Sunday 29 March 2015

लम्हे




 ये लम्हे यूँ ही गुज़र जाएं
 तो अच्छा
 न तुम कुछ कहो
 ना मैं कुछ कहूँ
 बस धड़कने धड़कनों को सुनें
 ये लम्हे यूँ ही सदियों में बदल जाएं
 तो अच्छा । 

स्टीव नैश

                 


                                           






                                             क्रिकेट में कोई छोटा सा खिलाड़ी भी कुछ भी करता है तो बड़ी खबर बन जाती है लेकिन दूसरे खेलों के बड़े खिलाड़ी लम्बे कैरियर के बाद संन्यास भी लेते हैं तो खबर नहीं बनती। अभी हाल ही बास्केटबॉल खिलाड़ी स्टीव नैश ने  एनबीए के 19 साल लम्बे कैरियर से सन्यास लेने की घोषणा की। कहीं से कोई खबर नहीं आई। एनबीए अमेरिका में आयोजित बास्केटबॉल की सबसे बड़ी लीग है। जबरदस्त संघर्ष,रोमांच और उत्तेजना से भरी लीग।लॉस एंजेलेस लेकर्स टीम मेरी पसंदीदा टीम है । जिस समय मैने एनबीए देखना शुरू किया उस समय सेंटर गार्ड शकील ओ नील और फॉरवर्ड गार्ड कोबे ब्रायंट की शानदार जोड़ी  लेकर्स के लिए खेल रही थी और दोनों ने  2000 से 2002 तक लगातार तीन  एनबीए ख़िताब दिलाए। एक जोड़ी के रूप में ये दोनों खिलाड़ी और वैसे कोबे ब्रायंट मेरे सबसे पसंदीदा खिलाड़ी हैं। लेकिन जिस खिलाड़ी के लिए  दिल में सबसे ज्यादा जगह है वो निसंदेह नैश ही हैं। वे बहुत ही शानदार खिलाड़ी थे। खेल की गज़ब की समझ। शक्ति और गति के बीच उनका कलात्मक खेल देखते ही बनता  था। शानदार ड्रिब्लिंग,बेहतरीन पास और अचूक फिनिशिंग करते थे।  जब आप  संगीत की कोई बेहतरीन बंदिश सुनते तो आपको पता ही नहीं चलता कब वो बंदिश विलम्बित से मध्यम और मध्यम से द्रुत में आती है और पूर्णता को प्राप्त करती है। ठीक वैसे ही नैश कब एंड लाइन से शुरू कर मध्य कोर्ट तक पहुँचते और कब बॉल को बास्केट नेट में झुला कर पलक झपकते अपना मूव ख़त्म करते आपको पता ही नहीं चलता। जिस तरह से क्रिकेट में मेरे सबसे पसंदीदा खिलाड़ी सचिन और सहवाग हैं लेकिन सबसे ज्यादा मोहिन्दर
अमरनाथ को खेलते देखना पसंद है। उनको खेलते देखना सचमुच एक ट्रीट होता है । वे इतने सलीके और आराम से खेलते थे कि मानो तेज से तेज बॉल खेलने के लिए उनके पास भरपूर समय हो। यहां तक कि सारे आक्रामक शॉट भी बड़े प्यार से लगाते और उसी अंदाज़ से मध्यम गति से गेंदबाज़ी करते। उन्हें खेलते देखकर लगता कि सचमुच ये जेंटलमैन गेम है। बिलकुल वैसा ही नैश के साथ था।वे एनबीए के महानतम पॉइंट गार्ड थे। उनकी थ्री पॉइंटर शूटिंग लाजवाब थी। वे दो बार एमवीपी (most valuable player) रहे 2005 और 2006 में। लेकिन उनके कैरियर का सबसे दुखद पहलू  ये था कि वे किसी भी टीम के साथ एनबीए चैंपियनशिप नहीं जीत पाए। लैरी ओ ब्रायन ट्रॉफी को ना तो उनके हाथ पकड़ पाए और ना उनके होठ उसे चूम पाए। अफ्रीका में जन्मे और कनाडा के नागरिक स्टीव नैश ने अपने करियर की शुरुआत 1996 में फीनिक्स सन से की और समाप्ति इसी वर्ष लॉस एंजिलिस लेकर्स से। ये सच है कि एनबीए का जादू और रोमांच वैसे ही बना रहेगा लेकिन नैश के कोर्ट में ना होने की टीस और कसक मन में लंबे समय तक बनी रहेगी। खेल के मैदान से विदा नैश !

Monday 16 March 2015

ज़िंदगी




ज़िंदगी ---
पल पल कटती जाती
रफ्ता रफ्ता बीतती जाती
यूँ ही गुज़रती जाती
बेसाख़्ता तमाम होती जाती
इस बहुत कुछ होते जाने में
गर कुछ  नहीं होता
तो यही कि ज़िंदगी जी नहीं जाती।



Wednesday 11 March 2015

साइना नेहवाल

                             




                                        आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर साइना नेहवाल एक इतिहास रचते रचते रह गईं।  लेकिन अपनी हार के बावज़ूद आल इंग्लैंड बैडमिंटन के फाइनल में पहुंच कर उन्होंने एक इतिहास तो रच ही दिया। उनका इस प्रतियोगिता के फाइनल तक पहुँचना और उसमें हार जाना (अगर जीत जातीं तो जीतना भी और उनकी बाकी उपलब्धियाँ भी) सामान्य खेल घटना हो सकती है। लेकिन इसमें गहरे निहितार्थ खोजे जा सकते हैं। दरअसल ये घटना  ऐसे समय में घट रही है जब 'इंडियाज़ डॉटर ' के बहाने भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति , सामंती पुरुष सोच और  पितृसत्तात्मक व्यवस्था जिसमें स्त्री  अधिकार नहीं के बराबर हैं पर बहस जारी है। साइना की उपलब्धियां बहुत कुछ कहती और सुनती हैं। 
                  हरियाणा के एक छोटे से शहर में जन्मा एक सपना आज बड़ी वास्तविकता बन चुका है। एक दंपत्ति ने सपना देखा अपने बच्चे को एक बड़ा खिलाडी बनाने का। उन्होंने  उसे हकीकत में बदलने का संकल्प भी किया । उसी सपने को पूरा करने वो हिसार से हैदराबाद आ जाते हैं और दिन-रात मेहनत करते है। आर्थिक संसाधनों की कमी के बावजूद माता-पिता जी जान से लग जाते हैं। मीलों लंबा सफर तय करके कोर्ट तक ले जाना उसे खेलते देखना और फिर अगले दिन उसी कोर्ट में लाने के लिए वापस ले जाना। यही दिनचर्या बना ली थी उन तीनों ने क्योंकि बच्चे ने भी उस सपने को अपना सपना बना लिया। देखते देखते वो सपना साकार होने लगा। साधारण से परिवार का वो सपना अब सफलता की असाधारण गाथा बन चुकी है। ये सपना एक ऐसी भूमि से जन्म लेता है जहाँ लिंगानुपात सबसे कम है। जहाँ ना जाने कितनी बेटियाँ जन्म लेने से पहले ही अपना जीवन जी चुकी होती हैं।जहाँ खाप पंचायतें बच्चियों के हौसलों के पंख इस तरह से क़तर देते है है कि  वे कभी  उन्मुक्त हो अपनी इच्छाओं के आकाश में उड़ान ही ना भर पाये। जहाँ  बेटा होना परिवार की सबसे बड़ी खुशी और बेटी का जन्मना सबसे बड़ा दुःख समझा जाता हो।  उसी जगह से सपना जन्मता है अपनी बेटी के लिए असीम संभावनाओं का द्वार खोल देने का। इसीलिए साइना की ये कहानी एक टिप्पणी है उस सोच पर जो स्त्री को एक शरीर से ज्यादा कुछ भी नहीं समझती और उनके लिए होंसला जो अपने बेटियों को ही अपनी सबसे बड़ी ख़ुशी समझते हैं । 
                        चुनौतियाँ केवल सामाजिक ताने-बाने और मानसिकता से ही नहीं उपजी थीं बल्कि और व्यापक थीं। भारत में खेलों के क्षेत्र में व्याप्त भृष्टाचार भाई, भतीजावाद और अपर्याप्त खेल सुविधाएँ भी बड़ी चुनौती थीं। और इनसे पार पाकर जब वे अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर आईं चीन की अभेद्य दीवार सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने थी जिसका उन्हें अकेले ही सामना करना था। इस सन्दर्भ में साइना की उपलब्धियां असाधारण हैं। साइना और उनके माता पिता के होंसले और जीवट को सलाम !
                                                          उनमें  संघर्ष करने का गज़ब का माद्दा है। उनका इस मुकाम तक पहुँचना ही उनके कठिन परिश्रम, सतत साधना और संघर्षों की कहानी है। कभी हार ना मानने का जज़्बा उनको महान बनाता है। 2012 के लन्दन ओलम्पिक में कांस्य पदक जीतने के बाद से काफी समय तक उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था। उस समय ऐसा लगने  लगा था कि उनका सर्वश्रेष्ठ आ चुका है और उनमे एक संतुष्टि का भाव आ गया है। ठीक उसी समय पी वी सिंधु का विश्व कप सेमीफाइनल में पहुंचने से लोगों को ये लगने लगा था कि वे बीते दिनों के सितारा है। यहाँ तक कि उनके कोच पी गोपीचंद को भी ऐसा ही लगा। शायद यही वजह थी कि उन्होंने भी अब साइना की जगह सिंधु पर अधिक ध्यान देना शुरू कर दिया था। लेकिन साइना ने हार नहीं मानी। वे अपने पुराने कोच विमल कुमार के पास लौटीं। अपनी फिटनेस और स्टेमिना पर काम किया। मेहनत रंग लाई। वे अपने रंग में  इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल की। अभी भी उनमें  बहुत बैडमिंटन बाकी है।













ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...