चलाएगा अस्मिता का जादू
नहीं हो पाएंगे आजाद कबूतर
तो मित्रों कहानी थोड़ी बदल गई है
नमूदार हो गए हैं कुछ नए किरदार
बहेलिया सीख गया है कुछ नए दांव पेंच
कबूतर भूल गए हैं कुछ कुछ एकता का पाठ।

Sunday 21 June 2015

दास्तान मुग़ल महिलाओं की



              

                   जब 'नया ज्ञानोदय' और 'बी.बी सी' ने  इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हेरम्ब सर की लिखी पुस्तक  'दास्तान मुग़ल महिलाओं की' को 2013-14 की चर्चित पुस्तकों में शुमार किया और ज्ञानोदय ने उस वर्ष की सबसे चर्चित 6 पुस्तकों में शामिल किया तो पहली बार इस किताब के बारे में जानकारी हुई। ज्ञानोदय की 6 पुस्तकों की सूची में एक यही पुस्तक नॉन फिक्शन किताब थी। इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते इसके प्रति उत्सुकता होना स्वाभाविक ही था। इसके टाइटल ने इसको पढ़ने की ललक थोड़ी और बढ़ा दी। कई महीने पहले इस किताब को खरीद लिया था। ये दीगर बात है कि इसको ख़त्म अभी अभी किया है। किताब को उत्साह से पढ़ना शुरू किया लेकिन जल्द ही उत्साह कम होने लगा।सात अध्याय में लिखी किताब का पहला अध्याय बाबर की नानी इबुस्कुन पर आधारित है जिसकी पृष्ठभूमि में मध्य एशिया है। दरअसल इसके पढ़ने में कठिनाई मध्य एशिया के स्थानों के नाम और व्यकिवाचक फारसी नामों को लेकर है जो आपके पढ़ने की एकाग्रता को कहीं ना कहीं बाधित करते हैं खासकर इतिहासेत्तर किताब के रूप में पढ़ने पर तो अवश्य ही।  इसके विषय में जब मैने हेरम्ब सर से कहा तो उन्होंने मज़ाक में कहा कि 'मैं सबको इसे पीछे से पढ़ने की सलाह देता हूँ'। लेकिन थोड़ा सा धैर्य बनाए रखने पर आप इसमें जल्द ही डूबने उतराने लगते हैं। इस किताब की शुरुआत कठिन ज़रूर है लेकिन जैसे जैसे आप आगे बढ़ते हैं आनंद का सोता एक पहाड़ी नदी की तरह आपके मन में बह निकलता है और आप उसके  तेज बहाव में बहते चले जाते हैं। दरअसल भूगोल और इतिहास एक दूसरे से घात प्रतिघात करते चलते हैं। इसमें भी कुछ ऐसा ही है। जब तक पात्र मध्य एशिया के कठिन और दुर्गम प्रदेशों में रहते है उनकी कहानी भी कठिन और शुष्क सी मालूम दीख पड़ती है लेकिन जैसे जैसे वे पात्र अपेक्षाकृत कम दुर्गम और उर्वर प्रदेश में आते चले जाते हैं वैसे वैसे इतिहास अधिक रंगोंवाला और अधिक रसपूर्ण बन पड़ता है। शायद यही कारण है कि अंतिम दो अध्याय सबसे दिलचस्प और बेहतरीन बन पड़े हैं। क्योंकि उस समय किरदार भारत की समतल उर्वर हरी भरी धरती पर आ चुके होते हैं।
                किताब अपने कथ्य और कहन दोनों ही कारणों से बेजोड़ बन पडी है। मुग़लकालीन महिलाओं के बारे में आप के दिमाग में जो पहले पहला ख्याल आता है उससे या तो आपके मन में मुमताज़महल और नूरजहाँ की और बहुत हुआ तो महम अनगा की तस्वीर उभरती है या फिर हरम में रहने वाली असंख्य बेग़मों,जिनकी स्थिति अपनी दासियों से भी गई बीती होती थी,की तस्वीर उभरती है। लेकिन किताब में इनसे इतर ऐसी मुग़ल महिलाओं की दास्ताँ हैं जिनके बारे में या तो हम बिलकुल नहीं जानते या थोड़ा बहुत जानते हैं जिनका कि इतिहास में पारिवारिक नामावली पूरा करने भर को उल्लेख किया  गया है। इस किताब में उन महिलाओं के मुग़लों के शानदार इतिहास को बनाने में महती भूमिका को स्थापित करने की सफल कोशिश है जिसकी कि तत्कालीन इतिहासकारों ने उपेक्षा की थी।भले ही आधुनिक सन्दर्भों के अनुरूप इसमें नारी विमर्श ना भी हो,भले ही इसमें राजपरिवार की स्त्रियों की दास्ताँ कही गयी हो जिन्होंने राजशाही को ही मज़बूत बनाने की कोशिश की हो लेकिन ये भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि मध्यकालीन समाज में जहाँ नारी का अस्तित्व एक ऑब्जेक्ट से अधिक कुछ नहीं था ऐसे में कुछ महिलाएँ अपनी इच्छा शक्ति और योग्यता के बल पर उस समय के हिंसक और निरंतर संघर्षों वाले माहौल में पुरुषों के वर्चस्व वाले राजनीतिक परिदृश्य को ना केवल प्रभावित करती हैं बल्कि अपने को स्थापित भी करती हैं। ये किताब उन महिलाओं की गरिमा को ही नहीं बल्कि उनके योगदान भी को बखूबी स्थापित करती है जिसे इतिहास ने शायद सायास भुला दिया था। फिर बात चाहे चग़ताई इबुस्कुन की हो या महारानी खातून की हो, ईशान दौलत खानम,हर्रम बेग़म या फिर हमीदा बानो बेग़म की।
                                  जब इतिहासकार कवि भी होता है तो उसके इतिहास लेखन में अतिरिक्त लालित्य आ जाता है। फिर वे प्रो. हरबंस मुखिया हों या प्रो. लाल बहादुर वर्मा और प्रो. हेरम्ब चतुर्वेदी तो यहाँ हैं हीं। प्रो. चतुर्वेदी मुग़लकालीन महिलाओं का इतिहास लिखते है तो उसमे ललित निबंध सा आनंद आता है। ये उद्धरण एक बानगी भर है "..बाबर के जीवन में ये दो महिलाएं ही प्रमुख हुईं। एक ने एक यायावर,संसाधनहीन शासक के जीवन में नई आशा नई दिशा व नया स्वप्न दिया तो दूसरी ने उसे क्रियान्वित करने का उत्साह व सम्बल दिया। एक ने अभिलाषा को जागृत किया तो दूसरी ने उसे ऊर्जा व गति प्रदान की। एक ने विचार दिया तो दूसरी ने उसे व्यवहत करने का संकल्प। एक ने उर्वर भूमि तलाशी व बीज बो दिया दूसरी ने निश्चित कार्य योजना के साथ उसे अंकुरित कर दिया। एक ने मन मस्तिष्क टटोला,दूसरी ने ऐसी मनःस्थिति ही निर्मित कर दी …।"   दरअसल इतिहास निर्मिति और लेखन एक दुष्कर कार्य है। जैसे पत्थरों में से कोई मोती ढूंढ लाना। इतिहासकार उस मूर्तिकार की तरह होता है जो अपनी अंतर्दृष्टि और तर्क की छेनी हथौड़े से पत्थर को तराशकर खूबसूरत मूर्ति का रूप देता है।प्रो. चतुर्वेदी भी मुग़लकाल के सात अनजाने पर महत्वपूर्ण पत्थरों को खोजते हैं उन्हें तराशकर सात खूबसूरत मूर्तियों का निर्माण करते हैं।अगर इनमे से प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में हर्रम बेग़म प्रभावित करती है तो एक प्रेमकथा के रूप में हमीदा बानो की कहानी अद्वितीय बन पडी है। जिसकी तुलना किसी भी बेहतरीन से बेहतरीन प्रेम कहानी से की जा सकती है। लगभग इसी के साथ साथ 'बेदाद ए इश्क़ रूदाद ए शादी' पढ़ी थी। उसमें कई लोगों के अंतर्जातीय और अन्तर्धार्मिक विवाहों को लेकर आत्म संघर्षों के  वक्तव्य बेहतरीन बन पड़े हैं। उन वक्तव्यों में पूरे समय एक तनाव की व्याप्ति रहती है जो उनसे पाठक को बांधता है। उनसे एक अलग धरातल की किस्सगोई होने के बावजूद हमीदा बानो के किस्से में भी उसी तरह के तनाव की व्याप्ति रहती है। अनारकली को लेकर भारतीय जनमानस में एक अलग रोमानी छवि बसी है। प्यार के प्रतीक के रूप में। वे यूरोपियन यात्रियों के वृत्तांत के साक्ष्यों के सहारे इस छवि को तोड़ते हैं। जब ये स्थापित होता है कि सलीम ने अपनी सौतेली माँ अनारकली से बलात् दुष्कर्म किया तो निश्चित ही एक बड़ा मिथक टूटता है। और जब अकबर को ये पता चलता है कि इसमें स्वयं अनारकली की भी सहभागिता तो वो अनारकली को लाहौर के किले  दीवार में चुनवा देता है। दरअसल ये मुग़ल शासकों की विलासिता,लम्पटता  तो बताता ही है साथ ही अन्तःपुर हरम में व्याप्त षड्यंत्रों अनाचारों और बदहाली की भी कहानी कहती है। 
         सच तो ये है जब वे ये किताब लिख रहे होते हैं तो वे केवल एक किताब नहीं लिख रहे होते हैं बल्कि कविता में इतिहास बुन रहे होते हैं और इतिहास में कविता रच रहे होते हैं। फिलहाल उनके एक नए ऐतिहासिक महाकाव्य की प्रतीक्षा में। 



Thursday 18 June 2015

स्वागत नए चैम्पियन और नए स्टार का

चित्र गूगल से साभार 

                                कभी कभी कुछ चीजों का घटना सपने का हक़ीक़त में बदल जाने जैसा होता है। मंगवार की रात जब क्लीवलैंड ऑहियो के 'द क्यू' के नाम से प्रसिद्ध क्विकें लॉन्स एरीना के सेंटर कोर्ट में गोल्डन स्टेट वारियर्स और क्लीवलैंड कैवेलियर्स के बीच एनबीए के फाइनल्स का छठा गेम समाप्त हुआ तो गोल्डन स्टेट टीम के लिए 40 सालों से संजोया सपना उनका अपना बन चुका था।गहराती रात में झूमते खिलाड़ियों के चेहरों से निकलता तेज़ और छलकती खुशी इस बात को बयां करने के लिए पर्याप्त थी कि जीत किसी टीम के लिए क्या मायने रखती है। छठे गेम में गोल्डन  स्टेट वारियर्स टीम ने सच्चे योद्धाओं की तरह खेलते हुए एनबीए के संभवतः सबसे बेहतरीन खिलाड़ी लेब्रोन जेम्स की अगुआई वाली क्लीवलैंड कैवेलियर्स की टीम को 105 -97 अंकों से हराया तो वे सात मैचों की सीरीज 4 -2 से जीत कर इतिहास बना चुके थे। 1962 में वेस्टर्न कोन्फेरेंस में आने के बाद गोल्डन स्टेट ने केवल एक बार 1975 में एनबीए खिताब जीता था। हालांकि 1947 और 1956 में भी वे चैम्पियनशिप जीत चुके थे। वारियर्स की टीम पिछले चालीस वर्षों  की नाकामयाबी भुला कर स्टीफेन करी और क्ले थॉम्पसन की अगुआई में पूरे सत्र में चैंपियन की तरह खेली। उन्होंने शानदार ले अप और 3पॉइंटर किए। बढ़िया रिबाउंड लिए, बेहतरीन टर्न ओवर किए शानदार स्टील भी।अपने खेल में रक्षण और आक्रमण का बेहतर संतुलन का समावेश किया। गोल्डन  स्टेट के खिलाडियों के हाथों की उँगलियों के पोरों से  जब भी गेंद छूटती थी तो कुछ जादू सा कुछ अविश्वसनीय सा कर गुज़र जाती थी।  सामान्यतः टीमें 3पॉइंटर में बहुत ज़्यादा विशवास नहीं रखतीं पर इस टीम ने आरंभ से ही इसी रणनीति पर भरोसा किया। निश्चित ही क्ले और करी ने अद्भुत खेल दिखाया। केवल प्लेऑफ मुकाबलों में करी ने 95 3पॉइंटर बास्केट की। इससे पहले का केवल 53 बास्केट का रेकॉर्ड है। वैसे पूरे सीज़न में करी ने सबसे ज़्यादा 276 और उसके बाद उनके साथी खिलाड़ी क्ले ने 223 3पॉइंटर बास्केट कीं। करी ने अपने खेल से दिखाया कि उन्हें इस साल का एमवीपी का खिताब यूँ ही नहीं मिला।
चित्र गूगल से साभार 
                  दरअसल ये मुकाबला दो टीमों के बीच ही नहीं बल्कि दो बड़े खिलाड़ियों-लेब्रोन जेम्स और स्टीफेन करी के बीच भी था।एक तरफ 6फुट 8इंच लंबे और 113 किलो वज़न के लहीम शहीम खूंखार से दिखाई पड़ने वाले लेब्रोन थे। जब वे स्वयं को एनबीए का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बता रहे थे तो उसमें अतिश्योक्ति नहीं थी। उनके बड़े खिलाड़ी होने का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे दो बार के एनबीए चैम्पियन,चार बार के एमवीपी,दो बार के फाइनल्स के एमवीपी,11 बार आल स्टार टीम में  रह चुके थे। जबकि 6 फुट 3 इंच लम्बे और 86 किलो वजन के लेब्रोन की तुलना में साधारण कद काठी वाले मासूम से चेहरे वाले स्टेफन करी इससे पहले कोई बड़ा नाम नहीं थे। लेकिन इस बार दोनों ने असाधारण खेल दिखाया और अपनी अपनी टीमों को फाइनल तक पहुँचाया। एक ले अप और डंक का माहिर तो दूसरा 3पॉइंटर का। दोनों ने फाइनल में भी शानदार खेल दिखाया। लेब्रोन ने फाइनल्स में 35. 8 की औसत से अंक,13. की औसत से रिबाउंड और 8.8 की औसत से असिस्ट किया। लेकिन इसके बावजूद लेब्रोन वो नहीं कर सके जो करी ने कर दिखाया यानि अपनी टीम को चैम्पियन नहीं बना सके। अंतर इस बात का था कि लेब्रोन संग्राम में अकेले महारथी थे जबकि करी के साथ क्ले, ईगोड़ाला तथा अन्य खिलाड़ी कंधे से कंधा मिलाकर साथ खेल रहे थे। गोल्डन स्टेट वारियर्स एक मज़बूत टीम के रूप में लेब्रोन और एनबीए टाइटल के चट्टान की तरह अड़े थे जिसे भेद पाना लेब्रोन और उनकी टीम क्लीवलैंड कैवेलियर्स के लिए असंभव था। नए चैम्पियन और नए स्टार का स्वागत।

Tuesday 9 June 2015

क्या असंभव कुछ नहीं

                                  




                  फ्रांस की धरती से ही महान सेनापति नेपोलियन ने घोषणा 

की थी कि 'असंभव' शब्द उसके शब्दकोष में नहीं है। तब आज  

तक ना जाने कितने लोगों ने उससे प्रेरणा ली होगी। और निश्चित हीजब 

आज शाम विश्व के न. एक खिलाड़ी नोवाक जोकोविच ने स्टेनीलास 

वारविंका के खिलाफ खेलने के लिए पेरिस के रोलां गैरों के सेंटर कोर्ट की 

लाल मिट्टी की सतह पर कदम रखे होंगे तो उनके दिमाग में नेपोलियन 

का वो कथन लगातार प्रहार कर रहा होगा। वे अपना नाम टेनिस के उन 

सात महान खिलाड़ियों की सूची में लिखवाने को बेताब होंगे जिन्होंने 

टेनिस की चार ग्रैंड स्लैम प्रतियोगिता जीत कर अपना लाइफटाइम ग्रैंड 

स्लैम पूरा किया है। वे क़्वाटर फाइनल में लाल मिट्टी के सुपरमैन नडाल 

को और सेमी फाइनल में अपने लक्ष्य के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी एंडी मरे को 

रास्ते से हटा चुके थे। वे जानते हैं कि वे 28 के हो चुके हैं।और समय रेत 

की तरह उनके हाथ फिसल रहा है। अब उन्हें केवल एक बाधा पार करनी 

थी।लेकिन वे इतिहास बनाने की जगह इतिहास को दोहरा रहे थे। 2012 

और 2014 की तरह वे एक बार फिर फाइनल में हार गए।ये सिद्ध करनेके 

लिए कि 'उनके शब्द कोष में भी असंभव शब्द नहीं है' बारह महीनों का 

लंबा इंतज़ार करना होगा। इस बीच सीन नदी में बहुत पानी बह चुका 

होगा और उनके आंसू मृत सागर के खारेपन को कुछ और बढा चुके होंगे।




Sunday 7 June 2015

एक कहानी अधूरी सी



क्लासरूम में
कभी ख़त्म ना होने वाली 
हमारी बातों के बीच 
वो अनकहा
और पलास के सिंदूरी दहकते फूलों से लदे पेड़ों के नीचे टहलते हुए
हमारी लम्बी खामोशियों के बीच 
बहुत कुछ कहा गया

सीनेट हाल के कॉरीडोर में तैरती हमारी फुसफुसाहटें

और चबूतरे पर बैठकर गाये गीतों की हमारी गुनगुनाहटें

आनंद भवन के सीढ़ीनुमा लॉन पर 

गूंजती हमारी खिलखिलाहटों से
मिलकर बनी 

गुलाब के अनगिनत रंगों की मौज़ूदगी में

अनजाने लोगों के होठों पर तैरती रहस्यमयी मुस्कान
और उनकी आँखों की चमक से
साहस पाती हमारी कहानी

बन चुकी थी प्रतिरोध का दस्तावेज

जिसे जाना था संगम की ओर
मिलन के लिए
पर पता नहीं
क्या हुआ
क्यों बहक गए तुम्हारे कदम 
और चल पड़े कंपनी बाग़ की तरफ
जहाँ ब्रिटेन की महारानी की तरह
तुम्हें करनी थी घोषणा
एक युग के अंत की
ताकि सध सके तिज़ारत का बड़ा मुक़ाम।



Monday 1 June 2015

तिलिस्म




बताओ तो ज़रा
कैसे बिना कोई शिकन लिए चहरे पर
बने रहते हो इतने बड़े कलाकार
कि गरीब की थाली में परोसकर कुछ आश्वासन
छीन लेते हो उसके मुँह का कौर
और वादों का झुनझुना पकड़ाकर
कर लेते हो मासूम सपनों को 
अपनी तिज़ोरी में कैद 

बताओ तो ज़रा

'एकता' के नारे डालकर मज़दूर की झोली में  
कैसे उसकी बिछावन को
बना लेते हो अपने पैरों के नीचे की रेड कार्पेट
कैसे किसान में 'अन्नदाता' होने का सब्ज़बाग़ जगाकर
उसकी  हाड़तोड़ मेहनत के अन्न को  
बदल देते हो अपनी रंगीन शाम के 'चखना' में 


कुछ तो खुलो

बताओ तो ज़रा
कैसे खून के लाल रंग को
हरे भूरे नीले सुफ़ेद रंग में बदल कर 
कर देते हो रंग बिरंगा
और उससे लगी आग के धुँए से कर देते हो पूरे आसमां को स्याह
आखिर कैसे आदमी के दुखों को बना लेते हो
अपने बेहया सुखों का तकिया
और बनकर तीन बंदर
बजाते हो चैन की बंशी।

कुछ तो बताओ

कैसे आदमी के भीतर सुलग रही आग को
अपनी धूर्तता भरी आवाज़ से साधकर
 बना लेते हो अपनी ताकत तथा 
अपनी अय्याश सत्ता की नींव। 


कुछ तो गिरह खोलो और बोलो 

कुछ तो पता चलने दो 
आदमी से सत्ताधारी मठाधीश बनने के 
'अनिर्वचनीय सुख' वाले तिलिस्मी सफ़र का 
ताकि कोशिश हो सके इस तिलिस्म से बचाने की 
आने वाली नस्लों को।

Thursday 28 May 2015

शब्द रोटी नहीं है



ये समय है शब्दों की सत्ता का

शब्द हैं आग और पानी एक साथ 

शब्द हैं प्यार और घृणा 

शब्द हैं शांति और हिंसा
शब्द हैं उम्मीद और नाउम्मीदी 
शब्द है  विनाश और विकास

शब्द हो सकते हैं कोरे आश्वासन

या झूठी दिलासा 
 शब्द वायदे भी हैं
और हैं बहाने भी
वैसे तो शब्द हैं हर हक़ीक़त ज़िंदगी की 
फिर भी एक सीमा पर आकर ठिठक जाती है उसकी सत्ता 
दरअसल शब्द नहीं बन सकते रोटी 
शब्दों से नहीं भरते पेट
वे नहीं बुझा सकते
पेट की आग !

Tuesday 7 April 2015

बेटी का होना _दो




तेरा हँसना          
सर्द में धूप का खिलना

तेरा मुस्कराना
रात में चांदनी का फैलना 

तेरा रोना
सावन में फुहार का गिरना

तेरा रूठना
बादलों का आसमान में घिरना

तेरा बोलना
राग मल्हार को सुनना

तेरा स्पर्श
खुशियों का दामन में सिमट आना 

तेरा होना
जीवन में अर्थ का होना ।

बेटी का होना _एक





जैसे सूरज के होने से 
दिन का होना 
रात होने से 
होना चाँद सितारों का 

जैसे आकाश के होने से 
विस्तार का होना 
सागर होने से 
होना गहराई का 

जैसे बसंत के होने से 
कूकना कोयल का 
सावन होने से 
झूलों का पड़ना 

जैसे साँसों के चलने से 
जीवन का होना 
तेरे होने से 
होना मेरा। 







Thursday 2 April 2015

अम्मा जी

                      
                अजीत के पिता पिछले वर्ष सेवानिवृत हुए थे। उन्होंने गाँव में रहने का निर्णय किया और अपने पैतृक मकान को ठीक करा कर उसमें रहने लगे थे। घर से काफी दूर पोस्टिंग होने और कुछ नौकरी की व्यस्तता के कारण अजीत उस समय गाँव नहीं आ पाया था जब पिताजी गाँव में शिफ्ट कर रहे थे। अब गाँव आना ही था। 

                            वो लम्बे अर्से बाद गाँव जा रहा था। बस से करीब आठ घंटों के लम्बे सफ़र के बाद जब वो बस स्टैंड पर उतरा तो उसका शरीर अकड़ सा गया था और थकान शरीर पर तारी होने लगी थी। लेकिन लम्बे अंतराल के बाद गाँव जाने के उत्साह में थकान मस्तिष्क पर हावी नहीं हुई क्योंकि उसके मस्तिष्क में तो गाँव के असंख्य चित्र उभरते जा रहे थे और इनको देखते-देखते वो कब बस से उतर कर बस स्टैंड से बाहर आ गया पता ही नहीं चला। जब रिक्शे वालों ने उसे घेर लिया और उन्होंने पूछा "कहाँ जांगे साब" तो सचेत हुआ। उसने टालने की ग़रज़ से पलटकर एक रिक्शेवाले से पूछा "सुंदरा गाँव जाने के लिए क्या सवारी मिलेगी" तो रिक्शा चालकों का उत्साह फीका पड़ गया गया। उनमें से एक ने बताया "बेगम पुल की माई सै सिटी बस आवैगी उसमें बैठ लियो रिठाल पूंचा दैगी,वहाँ से रिक्शा से चले जाईयो"। ये बात उसे पहले से ही पता थी। उसका चचेरा भाई फोन पर बता चुका था। 
                        सड़क पर बड़ी भीड़ भाड़ थी। लगभग जाम सी की स्थिति।उसे अनायास ही बरसों पहले की अपने गाँव की आखिरी यात्रा की याद हो आई । उस समय शहर में कितनी शांति और सुकून था। सड़क पर बहुत कम भीड़ होती थी। अब सड़क काफी चौड़ी हो गयी थी।फिर भी यातायात था कि उसमें  समाने से इंकार कर रहा था। अब हर ओर आपाधापी मची है। हर आदमी दूसरे के ऊपर चढ़कर उससे आगे  निकल जाने  की होड़ में था। पिछली बार रिक्शा और साईकिल के अलावा स्वचालित वाहन बहुत ही कम दिखाई देते थे।
                         उसे याद था कि उस समय गॉव जाने के लिए साबुन गोदाम स्थित चीनी मिल जाना होता था। वहाँ रिक्शॉ से जा सकते थे या फिर पैदल जाते थे। मिल पर पहुँच कर देखना पड़ता कि गॉव की कोई बुग्गी है या नहीं। अगर होती तो उसमें बैठ कर जाते। नहीं तो पैदल ही गॉव तक का रास्ता नापना पड़ता। ये बुग्गियां या तो चीनी मिल में गन्ना लेकर आती या फिर बाज़ार करने लोग इनमें बैठ कर आते। उस समय शहर आने का मुख्य साधन यही था।  साइकिल का भी उपयोग होता था। पर जब ज्यादा लोग होते या परिवार होता या महिलाएँ होती तो बुग्गी ही पहली पसंद होती।
                                   उस समय तक संचार क्रांति नहीं हुई थी। चिट्ठी पत्री से ही काम चलाना पड़ता था। अगर आपका पहले से कार्यक्रम निश्चित होता तो आप चिट्ठी लिखकर सूचित कर सकते थे। ऐसी स्थिति में आपके लिए निश्चित ही बुग्गी मिल पर पहुँच जाती थी और जब आप रिक्शॉ से मिल पहुँचते तो बुग्गी के साथ गाँव के कई बच्चों और बड़े लोग आपका इंतज़ार कर रहे होते। बुग्गी साफ़ सुथरी होती और उस पर दोहर जैसी कोई साफ़ सुथरी चीज़ बिछी होती ताकि आप आसानी से बैठ कर गॉव जा सके। गॉव जाने के लिए दो रास्ते होते थे। एक तो यही था। इसमें बस स्टैंड से पश्चिम में तीन किलोमीटर जाकर मिल आता और वहाँ से कोई तीन किलोमीटर दक्षिण जाना होता। ज्यादातर इस्तेमाल इसी रास्ते का होता था क्योंकि ये रास्ता थोड़ा छोटा था और इधर से सवारी मिलने की सम्भावना बहुत ज्यादा होती थी। दूसरा रास्ता वो था जो रिक्शा वाले ने बताया था। ये थोडा लम्बा था। इसमें बस स्टैंड से करीब सात किलोमीटर दक्षिण जाकर रिठाल आता और वहाँ से तीन किलोमीटर पश्चिम में गाँव पड़ता था। समय बदलने के साथ  चीज़े बदल जाती हैं। जो रास्ता पहले अधिक चलता था वो अब लगभग बंद हो चला था और ये लंबा रास्ता चल निकला। अब मिल बंद हो गया था और आसपास के गॉवों की सारी खेती योग्य जमीन शहरी विकास प्राधिकरण ने शहर के विकास के लिए अधिग्रहित कर ली थी। जब गन्ना ही नहीं रहा तो मिल का बंद होना स्वाभाविक ही था। मिल बंदी ने रास्ता भी बंद सा ही कर दिया था।
      उस रास्ते के बंद होने का कारण सिर्फ मिल का बंद होना ही नहीं था। ऑटोमोबाइल क्रांति भी इसमें अधिक सहायक हुई। अब बाज़ार में दो पहिया स्वचालित वाहनों की भरमार हो गयी थी। अब वो समय नहीं था कि आपको बजाज के स्कूटर को बुक कराना पड़ता था और बरसो बाद नम्बर आता था। और अगर दहेज़ में देने के लिए अर्जेंट चाहिए तो ब्लैक् में खरीदना पड़ता। अब तो जेब में पैसा रखो और हीरो होंडा, टीवीएस, बजाज किसी भी कंपनी के शो रूम में जाओ और कुछ भी ले आओ। गाँव की ज़मीन अधिगृहित  चुकी थी और एकमुश्त मुआवज़ा किसानों की जेब में आ चुका था। तो अब लोगों के पास सायकिल और बुग्गियों की जगह स्वचालित निजी वाहन हो गए थे। रिठाल के लिए गॉव से जो संपर्क मार्ग था वो पक्का हो गया था और रिठाल तो दिल्ली जाने वाले राजमार्ग पर पड़ता ही था। उसे तो ठीक ठाक होना ही था। परिणाम ये हुआ कि अब गाँव के लोग इसी रस्ते से आने जाने लगे थे। 
                          बस के तेज हॉर्न ने उसकी विचार श्रृखंला को तोड़ा। उसने गर्दन घूमाकर देखा। सिटी बस आ रही थी। अजीत उसमें चढ़ लिया। बस में सवारी जानवरों  की तरह ठुंसी थी। पर बस के कंडक्टर को लग रहा था कि अभी बहुत सी सवारी आ सकती हैं और वो बेफ़िक़्र हो सवारियों को ठूसे जा रहा था। जैसे ही अजीत ने बस के पहले पायदान पर कदम रखा आगे उसे कोई मशक्कत नहीं करनी पडी। पीछे से चढ़ने वालों ने अपने आप बस के बीच में ला खड़ा किया। भीड़ से उसका दम घुटने लगा था। उसने सोचा थोड़ी देर में शहर ख़त्म हो जायेगा। भीड़ भी अपने आप कम हो जायेगी। पर इतने सालों में शहर हद से ज्यादा फ़ैल चुका था। पहले तो दिल्ली चुंगी के आगे शहर ख़त्म हुआ लगता था। पर अब तो शहर है कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। और वैसे ही भीड़ भी। जैसे तैसे रिठाल आया। बस से उतरकर चारों तरफ नज़र दौड़ा कर देखा। पुराना पहचानने की कोशिश की। पर सब कुछ अजनबी सा नया नया सा लग रहा था। पहले ये भी छोटा सा गाँव हुआ करता था। सड़क पर तो बस दो चार दुकानें हुआ करती थीं। और उनके बीच से गाँव जाने का रास्ता दूर से ही साफ़ दीख जाता था । पर अब ये बड़े कस्बे में तब्दील हो चुका था। इसका ओर छोर कुछ भी नज़र नही आ रहा था और ना गाँव जाने का रास्ता। उसे याद आया कि गाँव का रास्ता एक मज़ार के पास से जाता है। दूर से उसे मज़ार दिखाई दी और वही से गाँव का रास्ता भी। वो उधर चल पड़ा। वहाँ बहुत से रिक्शे वाले खड़े थे। दूर से सम्भावित सवारी को देखते ही दो तीन रिक्शे वाले उसकी तरफ लपके और अपने रिक्शे में चलने का आग्रह करने लगे। उसे समझ ही नहीं आया किससे जाए और किसे मना करे। अंत में सबको मना कर पैदल ही चल पड़ा।
        गाँव जाने वाली इस सड़क पर भी अब काफी दूर तक दुकानें हो गयी थीं। उसके बाद रिहायशी मकानों का सिलसिला शुरू हो गया। रिहायश इतनी ज्यादा फ़ैल चुकी थी कि दो चार खेत आते ही रेलवे क्रॉसिंग आ गयी और क्रॉसिंग के उस पार गाँव था। पता ही नहीं चला कि कब क्रॉसिंग आया। पहले रिठाल से गांव कितनी दूर लगता था। खेतों के बीच से लगभग सुनसान कच्ची सड़क। आते-जाते भी डर लगता । पहले ये रास्ता दिन में भी कम चलता और शाम के बाद तो कोई मजबूरी में भले ही उस रस्ते जाए तो जाए।
           क्रॉसिंग पार करते ही उसे एक शिवालय दिखाई दिया। ये उन पांच मंदिरो में से एक था जो पिछले कुछ सालों में गाँव वालों की भक्ति भावना के बढ़ने के कारण बने थे। क्योंकि चचेरे भाई और कभी-कभी दूसरे लोग गाहे बगाहे उसे मंदिर के चंदे के लिए फ़ोन पर इन निर्माण कार्यों के बारे में सूचना देते रहते । ऐसा नहीं कि गाँव वाले पहले धार्मिक नहीं थे।  पहले उनकी भक्ति अपने कुल देवताओं तक सीमित थी जिनके थान हर परिवार के  अपने खेतों में बने होते थे। मंदिर के सामने आयल कम्पनियों का बड़ा सा तेल परिसर बन गया था। ये गाँव के पूरब में था। दक्षिण में आरएएफ का बड़ा सा परिसर बन गया था।  तेल डिपो से तेल लेने के लिए तेल टैंकरो की लाइन लगी थी। उनकी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए क्रासिन्ग से डिपो तक चाय से लेकर दारू के अड्डे तक सब कुकुरमुत्तों की तरह उग आए थे।और इन सब के बीच पुराना सरकारी प्राइमरी स्कूल छिप सा गया था। इतने सारे बदलाव के बीच अगर कुछ नहीं बदला तो ये स्कूल था। अभी भी दो टूटे कमरे और एक बरामदा। हाँ स्कूल के परिसर में दूर किनारे एक छोटा सा शौचालय जरूर बन गया था। सड़कें गाँव के अंदर भी डामर की हो गयी थी। और उनके किनारे पक्की नालियां भी बन गयी थी। वो बात अलग थी कि वे सब कूड़े से अटी पडी थीं और कई जगह पानी सड़क पर अब भी वैसे ही बह रहा था जैसे पहले बहा करता था। हाँ मकान सब पक्के हो गए थे। एक भी कच्चा घर नहीं दिखाई दिया और सच बात तो ये कि कुछ मकान तो शहर के मकानों को भी मात दे रहे थे। लग रहा था कि गाँव में नहीं बल्कि शहर की किसी निम्नमध्यम वर्गीय अनधिकृत कॉलोनी में प्रवेश कर लिया हो।
     
                      तंग गलियों से होता हुआ जब वो घर पहुँचा तो माँ दरवाज़े पर ही मिल गयी। वो अभी अभी अम्माजी को देख कर आई थी। माँ ने कुशल क्षेम पूछ कर गाँव भर का हाल बताना शुरू कर दिया। और उसमें जो बात उसे  सबसे ज्यादा विचलित कर गयी वो थी कि अम्माजी बहुत ज्यादा बीमार हैं और कभी भी भगवान् को प्यारी हो सकती हैं।उसके स्मृति पटल पर अभी तक जो अपने  गाँव शहर की छवियाँ बन उभर रहीं थीं उनकी जगह अम्माजी ने ले ली थी। 
         अम्माजी दरअसल उसकी ताई जी थीं। वो उन्हें बचपन से अम्माजी ही कहता था क्योंकि उनके खुद के बच्चे उन्हें अम्माजी कहते थे।उसकी आँखों में उनका चेहरा घूम गया। वे कद में छोटी थी। लगभग पाँच फीट की। एकदम गोरी चिट्टी। दुबली पतली बड़ी ही फुर्तीली। छोटी छोटी आँख,सुतवा नाक और घने काले घुंघराले बाल। हाँ जो एक बात खटकती वो थी उनकी आवाज़। कुछ अजीब सी भारी सी, बैठी सी। लेकिन देखने में काफ़ी आकर्षक। ताऊजी की ये दूसरी शादी थी। उनकी पहली पत्नी शादी के कुछ दिनों बाद ही बीमार हुई और चल बसीं। उस समय तक उनकी कोई  संतान नहीं थी। इसलिए जल्द ही दूसरी शादी हो गयी।अजीत अब अतीत में गहरे उतराने लगा था। उसे याद आया कि ताई यानी अम्माजी स्वभाव से काफी तेज थीं।और हो भी क्यों ना। उनके पिताजी गाँव के चौधरी थे। चार-चार भाईयों की इकलौती बहन। तीन भाई ब्रिटिश रॉयल सेना में। रईसी और शान-शौकत से बचपन बीता। मायके में हर कोई हाथों हाथ लिए रहता। अतः स्वभाव से दबंग होती चली गईं। ससुराल भी वैसी मिली। ससुर बड़े काश्तकार। पति सरकारी महकमे में मुलाज़िम। ऊपर से  दूसरी पत्नी। दबंगई  के लिए ससुराल में भी उर्वर भूमि तैयार थी।  पर एक बाधा थी सास नाम की। सास भी  धाकड़ और समझदार। अम्माजी ने आते ही घर की डोर अपने हाथ में लेने की कोशिश की।सबसे पहले पति को मुट्ठी में करने की जुगत की ।ये बड़ा काम न था।जल्द ही इसमें सफल हो गयीं।  लेकिन पति में इतना साहस नहीं भर पाईं कि बेटा माँ के सामने खड़ा हो जाए। जल्द ही समझ में आ गया कि सास के रहते कुछ भी सम्भव नहीं है। तो अपने पैर पीछे खींच लिए। वे समझ गयीं थी अभी उनका समय नहीं आया है।इस समय का उपयोग उन्होंने दूसरे कामों के लिए किया। मसलन इस बीच उन्होंने आठ बच्चों को जन्म दिया। इनमें तीन बेटे थे जिससे घर में उनकी इज्जत में कुछ और इजाफ़ा हो गया। 
                    इसी बीच उनके देवर की शादी हो गयी। देवरानी बेचारी सीधी साधी थी। इसकी भी एक कहानी थी। देवर शादी नहीं करना चाहता था। इससे बचने के लिए उसने अपने को वैवाहिक धर्म को निभाने के नाक़ाबिल घोषित कर दिया। इस बात को अम्माजी ने बड़े अवसर के रूप में देखा।उन्होंने भाँप लिया कि ऐसे में देवर की बीवी की क्या स्थिति होगी। उन्हें मुफ्त की एक नौकरानी मिल जायेगी और साथ ही इस बात की भलाई कि देवर के ना चाहते हुए भी उन्होंने उसकी शादी करा दी। और निसंतान दंपत्ति की सारी की सारी संपत्ति तो लुभाव में मिल ही जाएगी। पर उनकी आखरी  इच्छा  पूरी नहीं हो सकी। देवरानी ने शादी के चार साल के अंदर एक बेटे और एक बेटी को जन्म दे दिया। पर और इच्छाएँ काफी हद तक पूरी हो गईं। क्योंकि देवरानी जेठानी की आज्ञा का पालन और उसकी सेवा करना अपना धर्म समझती। उस सीधी साधी देवरानी पर अम्माजी ने कुछ दबंगता और कुछ चिकनी चुपड़ी बातों से अपने पक्ष में गोलबंद कर लिया।सास के मुकाबिल अपना पक्ष मजबूत कर जंग लड़ने को तैयारी कर चुकी थी।
                      जल्द ही  सास से लड़ाई का बहाना भी उपस्थित हो गया। जाड़े का  मौसम था। गन्ने की कटाई चल रही थी,कोल्हू अलग से चल रहा था। बहत सारे मज़दूर लगे थे। ऐसे में काम काफी ज्यादा था। देवरानी अपने घर गयी हुई थी। अम्माजी ने सोचा मैं क्यों फसूँ काम में।अम्माजी को लगा कि उसे भी अपने मायके चले जाना चाहिए। अगले दिन ही उन्होंने सास से कहा "माँ जी मझे अम्मा बाबूजी की याद आरी है मैके जाने कू मन कररा"  सास ने कहा "ईभी तो काम भौत सै , ईभी त कुक्कर चली जागी। छोट्टी बहोडिया भी ना इभी । जिबजा काम हल्का हो जागा या छोट्टी आ जागी तो चली जईऐ"।अम्माजी को सास का मना करना अखर गया। उन्होंने अपनी सास से आर पार करने की ठान ली। अम्माजी  ने कहा "मझे तो भौत याद आरी। मन्ने तो  ईभी जाना। तम ना जान दोगी तो मैं रामबीर के बापू त पूछ के चली जाऊंगी " अपनी बहु के तेवर देख कर सास को भी गुस्सा आ गया। उसने कहा "मैं देक्खू कुक्कर जागी तू"।  अम्माजी ने अब कोई उत्तर नहीं दिया। वो समझ गयी थीं कि अब यहाँ से बात नहीं बनने वाली । लेकिन अम्माजी को अपने रूप रंग और चतुराई पर पूरा भरोसा था। अपने पति पर उनका पूरा प्रभाव था। रात में पति को जो समझाया हो सुबह अम्माजी पति सहित जाने को तैयार थी। बेटा माँ के पास गया और बोला "बेब्बे मैं इसे इसके घर छोड़्डन जा रा "। माँ समझ गयीं कि ये बेटा नहीं बहू बोल रही है। उसे अधिक बुरा इस बात का लगा कि बेटा उससे अनुमति नहीं ले रहा बल्कि उनको सूचित कर रहा है।माँ बोली "पर बेट्टे मन्ने तो उस्से कल ही मने कर दी ही" ।बेटा बोला "अरी रार ठानने सै के फैदा " मा को बेटे की बात अच्छी नहीं लगी। उसने बेटे से कहा "इसका मतबल तो यो है  म्हारी बात का कोई मायना ना है"। वो बोला "ना री माँ वा तो जुरूर ई जावैगी"।  इतने दिनों में अम्माजी अपने पति में इतना साहस भर चुकी थीं कि बेटा माँ का सामना कर सके और उसकी इच्छा के विरुद्ध जा सके।माँ ने कहा "जाणे कू तो चली जागी फेर म्हारे मरण के पाच्छे ही घर मै बडेगी "  इतना सुनते ही अम्माजी कमरे से बाहर आयीं और बोलीं "थारे होत्ते हुए मन्ने भी याँ आण का सोक ना है। इब्जा थारे रहत्ते इस घर में पेर ना धरूँ "
                  इतना कहकर अम्माजी अपना बक्सा उठा पति के साथ घर से निकल लीं। और सच ही उसके करीब छह  महीने बाद तभी  वापस आयीं जब उन्हें अपनी सास की मृत्यु की खबर मिली। सास को अपनी बहू का घर छोड़कर जाना और बेटे का बहू का साथ देने का जबरदस्त धक्का लगा। काम का बोझ,बढ़ती उम्र और ऊपर से कड़ाके की सर्दी। वे जल्द ही बिस्तर पर पड़ गयी और उसके बाद घर से उनकी अर्थी ही उठी।
           अपनी सास के मरने की खबर सुनते ही अम्माजी सुसराल वापस आ गयीं। अब उनके लिए मैदान साफ़ था। पूरी हुकूमत उनके हाथ में थी। सास परलोक सिधार ही गई थीं। ननदें ब्याह कर अपनी सुसराल में थी।देवरानी गाय सी सीधी।वैसे भी वो पति के साथ नौकरी पर रहती।देवर देवरानी साल में दो बार होली-दिवाली छुट्टी आते और कुछ दिन रह कर चले जाते।  जिंदगी बड़े मज़े से कट  रही थी। घर का सारा हिसाब उनके हाथ में था। पति नौकरी में व्यस्त और खेती नौकरों के हवाले। पैसा ही पैसा हाथ में। जो मन आता करतीं। हर दूसरे दिन बाज़ार करतीं। बाकी दिन गाँव भर में हांडती फिरती ।
            सबसे बड़ा बेटा अब सयाना हो चला था। पढ़ाई लिखाई से कोई खास मतलब था नहीं। किसी तरह गाड़ी दसवीं कक्षा तक पहुँची पर वहाँ ऐसी अटकी कि नक़ल और धन के धक्के से भी आगे नहीं बढ़ी तो नहीं ही बढ़  सकी। अलबत्ता माँ के लाड़ प्यार ने बहुत सारे दुर्गुणों को फलने फूलने का पूरा मौक़ा दे दिया था। बेटा जवान हो रहा था। अब लड़कियों पर उसकी नज़र जाने लगी थी। कोई लड़की मिलती तो ठीक नहीं तो खेतों में घास काटने निकली घसियारी  तो काम चलाने के लिए सर्वसुलभ थी हीं। क्योंकि गॉव में उन्हें रहना था और अपनी जीविका चलानी थी तो दबंगों की इच्छा पूर्ति करनी ही थी। इधर माँ और बेटे की शानदार जुगलबंदी थी। दोनों एक दूसरे की आज़ादी पर लगाम लगा सकते थे। माँ उसकी वाहियातों को बाप के सामने ला सकती थी और बेटा उस हिसाब पर  प्रश्न कर सकता था जिस पर माँ का सर्वाधिकार था। माँ  को पैसों  की अबाध आपूर्ति होती रहती और वे उसकी अय्याशियों पर पर्दा डालती रहती। बदले में बेटा उसके घर के हिसाब के नियंत्रण पर किसी तरह का सवाल न उठाता। इस निरंकुश सत्ता के बीच अभी भी एक बाधा  बाकी थी जो माँ बेटे के दिल में शूल सी चुभती थी। देवर-देवरानी साल में दो बार गाँव आते।  जब भी आते उनकी शांत जिंदगी में मानो उथल पुथल मचा देते जैसे किसी तालाब के स्थिर पानी में कोई  कंकड़ फेंक दे। अम्मा जी को ये बुरा लगता। उनकी आज़ादी में खलल पड़ता। घूमना फिरना कम हो जाता या फ़िर बंद हो जाता। गाँव द्वारे बैठकी कम हो जाती। रोज़ रोज़ का शहर जाना बंद हो जाता।कारण देवर काफी गुस्से वाला था और सब उस से डरते थे।  सबसे अधिक तो इस बात का डर कि पता नहीं क्या पूछ ले और क्या अपने साथ ले जाने को कह दे।सौ बीघे धरती में हालांकि उनका आधे का हिस्सा था। पर इतने समय से जोत बो रहे थे बिना कुछ बाँटे कि कुछ देना तो दूर साल में तीज त्यौहार होली दिवाली दो बार बच्चों सहित आ जाते तो उसमें भी परेशानी होने लगी थी।
                                अचानक एक ऐसी घटना घटी कि देवर वाला काँटा भी उनकी राह से दूर हो गया। गर्मियों की छुट्टी में देवर सपरिवार गाँव आया हुआ था। उन दिनों एक दूर के रिश्तेदार का लड़का  भी वहीं रह रहा था। वो पास ही किसी फैक्ट्री में काम करता था। उस रात देवरानी का भाई उनसे मिलने आया था। सारे पुरुष घेर में सोये थे। अचानक सुबह होते  रिश्तेदार का लड़का चीखने चिल्लाने लगा कि उसकी अंटी से रात को उसके सारे पैसे किसी ने निकाल लिए जो उसे पगार के रूप में मिले थे। जब देवर को ये बात पता  चली तो समझ में आ गया कि ये किसकी कारस्तानी है। देवर अपनी भाभी यानी अम्माजी की आदतों से अच्छी तरह वाकिफ था। वो जानता कि वो बड़े भाई की जेब पर अक्सर हाथ साफ़ करती रही हैं । दूकान पर से भी कुछ इधर उधर करती आई  हैं और दूसरे के घरों से भी। यहां तक की खेत खलिहान में मौक़ा पाकर वहां भी कुछ गुल खिला देंती। ये उनकी आदत में शुमार हो गया था। वे खुद बड़े घर से थीं और ससुराल भी बड़ी थीं। लेकिन आदत तो आदत है। देवर ने घर में  देखा दाखा और जब एक अलमारी में पैसे रखे देखे तो भतीजे से बोले "पैसे कहीं नहीं गए हैं अलमारी में हैं। मेहमान के सामने बात खुले अच्छा  नहीं होगा। मैं मेहमान को छोड़ने जा रहा हूँ। शाम तक लौटूँगा। लडके के पैसे वापस करा देना"। ये कहकर देवर अपने साले के साथ शहर चला गया। अम्माजी को ये बात पता चल गयी। देवर के जाते ही अम्माजी ने पैसे वहां से हटा दिए। बेटा खुद भी अपनी माँ की आदत जानता था। जब बेटे ने अलमारी में देखा तो उसे पैसे नहीं मिले, मिलने भी नहीं थे। इस बीच उस लडके जिसके पिसे निकले थे,ने भी खूब शोर मचाया तो दो चार पास पड़ोस के लोग भी इकठ्ठे हो गए। देवर सबके निशाने पर था। एक तो वो लिख पढ़ कर अच्छी नौकरी पर था। फिर खरी खरी कहने वाला भी था। वैसे भी शहर में रहने वाला गांव वालों के लिए पराया ही हो जाता है। तभी किसी ने कहा "परेसान होने की बात ना है। गाम में सिद्ध सयाना है उसतै बुज्झा ले लो। वो सारी बात खोल दैगा"। गांव का ये सिद्ध सयाना दरअसल एक साधुनुमा भिखारी था जो पहले कभी कभी गांव में दान दक्षिणा लेने आता और गांव के लोगों को अक्सर उनके भविष्य के बारे में कुछ ऐसा बता देता जो उनके कष्टप्रद जीवन को थोड़ी बहुत राहत देने वाला होता। कभी  कभी झाड़ फूंक भी कर देता। गाँव वालों के लिए डाक्टर को दिखाना बड़ी लग्जरी था जिसे वे अफोर्ड कर ही नहीं सकते थे। ऐसे में उसके लिए अपनी जीविका चलाने के लिए एक बढ़िया रोज़गार स्थापित करने के लिए उपजाऊ  भूमि तैयार थी। धीरे धीरे उसने गाँव में ही घर बना लिया। अब वो गाँव वालों के लिए हर मर्ज़ की दवा था। डॉक्टर से लेकर ज्योतिषाचार्य तक सब कुछ। 'हल्दी लगे ना फिटकरी रंग चोखा' की तर्ज़ पर उसका रोज़गार बढ़िया चल रहा था। गाँव के दो चार निठल्ले उसके चेले बन गए थे जो उसके पास दिन भर पड़े रहते और चिलम पीते रहते। बदले में वे सारे गाँव की गतिविधियों की जानकारी उसे देते रहते जिन के दम  पर वो लोगों को जानकारी देकर गाँव वालों को चमत्कृत करता और अपना उल्लू सीधा। जब अम्माजी उस लड़के, अपने बेटे और गाँव के कुछ और लोगों के साथ सिद्ध सयाने के पास पहुँची तो इस बात की खबर उसके चेलों चपाटों द्वारा पहले ही उसके पास पहुँच चुकी थी। उसने अम्माजी से आने का कारण पूछा। अम्माजी ने रोने का नाटक किया और बोली "म्हारी तो सारी बिरादरी में ओर गाम गमांड में नाक काट जागी। यो म्हारे रिस्तेदार का छोरा म्हारे घर में रहवै है इसके पीसे किसी नै काढ़ लिए। इब हम इसके अम्मा बाप्पू नै  के जवाब देंगे"। सयाने ने बड़ी गंभीरता से अम्माजी की बात सुनी और बोला "तू चिता ना करै माई। मैं इबी देक्खूँ यो कुकरम किन्ने करा " . इसके बाद उसने आँख बंद की ,कुछ बुदबुदाया। इस बीच सन्नाटा पसर गया। कुछ देर बाद उसने आँखें खोली और उपस्थित लोगो पर एक सरसरी निगाह डाली और बोला "माए पता चल गिया।म्हारे हिसाब सै थारे घर कल रात एक पाहवाना आरा"। जितने लोग वहाँ थे सब खुसुर पुसुर करने लगे। अम्माजी बोली "हाँज्जी महाराज म्हारी दुरानी का भाई आ रा था"। सयाना बोला "बस थारे घर रात जो पाहवना  आया था यो उसी का काम है"। लोगों के बीच से शोर सा उभरा। लोगों में खुसुर पुसुर तेज हो गई और दो एक लोग देवरानी के भाई को भला बुरा भी कहने लगे। अम्माजी का काम हो चुका था। ये खबर देवरानी तक पहुँची तो वो रोने लगी।शाम को पति के आने तक उसका रो रो कर बुरा हाल हो चुका था। जब देवर ने पूरे घर के सामने अलमारी में पैसे होने की बात की तो किसी ने उसका विश्वास नहीं किया। उसके बाद घर में खूब लड़ाई हुई। अगले दिन सुबह ही देवर अपने परिवार को लेकर नौकरी पर चला गया। उसमें इतनी गैरत थी कि उसने कुछ भी बांटा नहीं। अगले कई वर्षों तक उसने गाँव का रूख नहीं किया। अम्माजी और उनके बेटे के मन की मुराद पूरी हो चुकी थी। उनकी निरंकुशता की राह की अंतिम बाधा हट चुकी थी।
           अब ज़िंदगी मज़े में कट रही थी। कई साल इसी तरह कट गए। ये दिन शायद उनकी ज़िंदगी के सबसे खुशियों भरे दिन थे। लेकिन समय एक सा नहीं रहता। माँ थीं तो सास भी बनना ही था। देर सबेर बेटे की शादी होनी ही थी। आखिर वो दिन आ ही गया। बेटे की शादी तय हो गई। एक सुन्दर लड़की से विवाह तय हो गया और नियत दिन शादी भी हो गयी। बहु यानी अम्माजी अब सास बन गयी। ये उनके जीवन की बड़ी घटना थी। शायद उनके जीवन की दशा बदलनी थी।जो बोया था उसे काटने का समय आ गया था। साल दो साल मज़े से बीता।हनीमून काल तेजी से बीत गया। किसी को आभास तक नहीं हुआ। बहु ने घर और घरवालों की हिस्ट्री ज्योग्राफी सभी अच्छी तरह से जान ली थी। बहु के मन में भी अम्माजी वाली महत्वाकांक्षाएं जाग चुकी थी। अब बहु उसी राह पर चल चुकी थी। बहु को अपने पति पर जादू चलाने में कोई अड़चन ना थी। बहु सुन्दर होने के साथ साथ चतुर सयानी भी थी। सबसे पहले उसने पति पर लगाम कसी। उसे इधर उधर मुँह मारने से रोका और जब पति उसके रंग में रंग गया तो उसने सास के तरफ रुख किया। पर माँ ने भी बेटे पर अपना नियंत्रण बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी। नियंत्रण की बडी कुंजी उनके हाथ में जो थी। घर का हिसाब-किताब अभी  भी उनके हाथ में था।  सास बहु के बीच बेटे को लेकर लुका छिपी चलती रही। इस अदृश्य अबोले संघर्ष में कई वर्ष बीत गए। दोनों तरफ से पैंतरेबाज़ी चलती रही। बेटा दोनों के बीच में मज़े करता रहा। वो  स्थिति का पूरा फायदा लेना जानता था। उसने दोनों के बीच संतुलन बनाये रखा। आर्थिक नियंत्रण माँ के हाथ में बरकरार रहा। लेकिन एक ना एक दिन ये संतुलन बिगड़ना ही था। पांच साल के इस अंतराल में बहू भी सास की तरह दो बेटों और दो बेटियों को जन्म दे चुकी थी और अब इस कार्य से अपने को फारिग समझ लिया था। अब उसने अपनी सास की ओर अधिक ध्यान देने का मन बना उसे सत्ताच्युत करने का फैसला कर लिया और अपने मिशन को पूरा  करने में लग गयी। उसने पति को ये समझाया कि अब बच्चे बड़े हो रहे हैं। अधिक पैसों की आवश्यकता होगी। दूसरी और छोटे भाई भी जवान हो रहे हैं। कल को  शादी होगी,बच्चे होंगे उनकी ज़रूरतें बढ़ेंगी,उससे पहले अपनी स्थिति तो ठीक कर लो। पति को बात समझ में आई। उसे समझ में आ गयी कि माँ से घर का हिसाब किताब अपने हाथ में लेने का समय आ गया है। बेटे ने एक दिन मौक़ा कर माँ से सीधे सीधे कहा "अरी अम्मा मन्ने लगै के यो घराँ का हिसाब अपणे हाथ मै लेल्लूं,इसके बिना खेत्ती के काम मै घनी परेशान्नी होवै है "। माँ समझ गयी बहु ने अपनी चाल चल दी है। उसने पलट कर पूछा "परेशान्नी कुक्कर होवै  है तझे पीसे नी मिलते के " "अरी या बात ना है इब पीसे बिन्क में आंग्गे वां मै तुझे कां काँ ले जात्ता फिरूंगा" "मै तो तेरे साथ कहीं भी जान्ने कू तैयार हूँ " "अरी तू समझै कर। मैं तुझे कहाँ कहाँ ढोत्ता फिरूँगा" बेटे कहा । माँ अच्छी तरह समझ रही थी कि अब उसकी सत्ता में सेंध लगने वाली है। उसने आखरी प्रयास किया "मेरे और बेट्टे बेट्टी भी तो हैं मझे उनकी देखबाल  भी तो करणी, तू अर तेरी लुगाई थोड़े ई कर सकै"। माँ ने अपनी सत्ता बचाने का  पूरा प्रयास किया और  आखरी दाँव खेला। माँ  हिसाब किताब अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी क्योंकि वही उसकी सत्ता का आधार था। उधर बेटा समझ चुका था कि माँ  आसानी से हार नहीं  वाली तो उसने सीधे ब्रह्मास्त्र चला दिया "इसका मतबल यो है कि तन्ने म्हारे पे बिस्बास णा है कि मै  अपने भाई बहनां  की देखभाल कर सकूँ,अर जिबजा थार कूँ म्हार पे बिस्बास ही ना है तो  साथ रहने का कोई फ़ादा ही ना है। तू मन्ने अलग  कर दे" धमकी का तुरंत असर हुआ। वो जानती थीं बँटवारे का घर की स्थिति और विशेष रूप से आर्थिक स्थिति पर क्या असर पड़ता है। स्वयं उनके मायका का उदाहरण उनके सामने था। भाइयों में ज़मीन का जब से बंटवारा हुआ उसके बाद से वे अर्श से फर्श पर आ चुके थे। हालांकि तीन भाई फ़ौज में रह चुके थे और आर्थिक रूप से संपन्न थे। इसके  बावजूद जल्द ही  वे संपन्नता से विपन्नता की स्थिति में आ गए। और ये उनके हाथ में हिसाब किताब रहने का ही लाभ था कि वे गाहे बघाहे अपने भाईयों की आर्थिक मदद बिना किसी रोक टोक  के करती रहतीं थी। सच तो ये है कि चाहे कितनी बड़ी जोत हो बंटवारे के बाद वो आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं  रह जाती।  ये बात वे अच्छी तरह से जानती  थीं। फिर गाँव गमांड में परिवार का नाम था। बंटवारे से परिवार के नाम पर आँच जो आती। यही सोच कर  माँ घर के हिसाब किताब की बागडोर  बेटे को सौपने को राजी हो गई लेकिन इस आश्वासन के साथ कि उसकी ज़रूरतें पूरी करने के लिए उसे पर्याप्त मात्रा में खर्चा पानी मिलता रहेगा। इस तरह आर्थिक सत्ता माँ से वाया बेटा बहु के पास पहुँच गई। सत्ता परिवर्तन बहुत ही सहज और शांतिपूर्वक ढंग से हो चुका था। माँ-बेटे के बल्कि कहें तो सास-बहु के इस द्वन्द में बाप मूक दर्शक था जिसे इस बात से कोई मतलब नहीं था कि सत्ता किसके हाथ में रहती है। वो सुबह नौकरी पर निकल जाता और देर शाम घर लौटता।
    बहु ने घर को अब अपने तरीके से चलाना शुरू कर  दिया था  जिसमें सास की कोई जगह नहीं थी। अम्माजी के हाथ से सत्ता पूरी तरह से हाथ से फिसलती जा रही थी बल्कि फिसल चुकी थी। उन्हें अपने बिंदी टीके और सैर सपाटे और बाकी खर्चों के लिए जितने पैसों की जरूरत थी उसमें कटौती होने लगी थी। भाईयों की  प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष मदद भी संभव नहीं कर पा रहीं थीं। और फिर जिसने सत्ता का स्वाद एक बार चख लिया उसकी लत छूटती नहीं। अम्माजी के हाथ से हिसाब किताब जाने से उन्हें परेशानी महसूस  होने लगी थी।उन्हें जल्द ही लगने लगा कि हिसाब-किताब बेटे के हाथों सौंप कर उन्होंने गलती की। पर जो बीत गयी वो बात गयी। अब उसका हाथ आना नामुमकिन था। लेकिन उन्हें एक आशा की किरण दिखाई दी। इस किरण का झरोखा था उनके बेटे की अलग होने की धमकी। उन्हें समझ में आ गया था कि हिसाब किताब अपने हाथ लेने का इससे बेहतर उपाय कोई दूसरा नहीं हो सकता। अब उन्होंने पति और अपने दूसरे बेटे के जो अब जवान हो रहा था,बड़े भाई और उसकी बीबी के खिलाफ कान भरने शुरू किये।उनका प्रयास रंग लाया।इस काम में चतुर सयानी जो ठहरीं।जल्द ही घर में बड़ा बेटा और बहु  विलेन बन गए।  कलह बढ़ती जा रही थी। जल्द ही बंटवारे की नौबत आ गयी। पिता ने उसको अपने हिस्से की एक तिहाई ज़मीन देकर अलग कर दिया। पर बेटे ने कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं। उसकी नज़र चचा की आधी ज़मीन पर लगी थी। वो सीधे चचा के पास गया। अपने पहले के व्यवहार की माफी माँगी। माँ बाप के खिलाफ भड़काया और उनके हिस्से की ज़मीन की बँटाई देने का वादा किया और चचा को अपने पक्ष में कर लिया। चाचा ने गाँव जाकर अपनी ज़मीन बाँट ली और भतीजे को दे दी।
            अब अम्माजी अपने पति के हिस्से की दो तिहाई ज़मीन की मालकिन बन बैठी। हिसाब-किताब उनके हाथ फिर से आ गया था। लेकिन अब वो पहले जैसी बात नहीं रह गयी थी। ज़मीन का एक बड़ा हिस्स्सा उनके हाथ से जाता रहा था। दूसरा लड़का भी जवान हो गया था। अब उन्हें उसकी शादी की चिंता सताने लगी। आखिर घर का काम करने वाला भी तो कोई चाहिए था। उन्होंने तो कभी करके खाया नहीं था। एक सुन्दर और आठवीं पास बहु के कारनामे वे देख चुकीं थी। उन्होंने  मन में एक नया फार्मूला खोजा बहु को काबू में रखने का। इस बार ऐसी बहु लाओ जो ना पढ़ी लिखी हो ना सुन्दर हो। सामाजिक हायार्की में मध्यम पायदान पर आने वाली खेतिहर जातियों में ऐसी लड़की मिलना  कौन  बड़ी बात थी। तुरंत ही ऐसी लड़की मिल गई।जल्दी ही शादी भी हो गयी।नई बहु के आने के बाद कुछ दिन तो सब ठीक रहा पर जल्द ही समस्याएँ सामने आकर खड़ी हो गई। नई बहु पढ़ी लिखी तो थी नहीं। स्कूल का मुँह कभी देखा नहीं था। मायके में सुबह ही ढोर डंगर चराने जाती या फिर खेत पर काम करने। घर के कामों में मन नहीं लगता।  कुछ ही दिनों में वो घर के काम से ऊब गई। घर उसे कैदखाना लगने लगा। उसका मन खेतों पर जाने को मचलने लगा। अम्माजी अधिक दिनों तक उसे घर पर रोक नहीं सकी। वो बेरोकटोक खेतों में जाने लगी। अब घर की जिम्मेदारी अम्माजी पर आन पड़ी। अम्माजी ने घर का काम किया नहीं था। पर अब समय बदल गया था। ज़मीन का बंटवारा हो चुका था। बड़ा बेटा चाचा के हिस्से  समेत अपना हिस्सा लेकर अलग हो चुका था। घर पर नौकर नहीं रख सकती थीं। हालात से समझौता करना पड़ा। हिसाब किताब हाथ में होते हुए भी पहले जैसी बात नहीं थी। पर बहु से निभ नही सकी। सास ने पहले कोशिश की कि बहु को ही घर से निकाल दिया जाए। उस पर तमाम तरह की तोहमतें लगाने लगीं। बेटा अभी उनके कहने में था। माँ अक्सर बेटे के कान भरती और बेटा अपनी मर्दानगी दिखाते हुए बीवी को जब तब पीटता। पर जब उसे छोड़ने की बात आती तो बेटा चुप लगा जाता। धीरे धीरे अम्माजी की इस बेटे से भी दूरी हो गईं क्योंकि वो उनके कहने से अपनी बीवी को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। कुछ दिनों बाद बिचला बेटा भी अलग हो गया। अब तीसरे बेटे का सहारा बचा था। इस आस में उसकी शादी की शायद ये बहु कुछ सेवा करे।
                          इसी बीच अम्माजी के पति की मृत्यु हो गई। वैसे तो परिवार में उनका कोई रोल नहीं था लेकिन वे अम्माजी का बड़ा सम्बल थे। अम्माजी पर ये बड़ा वज्राघात था। उनका बड़ा सहारा था उनका पति। समाज में विशेष रूप से ग्रामीण समाज में पति की क्या अहमियत होती है ये बखूबी जानती थीं। ये  बात छोटी बहु भी अच्छी तरह समझती थी। उसे भी समझ में आ गया कि सास अब कमजोर पड़ गयी हैं और अब उसने भी अपने रंग दिखने शुरू कर दिए। आये दिन काम और हिसाब किताब को लेकर सास बहु में तकरार होने लगी। शादी होने के दो साल बाद छोटी बहु ने भी ऐलान कर दिया कि वो अब सास के साथ नहीं रह सकती। ये ऐलान सास के लिए बड़ा संकट लेकर आया। बड़ा संकट इसलिए था कि उनके पति नहीं रहे थे और अब तीनों  बेटों बल्कि यों कहें कि बहुओं ने उन्हें अपने पास रखने से मना कर दिया था। अब जाएँ तो कहाँ जाएं। तीनों बेटों ने सलाह मशविरा किया अपनी अपनी पत्नियों से राय ली कि अम्माजी का क्या किया जाए। छोटी दोनों बहुओं ने अपने पास रखने से एकदम साफ़ मना कर दिया। आखिर लोक लाज से बड़ी बहु ने अपने पास रखने की हामी भर दी।
           अजीत के दिमाग में पूरा घटनाक्रम चलचित्र की भांति चल रहा था।  अचानक वो पिक्चर रूक गयी। उसने बहुत पहले ही गाँव आना छोड़ दिया था। उसे नहीं पता था आगे अम्माजी का क्या हुआ। उसे  इतना याद था कि वो जब भी गाँव जाता अम्माजी बड़े प्यार से उससे मिलती। देर तक उससे अपने दुःख सुख की बतियाती। माँ ने उसके विचारों का क्रम तोड़ दिया। वे बड़बड़ा रहीं थीं "इससे अच्छा तो भगवान उसे ठा लै। बिचारी की घनी दुर्गति हो री है। अर भगवान ऐसी औलाद तो दुस्मन कू भी ना दै।"उसने अपनी माँ से पूछा कि ऐसा क्या हुआ अम्माजी के साथ। उसकी माँ बताने लगी और वो एक बार फिर अतीत में पहुँच गया ।जो पिक्चर अचानक रूक गयी थी वो मानो मध्यांतर के बाद फिर शुरू हो गई थी। 
             ये वो समय था जब शहरों  का तेजी से विकास हो रहा था।  प्राइवेट बिल्डर्स किसानों की ज़मीनें औने पौने दामों में खरीद रहे थे। शहरी विकास प्राधिकरण भी इसमें  बराबर के भागीदार बन गए थे।वे बड़े पूंजीपतियों के लिए पब्लिक इंटरेस्ट के नाम पर बहुत ही कम दामों में किसानों की ज़मीन अधिग्रहीत करते और फिर पूंजीपतियों को शहर और देश का विकास करने को दे देते। देश और शहर का जो भी विकास होता या नहीं होता पर पूंजीपति और प्राधिकरण के अफसर कर्मचारियों का खूब विकास हो रहा था और वे अपनी गरीबी दूर कर रहे थे । गाँव शहर से दूर नहीं था। गाँव की ज़मीन पर बड़े बिल्डर्स सहित सरकारी एजेंसी की आँख भी लगी थी। जल्द ही गाँव की ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया गया। हालांकि अधिग्रहण में दिया गया मुआवजा बहुत ही कम था। सही कहें तो औने पौने दामों में किसानों की ज़मीन ले ली गयी थी। इस घटना ने अम्माजी के संकट को कुछ दिनों के लिए टाल दिया। हुआ यों कि ज़मीन का मुआवज़ा उन्हें मिला जिनके नाम ज़मीन थी। अम्माजी के पति के नाम ज़मीन वाला मुआवजा तो तीनों बेटों में बँट गया। पर उसी समय ये भी पता चला कि कुछ ज़मीन अम्माजी के ससुर ने ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून लागू हो जाने के बाद सीलिंग में ज़मीन जाने से बचाने के लिए अपनी  बहुओं के नाम भी करा दी थी। अम्माजी के नाम जो ज़मीन थी उसके हिसाब से उन्हें अच्छी खासी रकम मिलनी थी। जल्द ही पूरे गाँव सहित अम्माजी और तीनों बेटों के बैंक खातों में भरपूर पैसे आ गए। 
              मुआवजा भले ही काम मिला हो और उस धनराशी से भले ही उसकी आधी भी ज़मीन वे ना खरीद सकते हों जितनी ज़मीन उनसे ली गयी थी पर इतनी एकमुश्त धनराशी ज्यादातर लोगों ने नहीं देखी थी। इतने पैसों को संभाल पाना किसान के बूते की बात दूर की कौड़ी थी। तीनों भाईयों में से कोई भी ऐसा नहीं था जो मुआवज़े में मिले पैसों का सदुपयोग कर पाता । ये विडंबना केवल उन्हीं की नहीं बल्कि पूरे गाँव की थी। मुआवजा मिलते ही सारा गाँव शाम ढलते ही शराब के नशे में डूब जाता और देर रात तक कुत्तों के भोंकने की आवाज़ों के साथ गलियों और चीख चिल्लाहट फ़िज़ा में तैरती रहती। हर घर में दो तीन हीरो होंडा मोटरसाइकिल और कुछ घरों में नयी और सेकंड हैंड कारें भी पदार्पण कर गई थीं। गाँव के सारे मकान पक्के घरों में तब्दील हो चुके थे। जिन गलियों में कभी दिन भर हल बैल झोट्टा बुग्गी आते जाते वहां अब मोटर साइकिल और कार फर्राटा भरती और जिन चौपालों पर देर रात तक गाँव वाले मिलकर अपने सुख दुःख की बातें करते या  रागनी गाई जाती वे अब दारु की गंध से गंधाते और माँ बहन की ऐसी तैसी करते जुमलों से गूंजती रहती ।
      कितना भी धन मिल जाए यदि उसे बढ़ाया ना जाए और आप बैठे बैठे खाना चाहे तो वो कितने दिन चल सकता था। मुआवजे में मिले पैसे  काफी थे यदि सदुपयोग होता तो। पर अम्माजी के तीनों बेटे भी इसके अपवाद नहीं बन सके। जब तक अंटी में मुआवज़े के पैसे रहे तब तक तो ठीक ठाक चलता रहा। लड़के अपने में मस्त और अम्माजी अपने में। अब अम्माजी जी भी लाखों की मालकिन थीं। बैंक में जमा पैसों के ब्याज़ से उनका खर्चा अच्छे से चल रहा था। वक़्त ज़रुरत पर अपने बेटों को भी थोड़ा बहुत देती रहतीं। अब बेटों की जमापूँजी ख़त्म होने लगी थी और जैसे ही तीनों भाईयों के पैसे ख़त्म होने लगे तो उन्हें अम्माजी की याद आने लगी। अब अम्माजी के प्रति बेटों और बहुओं के व्यवहार में परिवर्तन आने लगा।वे फिर से कुछ कुछ पहले जैसा अम्माजी का ध्यान रखने लगे। एक बार फिर अम्माजी की बन आई थी।पुराने दिन तो नहीं लौटने थे पर कुछ तो था ही।ये शायद दिए के बुझने से पहले की तेज रोशनी थी।आखिर अम्माजी लाखों की मालकिन जो थीं। तीनों एक दूसरे पर नज़र रखे थे कि कोई अकेला पैसा न हड़प ले। कुछ समय और ऐसे ही ग़ुज़र गया। जैसे जैसे लड़कों की जमा पूंजी ख़त्म होने लगी वैसे वैसे तीनों में अम्माजी के पैसे कब्जाने को लेकर बैचैनी बढ़ने लगी। अंततः तीनों में समझौता हो गया कि अम्माजी के पैसों का बँटवारा कर लिया जाए।  काम को अंजाम देने का फैसला हुआ और एक दिन मौक़ा देख कर तीनों भाई माँ के पास इकट्ठा हुए। बड़ा बोला "अम्मा तझे तो पता ही है म्हारी हालत का"। बिचले ने बात आगे बढाई "लोंडी  लारी भी बड्डी होत्ती जारी। इनके हाथां न भी पीले करने" तीसरे ने बात आगे बढ़ाई "अर अम्मा री तू यूँ भी तो सोच बैंक मै पड्डे पड्डे इन पीसों का के होगा। तेरी औलाद भुक्खी मरे अर पीसे बिंक मै सड़े ! ऐसे पीसे किस काम के"। बिचला बोला " वे सारे पीसे तो खत्म हो गिए। इब तू मदद करैगी तो इन पीसां सै कुछ काम धंधा सुरु करकै अपने दिन सुधार लेंगे "। ये अम्माजी के लिए कठिन परीक्षा की घड़ी थी। वे जानती थी कि ये जमा पूँजी ही उनके संकट का सबसे बड़ा सहारा है। इसे देने का मतलब अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है। पर बच्चों की ममता के आगे वे बेबस थी। वे ये भी जानती थी. या उनकी विवशता थी कि बुढ़ापे में उनकी देखभाल करने वाले इन बेटों के सिवाय और कोई नहीं था। उन्हें  रास्ता  सूझा। फिर वे माँ थी। उनसे अपने बेटों की दुर्दशा देखी नहीं जा  गयी। उन्होंने अपनी सारी जमा पूंजी तीनों बेटों में बाँट दी। अम्माजी जी अपने पैसे बाँट कर खुश थी कि उन्होंने अपना फ़र्ज़ निभाया। वे जानती थी कि पुराना वैभव मौज मस्ती तो लौटने से रही। आगे की उम्र सही सलामत कट जाए यही बहुत है। लेकिन जैसा सोचा हो वैसा ही हो ज़रूरी तो नहीं। अम्माजी के साथ ऐसा ही हुआ। उनका सोचा नहीं ही हुआ। अम्माजी से पैसे मिलने के कुछ दिनों बाद तक तो सब ठीक ठाक रहा। लेकिन जल्द ही वे बोझ लगने लगी।  पैसा देने के समय वे बड़े बेटे के पास रह रहीं थी।क्योंकि उन्होंने बेटों की मुश्किल समय में मदद की थी तो वे  अपना विशेष ध्यान चाहती थीं। पर ऐसा हुआ नहीं। धीरे धीरे एक बार फिर उनकी उपेक्षा होने लगी। अपनी उपेक्षा से वे मर्माहत होती। वे बहु को सुना कर कहती "बुरे समय में अपने ही काम आवै  हैं।माँ तो माँ ही होवै है। समय पड़े पै माँ ने ही मदद करी"। बहु सुनकर अनसुना कर देती। अम्माजी बड़बड़ाती रहती "बुड्ढे माँ बाप की सेवा बालकां का धरम होवै है"। जब ज्यादा कहती तो बहु को कोई उत्तर न सूझता। वो कह देती "दो और भी तो बेट्टे हैं थारे उनके पास रहन लाग्गो।" अब उनके खर्चों में कटौती होने लगी। पैसा तो उन्हें कोई देता ही नहीं था । अब उनका खाने पीने का भी ध्यान रखना उनके लिए मुश्किल होने लगा। खाना वक्त बेवक्त मिलने लगा। बीमार होती तो दवा दारु का इंतज़ाम  कोई ना करता।  एक दिन अम्माजी  ने बेटे से शिकायत की "लाल्ला मेरे पे तो कोई ध्यान ही ना देवै है। तू मुझे किसी डाग्डर नै दिखा दे" वो झल्लाकर बोला "कुछ ना होरा तम्हे। कहीं ना मर री" पीछे से बहु भी बोली "ये जल्दी ना मरने की। ये तो मेरी छात्ती  मूंग दलेंगी।  परेशान कर कै रख रख्खा"इसके बाद बहुत देर तक सास बहु में मुँहजोरी होती रही। अम्माजी बहुत आहत हो गई। वे बहुत देर अकेली रोती रहीं।  इस बीच गाँव की दो तीन औरतें आई। उन्होंने दिलासा दी। अम्माजी ने मन ही मन तय किया कि वे अब बड़े बेटे के पास नहीं रहेंगी । अब उनकी आस दोनों छोटे बेटों पर टिक गई। सबसे छोटा बेटा बिना पत्नी के कोई काम नहीं  करता था। उसने अम्माजी को साथ रखने से एकदम मना कर दिया। बीचवाली बहु भी रखना नहीं चाहती थी। उनकी एक बार फिर वही स्थिति हो गयी जो ज़मीन के मुआवज़ा मिलने से पहले हो गयी थी। बहुत हील हुज़्ज़त और रिश्तेदारों के हस्तक्षेप के बाद और थोड़ी लोकलाज के डर  से बिचले  बेटे ने रखने के लिए हामी भर दी।इसमें बहु की रज़ामंदी नहीं थी। खैर अम्माजी को बड़े के पास नहीं रहना था। अपना सामान लेकर बिचले बेटे के यहाँ आ गई।लेकिन यहाँ भी उनकी स्थिति में कोई अंतर नहीं आया। बहु नहीं चाहती थी कि सास उसके पास रहे। फिर अब अम्माजी को पास रखने का कोई कारण नहीं रह गया था। सारे सम्बन्ध अब आर्थिक नफे नुक्सान पर आकर टिक गए थे। अम्माजी अब वृद्ध हो चली थीं।अब उनमें पहले जैसी ताक़त नहीं रह गई थी। बहुओं को लगने लगा था कि अब उनसे निपटना आसान है। यहाँ भी आये दिन सास-बहु में तकरार होती रहती। सास अक्सर बेटे से शिकायत करती "बहोड़िया मेर सू उल्टी सिद्धि बात करै है। ठीक सै खान कू भी ना देत्ती " और बेटा जब लगाकर आता तो माँ के लाड में आकर बीबी पर लात घूसे बरसाता। ऐसा वो पहले से ही करता आ रहा था। इसका बीवी पर अब कोई असर नहीं होता। बीवी ने इसे अपनी नियति  मान लिया था। वो दुगनी ताकत से सास को गाली देती। इधर तीनों बेटों की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी। बेटे तीनों अपनी हालत सुधारने में लग गए। इस चक्कर में वे भूल गए घर में क्या हो रहा है।अम्माजी शुरू से ही खाने की शौकीन रहीं थीं। जब तक घर की मालकिन रही तीन टाइम बिना पानी वाला निखालिस दूध पीतीं रही थी। ये उस खाने का नतीजा था कि आज भी भली चंगी थी। लेकिन समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। अम्माजी के दिन भी बदल रहे थे जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था शरीर उनका साथ छोड़ता जा रहा था। बहु उनको ठीक से खाने को नहीं देतीं। नौबत यहां तक आ गई कि अब अम्माजी अक्सर जहां कहीं जाती वहीं परोक्ष अपरोक्ष रूप से कुछ खाने को माँग लेती। अम्माजी का ध्यान रखना अब बिलकुल बंद कर दिया था। अब वे अक्सर भूखी रहने लगी थीं।और प्रायः अपनी देवरानी के घर जा बैठतीं।  अब उनका वही एकमात्र ठिकाना रह गया था। देवरानी अभी पूरी शिद्दत के साथ रिश्ता निभा रही थी। जबकि वो उनके द्वारा सबसे ज्यादा सताई गयी थी। लेकिन जब से देवर सेवानिवृत होकर वापस गाँव आया है तब से ही देवरानी उनकी काफी देखभाल करती रही है। वो उनकी हालत देख कर अक्सर दुखी हो जाती और उनकी बहुओं से कहती "तम्हें तन्नक सी भी सरम लिहाज ना रही। उनकी यो दुर्गति तमनै कर रक्खी है। थारे भी औलाद है तम भी सास बनोगी। थारे साथ भी ऐसा हो सके है"।पर बहुओं को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। उस दिन तो हद हो गई। उस दिन जब अम्माजी देवरानी के घर पहुँची तो देवरानी ने अम्माजी से कहा "बीवजी इब तो झाड़ू बर्तन का काम न होवै है। कोई कामवाली मिले तो बता दियो'। इतना सुनते ही अम्माजी ने कहा "तेरा काम मै कर दे करूंगी बस तू मुझे खान कु दे करिये"। ये सुनते ही देवरानी अवाक रह गई। वो एकदम से अम्माजी के गले लगकर रोने लगी। बहुत देर तक दोनों यूँ ही गले लग कर रोती रहीं और अपने गले शिकवे दूर करती रहीं।
   कुछ समय और बीत गया।  अम्माजी की हालत लगातार खराब होती गयी। एक तरफ तो अम्माजी को ठीक  से खाने को नहीं मिल रहा था तो दूसरी तरफ बढ़ती उम्र का तक़ाज़ा था। अब बीमारियों ने उन्हें घेरना शुरू कर दिया था। वे कमजोर  हो चली। वे अक्सर अपने बेटों से कहती कि उनका इलाज़ करा दे। उन्हें अच्छे डॉक्टर को दिखा दे। वे सुनकर भी अनसुना कर देते। कुछ घर की स्थिति भी ऐसी नहीं रहा गयी थी कि इस बात पे वे अगर ध्यान देना भी चाहते तो नहीं दे पाते। उन्हें कम दिखाई देने लगा था। कान से भी कम सुनाई देने लगा था। अब सामने जो घर देवरानी का था वहाँ तक नहीं जा पाती। बच्चों ने उनकी और अधिक उपेक्षा शुरू कर दी थी।  अक्सर भूखी रह जाती। ऐसे ही बाहर दालान में चारपाई पर लेटी  रहती। अब उन्हें गाँव का कोई भी व्यक्ति आता दिखाई देता तो उससे ही चोरी छिपे खाने को मांगने लगती।जब कभी ये बात बहुओं को पता चलती तो उन्हें अच्छी नहीं लगती। जो भी उनको खाने को देता उसी से लड़तीं। बहुएं हर किसी से कहती "उन्हें कोई खाने कू ना दे। उनने तो म्हारी इज्जत ना राखनी। घर मै इतना खान कू पडा रहवै है यहाँ तो खावै ना ओर दूसरां से मांग कै म्हारी इज्जत तारै हैं"।लेकिन ये सच नहीं था जिसे  सभी जानते थे। धीरे धीरे सभी ने उनके पास आना छोड़ दिया था क्योंकि उनके बहु बेटे उनको बुरा भला कहते। अब सही देखभाल और सही ढंग से खाने को ना मिलने से उनकी हालत और बिगड़ गयीं थी। अब देवरानी  उनका एकमात्र सहारा थी। अक्सर वे ही आती और कभी चोरी से और कभी सीनाजोरी से उन्हें कुछ खिला जाती। कुछ दवाइयाँ वैगहरा दे जाती। एक दिन अम्माजी की बहु से नहीं रहा गया। उसने कह ही दिया "चाच्ची जी तम तो चाहो हम यूँ ही परेसान होती रहवै। इन्हें चोरी से खवा खवा के मरन भी ना देने की"। बेचारी चाची अपना सा मुँह लेकर रह गई। वो अंदर से हिल गयी। अब उसने भी आना बंद कर दिया । धीरे धीरे अम्माजी का चलना फिरना भी बंद हो गया। कई बार मल  मूत्र भी चारपाई पर ही निकल जाता। जिसे वे ख़ुद  ही किसी तरह से साफ़ करती। यदि इसका बहुओं को पता चल जाता तो वे खूब खरी खोटी सुनाती और कहती "बुढ़िया मरती भी तो ना है पता नी कितनों कु खा कै मरेगी। पता नी  कब म्हारा पिंड छोड़ेगी"। सच ये था कि उन्होंने अब अम्माजी को मरने के लिए ही छोड़ दिया था।पिछले कई दिनों से बहु बेटों ने उनका खाना पीना लगभग बंद कर दिया है कहीं वे वहीं चारपाई पर गंदा ना कर दें और उन्हें  ही साफ़ ना करना पड़  जाए। उधर अम्माजी  चीत्कार करती रहती "ओ उप्पर वाले मन्ने ऐसी के गलती करी जो महार कू यो सज़ा दे रा है। इस नरक सै ठा लै महार कू"। वे कराहती रहती। पर कोई सुनने वाला नहीं था। हालत और खराब होती गयी। बेटा नशे में धुत्त रहता और बहु और पोते टीवी देखने में मस्त रहते।
              आज दिन भर से अम्माजी को किसी ने एक बार पानी भी नहीं दिया था। पिछली रात से मल मूत्र चारपाई पर ही त्याग रही थी। किसी ने साफ़ नहीं किया था। सब अपने कामों में या कहें तो अपने शौकों में व्यस्त थे। अम्माजी की चारपाई से दुर्गन्ध उठ रही थी। उन पर मक्खियाँ भिनभिना रही थी।  उनमें  कराहने की शक्ति भी नहीं रह गयी थी। वे लगभग निश्चल  हो गयी। घरवाले उनके मरने का इंतज़ार कर रहे थे। इंतज़ार में वे बेचैन हो रहे थे। अब बारी बारी लोग आते और नाक बंद करके देखने आते कि क्या अभी साँस बाकी हैं और जब देखते कि अभी वे पूरी नहीं हुई है तो मायूस से मुँह बना कर लौट जाते। और फिर अपने काम में लग जाते। शायद उनके कष्ट देख कर भगवान भी द्रवित हो उठा था। कितनी देर निष्ठुर बना रहता। आखिर अम्माजी के प्राण निकल गए।  उन्हें जो भोगना था भोग चुकी थीं। घरवाले इसी इंतज़ार में थे। घर से रोने की आवाजे लगी। अजीत की माँ अम्माजी की बातें बताती बताती रूक गईं। उन्हें आभास हो गया था कि उनकी जेठानी नहीं रहीं।वे भी रोने लगीं। अजीत और माँ जल्दी से भाग कर वहाँ पहुँचे। सब ज़ोर ज़ोर से बल्कि चीख कर रो रहे थे। मानो हर आदमी अपने को दूसरे से अधिक दुखी दिखाने में लगा हो।  चीखने की ये आवाजें ऐसी लग रही थी मानो वे खुशी में चीख रहे हो कि 'अम्मा तुमने हमारा पिंड आखिर छोड़ ही दिया'। उनका अंतिम संस्कार किया गया। उसके बाद तीनों भाई बैठे। तेरहवीं के बारे में बात करनी थी।  वे आपस में विचार विमर्श कर थे। सबसे बड़ा कह रहा था "भई  पूरे ज़ोर सोर से तेरहवीं करनी है। कोई आदमी उंगली ना ठा सकै" दूसरा बोला "हम्बै  कम सू  कम हजार लोग तो हो ही जांगे। गाम गमांड का कोई आदमी रह ना जावै"तीसरा बोला "एकदम सही बात है।दावत भी जोर की करनी। पोत्ते पोत्तियों वाली हो री थीं"। अजीत के कानों में ये शब्द पिघले शीशे की तरह उतर रहे थे। वो सोच नहीं पा रहा था कि वह खुश हो या रोए।
























ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...