Tuesday 7 April 2015

बेटी का होना _दो




तेरा हँसना          
सर्द में धूप का खिलना

तेरा मुस्कराना
रात में चांदनी का फैलना 

तेरा रोना
सावन में फुहार का गिरना

तेरा रूठना
बादलों का आसमान में घिरना

तेरा बोलना
राग मल्हार को सुनना

तेरा स्पर्श
खुशियों का दामन में सिमट आना 

तेरा होना
जीवन में अर्थ का होना ।

बेटी का होना _एक





जैसे सूरज के होने से 
दिन का होना 
रात होने से 
होना चाँद सितारों का 

जैसे आकाश के होने से 
विस्तार का होना 
सागर होने से 
होना गहराई का 

जैसे बसंत के होने से 
कूकना कोयल का 
सावन होने से 
झूलों का पड़ना 

जैसे साँसों के चलने से 
जीवन का होना 
तेरे होने से 
होना मेरा। 







Thursday 2 April 2015

अम्मा जी

                      
                अजीत के पिता पिछले वर्ष सेवानिवृत हुए थे। उन्होंने गाँव में रहने का निर्णय किया और अपने पैतृक मकान को ठीक करा कर उसमें रहने लगे थे। घर से काफी दूर पोस्टिंग होने और कुछ नौकरी की व्यस्तता के कारण अजीत उस समय गाँव नहीं आ पाया था जब पिताजी गाँव में शिफ्ट कर रहे थे। अब गाँव आना ही था। 

                            वो लम्बे अर्से बाद गाँव जा रहा था। बस से करीब आठ घंटों के लम्बे सफ़र के बाद जब वो बस स्टैंड पर उतरा तो उसका शरीर अकड़ सा गया था और थकान शरीर पर तारी होने लगी थी। लेकिन लम्बे अंतराल के बाद गाँव जाने के उत्साह में थकान मस्तिष्क पर हावी नहीं हुई क्योंकि उसके मस्तिष्क में तो गाँव के असंख्य चित्र उभरते जा रहे थे और इनको देखते-देखते वो कब बस से उतर कर बस स्टैंड से बाहर आ गया पता ही नहीं चला। जब रिक्शे वालों ने उसे घेर लिया और उन्होंने पूछा "कहाँ जांगे साब" तो सचेत हुआ। उसने टालने की ग़रज़ से पलटकर एक रिक्शेवाले से पूछा "सुंदरा गाँव जाने के लिए क्या सवारी मिलेगी" तो रिक्शा चालकों का उत्साह फीका पड़ गया गया। उनमें से एक ने बताया "बेगम पुल की माई सै सिटी बस आवैगी उसमें बैठ लियो रिठाल पूंचा दैगी,वहाँ से रिक्शा से चले जाईयो"। ये बात उसे पहले से ही पता थी। उसका चचेरा भाई फोन पर बता चुका था। 
                        सड़क पर बड़ी भीड़ भाड़ थी। लगभग जाम सी की स्थिति।उसे अनायास ही बरसों पहले की अपने गाँव की आखिरी यात्रा की याद हो आई । उस समय शहर में कितनी शांति और सुकून था। सड़क पर बहुत कम भीड़ होती थी। अब सड़क काफी चौड़ी हो गयी थी।फिर भी यातायात था कि उसमें  समाने से इंकार कर रहा था। अब हर ओर आपाधापी मची है। हर आदमी दूसरे के ऊपर चढ़कर उससे आगे  निकल जाने  की होड़ में था। पिछली बार रिक्शा और साईकिल के अलावा स्वचालित वाहन बहुत ही कम दिखाई देते थे।
                         उसे याद था कि उस समय गॉव जाने के लिए साबुन गोदाम स्थित चीनी मिल जाना होता था। वहाँ रिक्शॉ से जा सकते थे या फिर पैदल जाते थे। मिल पर पहुँच कर देखना पड़ता कि गॉव की कोई बुग्गी है या नहीं। अगर होती तो उसमें बैठ कर जाते। नहीं तो पैदल ही गॉव तक का रास्ता नापना पड़ता। ये बुग्गियां या तो चीनी मिल में गन्ना लेकर आती या फिर बाज़ार करने लोग इनमें बैठ कर आते। उस समय शहर आने का मुख्य साधन यही था।  साइकिल का भी उपयोग होता था। पर जब ज्यादा लोग होते या परिवार होता या महिलाएँ होती तो बुग्गी ही पहली पसंद होती।
                                   उस समय तक संचार क्रांति नहीं हुई थी। चिट्ठी पत्री से ही काम चलाना पड़ता था। अगर आपका पहले से कार्यक्रम निश्चित होता तो आप चिट्ठी लिखकर सूचित कर सकते थे। ऐसी स्थिति में आपके लिए निश्चित ही बुग्गी मिल पर पहुँच जाती थी और जब आप रिक्शॉ से मिल पहुँचते तो बुग्गी के साथ गाँव के कई बच्चों और बड़े लोग आपका इंतज़ार कर रहे होते। बुग्गी साफ़ सुथरी होती और उस पर दोहर जैसी कोई साफ़ सुथरी चीज़ बिछी होती ताकि आप आसानी से बैठ कर गॉव जा सके। गॉव जाने के लिए दो रास्ते होते थे। एक तो यही था। इसमें बस स्टैंड से पश्चिम में तीन किलोमीटर जाकर मिल आता और वहाँ से कोई तीन किलोमीटर दक्षिण जाना होता। ज्यादातर इस्तेमाल इसी रास्ते का होता था क्योंकि ये रास्ता थोड़ा छोटा था और इधर से सवारी मिलने की सम्भावना बहुत ज्यादा होती थी। दूसरा रास्ता वो था जो रिक्शा वाले ने बताया था। ये थोडा लम्बा था। इसमें बस स्टैंड से करीब सात किलोमीटर दक्षिण जाकर रिठाल आता और वहाँ से तीन किलोमीटर पश्चिम में गाँव पड़ता था। समय बदलने के साथ  चीज़े बदल जाती हैं। जो रास्ता पहले अधिक चलता था वो अब लगभग बंद हो चला था और ये लंबा रास्ता चल निकला। अब मिल बंद हो गया था और आसपास के गॉवों की सारी खेती योग्य जमीन शहरी विकास प्राधिकरण ने शहर के विकास के लिए अधिग्रहित कर ली थी। जब गन्ना ही नहीं रहा तो मिल का बंद होना स्वाभाविक ही था। मिल बंदी ने रास्ता भी बंद सा ही कर दिया था।
      उस रास्ते के बंद होने का कारण सिर्फ मिल का बंद होना ही नहीं था। ऑटोमोबाइल क्रांति भी इसमें अधिक सहायक हुई। अब बाज़ार में दो पहिया स्वचालित वाहनों की भरमार हो गयी थी। अब वो समय नहीं था कि आपको बजाज के स्कूटर को बुक कराना पड़ता था और बरसो बाद नम्बर आता था। और अगर दहेज़ में देने के लिए अर्जेंट चाहिए तो ब्लैक् में खरीदना पड़ता। अब तो जेब में पैसा रखो और हीरो होंडा, टीवीएस, बजाज किसी भी कंपनी के शो रूम में जाओ और कुछ भी ले आओ। गाँव की ज़मीन अधिगृहित  चुकी थी और एकमुश्त मुआवज़ा किसानों की जेब में आ चुका था। तो अब लोगों के पास सायकिल और बुग्गियों की जगह स्वचालित निजी वाहन हो गए थे। रिठाल के लिए गॉव से जो संपर्क मार्ग था वो पक्का हो गया था और रिठाल तो दिल्ली जाने वाले राजमार्ग पर पड़ता ही था। उसे तो ठीक ठाक होना ही था। परिणाम ये हुआ कि अब गाँव के लोग इसी रस्ते से आने जाने लगे थे। 
                          बस के तेज हॉर्न ने उसकी विचार श्रृखंला को तोड़ा। उसने गर्दन घूमाकर देखा। सिटी बस आ रही थी। अजीत उसमें चढ़ लिया। बस में सवारी जानवरों  की तरह ठुंसी थी। पर बस के कंडक्टर को लग रहा था कि अभी बहुत सी सवारी आ सकती हैं और वो बेफ़िक़्र हो सवारियों को ठूसे जा रहा था। जैसे ही अजीत ने बस के पहले पायदान पर कदम रखा आगे उसे कोई मशक्कत नहीं करनी पडी। पीछे से चढ़ने वालों ने अपने आप बस के बीच में ला खड़ा किया। भीड़ से उसका दम घुटने लगा था। उसने सोचा थोड़ी देर में शहर ख़त्म हो जायेगा। भीड़ भी अपने आप कम हो जायेगी। पर इतने सालों में शहर हद से ज्यादा फ़ैल चुका था। पहले तो दिल्ली चुंगी के आगे शहर ख़त्म हुआ लगता था। पर अब तो शहर है कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। और वैसे ही भीड़ भी। जैसे तैसे रिठाल आया। बस से उतरकर चारों तरफ नज़र दौड़ा कर देखा। पुराना पहचानने की कोशिश की। पर सब कुछ अजनबी सा नया नया सा लग रहा था। पहले ये भी छोटा सा गाँव हुआ करता था। सड़क पर तो बस दो चार दुकानें हुआ करती थीं। और उनके बीच से गाँव जाने का रास्ता दूर से ही साफ़ दीख जाता था । पर अब ये बड़े कस्बे में तब्दील हो चुका था। इसका ओर छोर कुछ भी नज़र नही आ रहा था और ना गाँव जाने का रास्ता। उसे याद आया कि गाँव का रास्ता एक मज़ार के पास से जाता है। दूर से उसे मज़ार दिखाई दी और वही से गाँव का रास्ता भी। वो उधर चल पड़ा। वहाँ बहुत से रिक्शे वाले खड़े थे। दूर से सम्भावित सवारी को देखते ही दो तीन रिक्शे वाले उसकी तरफ लपके और अपने रिक्शे में चलने का आग्रह करने लगे। उसे समझ ही नहीं आया किससे जाए और किसे मना करे। अंत में सबको मना कर पैदल ही चल पड़ा।
        गाँव जाने वाली इस सड़क पर भी अब काफी दूर तक दुकानें हो गयी थीं। उसके बाद रिहायशी मकानों का सिलसिला शुरू हो गया। रिहायश इतनी ज्यादा फ़ैल चुकी थी कि दो चार खेत आते ही रेलवे क्रॉसिंग आ गयी और क्रॉसिंग के उस पार गाँव था। पता ही नहीं चला कि कब क्रॉसिंग आया। पहले रिठाल से गांव कितनी दूर लगता था। खेतों के बीच से लगभग सुनसान कच्ची सड़क। आते-जाते भी डर लगता । पहले ये रास्ता दिन में भी कम चलता और शाम के बाद तो कोई मजबूरी में भले ही उस रस्ते जाए तो जाए।
           क्रॉसिंग पार करते ही उसे एक शिवालय दिखाई दिया। ये उन पांच मंदिरो में से एक था जो पिछले कुछ सालों में गाँव वालों की भक्ति भावना के बढ़ने के कारण बने थे। क्योंकि चचेरे भाई और कभी-कभी दूसरे लोग गाहे बगाहे उसे मंदिर के चंदे के लिए फ़ोन पर इन निर्माण कार्यों के बारे में सूचना देते रहते । ऐसा नहीं कि गाँव वाले पहले धार्मिक नहीं थे।  पहले उनकी भक्ति अपने कुल देवताओं तक सीमित थी जिनके थान हर परिवार के  अपने खेतों में बने होते थे। मंदिर के सामने आयल कम्पनियों का बड़ा सा तेल परिसर बन गया था। ये गाँव के पूरब में था। दक्षिण में आरएएफ का बड़ा सा परिसर बन गया था।  तेल डिपो से तेल लेने के लिए तेल टैंकरो की लाइन लगी थी। उनकी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए क्रासिन्ग से डिपो तक चाय से लेकर दारू के अड्डे तक सब कुकुरमुत्तों की तरह उग आए थे।और इन सब के बीच पुराना सरकारी प्राइमरी स्कूल छिप सा गया था। इतने सारे बदलाव के बीच अगर कुछ नहीं बदला तो ये स्कूल था। अभी भी दो टूटे कमरे और एक बरामदा। हाँ स्कूल के परिसर में दूर किनारे एक छोटा सा शौचालय जरूर बन गया था। सड़कें गाँव के अंदर भी डामर की हो गयी थी। और उनके किनारे पक्की नालियां भी बन गयी थी। वो बात अलग थी कि वे सब कूड़े से अटी पडी थीं और कई जगह पानी सड़क पर अब भी वैसे ही बह रहा था जैसे पहले बहा करता था। हाँ मकान सब पक्के हो गए थे। एक भी कच्चा घर नहीं दिखाई दिया और सच बात तो ये कि कुछ मकान तो शहर के मकानों को भी मात दे रहे थे। लग रहा था कि गाँव में नहीं बल्कि शहर की किसी निम्नमध्यम वर्गीय अनधिकृत कॉलोनी में प्रवेश कर लिया हो।
     
                      तंग गलियों से होता हुआ जब वो घर पहुँचा तो माँ दरवाज़े पर ही मिल गयी। वो अभी अभी अम्माजी को देख कर आई थी। माँ ने कुशल क्षेम पूछ कर गाँव भर का हाल बताना शुरू कर दिया। और उसमें जो बात उसे  सबसे ज्यादा विचलित कर गयी वो थी कि अम्माजी बहुत ज्यादा बीमार हैं और कभी भी भगवान् को प्यारी हो सकती हैं।उसके स्मृति पटल पर अभी तक जो अपने  गाँव शहर की छवियाँ बन उभर रहीं थीं उनकी जगह अम्माजी ने ले ली थी। 
         अम्माजी दरअसल उसकी ताई जी थीं। वो उन्हें बचपन से अम्माजी ही कहता था क्योंकि उनके खुद के बच्चे उन्हें अम्माजी कहते थे।उसकी आँखों में उनका चेहरा घूम गया। वे कद में छोटी थी। लगभग पाँच फीट की। एकदम गोरी चिट्टी। दुबली पतली बड़ी ही फुर्तीली। छोटी छोटी आँख,सुतवा नाक और घने काले घुंघराले बाल। हाँ जो एक बात खटकती वो थी उनकी आवाज़। कुछ अजीब सी भारी सी, बैठी सी। लेकिन देखने में काफ़ी आकर्षक। ताऊजी की ये दूसरी शादी थी। उनकी पहली पत्नी शादी के कुछ दिनों बाद ही बीमार हुई और चल बसीं। उस समय तक उनकी कोई  संतान नहीं थी। इसलिए जल्द ही दूसरी शादी हो गयी।अजीत अब अतीत में गहरे उतराने लगा था। उसे याद आया कि ताई यानी अम्माजी स्वभाव से काफी तेज थीं।और हो भी क्यों ना। उनके पिताजी गाँव के चौधरी थे। चार-चार भाईयों की इकलौती बहन। तीन भाई ब्रिटिश रॉयल सेना में। रईसी और शान-शौकत से बचपन बीता। मायके में हर कोई हाथों हाथ लिए रहता। अतः स्वभाव से दबंग होती चली गईं। ससुराल भी वैसी मिली। ससुर बड़े काश्तकार। पति सरकारी महकमे में मुलाज़िम। ऊपर से  दूसरी पत्नी। दबंगई  के लिए ससुराल में भी उर्वर भूमि तैयार थी।  पर एक बाधा थी सास नाम की। सास भी  धाकड़ और समझदार। अम्माजी ने आते ही घर की डोर अपने हाथ में लेने की कोशिश की।सबसे पहले पति को मुट्ठी में करने की जुगत की ।ये बड़ा काम न था।जल्द ही इसमें सफल हो गयीं।  लेकिन पति में इतना साहस नहीं भर पाईं कि बेटा माँ के सामने खड़ा हो जाए। जल्द ही समझ में आ गया कि सास के रहते कुछ भी सम्भव नहीं है। तो अपने पैर पीछे खींच लिए। वे समझ गयीं थी अभी उनका समय नहीं आया है।इस समय का उपयोग उन्होंने दूसरे कामों के लिए किया। मसलन इस बीच उन्होंने आठ बच्चों को जन्म दिया। इनमें तीन बेटे थे जिससे घर में उनकी इज्जत में कुछ और इजाफ़ा हो गया। 
                    इसी बीच उनके देवर की शादी हो गयी। देवरानी बेचारी सीधी साधी थी। इसकी भी एक कहानी थी। देवर शादी नहीं करना चाहता था। इससे बचने के लिए उसने अपने को वैवाहिक धर्म को निभाने के नाक़ाबिल घोषित कर दिया। इस बात को अम्माजी ने बड़े अवसर के रूप में देखा।उन्होंने भाँप लिया कि ऐसे में देवर की बीवी की क्या स्थिति होगी। उन्हें मुफ्त की एक नौकरानी मिल जायेगी और साथ ही इस बात की भलाई कि देवर के ना चाहते हुए भी उन्होंने उसकी शादी करा दी। और निसंतान दंपत्ति की सारी की सारी संपत्ति तो लुभाव में मिल ही जाएगी। पर उनकी आखरी  इच्छा  पूरी नहीं हो सकी। देवरानी ने शादी के चार साल के अंदर एक बेटे और एक बेटी को जन्म दे दिया। पर और इच्छाएँ काफी हद तक पूरी हो गईं। क्योंकि देवरानी जेठानी की आज्ञा का पालन और उसकी सेवा करना अपना धर्म समझती। उस सीधी साधी देवरानी पर अम्माजी ने कुछ दबंगता और कुछ चिकनी चुपड़ी बातों से अपने पक्ष में गोलबंद कर लिया।सास के मुकाबिल अपना पक्ष मजबूत कर जंग लड़ने को तैयारी कर चुकी थी।
                      जल्द ही  सास से लड़ाई का बहाना भी उपस्थित हो गया। जाड़े का  मौसम था। गन्ने की कटाई चल रही थी,कोल्हू अलग से चल रहा था। बहत सारे मज़दूर लगे थे। ऐसे में काम काफी ज्यादा था। देवरानी अपने घर गयी हुई थी। अम्माजी ने सोचा मैं क्यों फसूँ काम में।अम्माजी को लगा कि उसे भी अपने मायके चले जाना चाहिए। अगले दिन ही उन्होंने सास से कहा "माँ जी मझे अम्मा बाबूजी की याद आरी है मैके जाने कू मन कररा"  सास ने कहा "ईभी तो काम भौत सै , ईभी त कुक्कर चली जागी। छोट्टी बहोडिया भी ना इभी । जिबजा काम हल्का हो जागा या छोट्टी आ जागी तो चली जईऐ"।अम्माजी को सास का मना करना अखर गया। उन्होंने अपनी सास से आर पार करने की ठान ली। अम्माजी  ने कहा "मझे तो भौत याद आरी। मन्ने तो  ईभी जाना। तम ना जान दोगी तो मैं रामबीर के बापू त पूछ के चली जाऊंगी " अपनी बहु के तेवर देख कर सास को भी गुस्सा आ गया। उसने कहा "मैं देक्खू कुक्कर जागी तू"।  अम्माजी ने अब कोई उत्तर नहीं दिया। वो समझ गयी थीं कि अब यहाँ से बात नहीं बनने वाली । लेकिन अम्माजी को अपने रूप रंग और चतुराई पर पूरा भरोसा था। अपने पति पर उनका पूरा प्रभाव था। रात में पति को जो समझाया हो सुबह अम्माजी पति सहित जाने को तैयार थी। बेटा माँ के पास गया और बोला "बेब्बे मैं इसे इसके घर छोड़्डन जा रा "। माँ समझ गयीं कि ये बेटा नहीं बहू बोल रही है। उसे अधिक बुरा इस बात का लगा कि बेटा उससे अनुमति नहीं ले रहा बल्कि उनको सूचित कर रहा है।माँ बोली "पर बेट्टे मन्ने तो उस्से कल ही मने कर दी ही" ।बेटा बोला "अरी रार ठानने सै के फैदा " मा को बेटे की बात अच्छी नहीं लगी। उसने बेटे से कहा "इसका मतबल तो यो है  म्हारी बात का कोई मायना ना है"। वो बोला "ना री माँ वा तो जुरूर ई जावैगी"।  इतने दिनों में अम्माजी अपने पति में इतना साहस भर चुकी थीं कि बेटा माँ का सामना कर सके और उसकी इच्छा के विरुद्ध जा सके।माँ ने कहा "जाणे कू तो चली जागी फेर म्हारे मरण के पाच्छे ही घर मै बडेगी "  इतना सुनते ही अम्माजी कमरे से बाहर आयीं और बोलीं "थारे होत्ते हुए मन्ने भी याँ आण का सोक ना है। इब्जा थारे रहत्ते इस घर में पेर ना धरूँ "
                  इतना कहकर अम्माजी अपना बक्सा उठा पति के साथ घर से निकल लीं। और सच ही उसके करीब छह  महीने बाद तभी  वापस आयीं जब उन्हें अपनी सास की मृत्यु की खबर मिली। सास को अपनी बहू का घर छोड़कर जाना और बेटे का बहू का साथ देने का जबरदस्त धक्का लगा। काम का बोझ,बढ़ती उम्र और ऊपर से कड़ाके की सर्दी। वे जल्द ही बिस्तर पर पड़ गयी और उसके बाद घर से उनकी अर्थी ही उठी।
           अपनी सास के मरने की खबर सुनते ही अम्माजी सुसराल वापस आ गयीं। अब उनके लिए मैदान साफ़ था। पूरी हुकूमत उनके हाथ में थी। सास परलोक सिधार ही गई थीं। ननदें ब्याह कर अपनी सुसराल में थी।देवरानी गाय सी सीधी।वैसे भी वो पति के साथ नौकरी पर रहती।देवर देवरानी साल में दो बार होली-दिवाली छुट्टी आते और कुछ दिन रह कर चले जाते।  जिंदगी बड़े मज़े से कट  रही थी। घर का सारा हिसाब उनके हाथ में था। पति नौकरी में व्यस्त और खेती नौकरों के हवाले। पैसा ही पैसा हाथ में। जो मन आता करतीं। हर दूसरे दिन बाज़ार करतीं। बाकी दिन गाँव भर में हांडती फिरती ।
            सबसे बड़ा बेटा अब सयाना हो चला था। पढ़ाई लिखाई से कोई खास मतलब था नहीं। किसी तरह गाड़ी दसवीं कक्षा तक पहुँची पर वहाँ ऐसी अटकी कि नक़ल और धन के धक्के से भी आगे नहीं बढ़ी तो नहीं ही बढ़  सकी। अलबत्ता माँ के लाड़ प्यार ने बहुत सारे दुर्गुणों को फलने फूलने का पूरा मौक़ा दे दिया था। बेटा जवान हो रहा था। अब लड़कियों पर उसकी नज़र जाने लगी थी। कोई लड़की मिलती तो ठीक नहीं तो खेतों में घास काटने निकली घसियारी  तो काम चलाने के लिए सर्वसुलभ थी हीं। क्योंकि गॉव में उन्हें रहना था और अपनी जीविका चलानी थी तो दबंगों की इच्छा पूर्ति करनी ही थी। इधर माँ और बेटे की शानदार जुगलबंदी थी। दोनों एक दूसरे की आज़ादी पर लगाम लगा सकते थे। माँ उसकी वाहियातों को बाप के सामने ला सकती थी और बेटा उस हिसाब पर  प्रश्न कर सकता था जिस पर माँ का सर्वाधिकार था। माँ  को पैसों  की अबाध आपूर्ति होती रहती और वे उसकी अय्याशियों पर पर्दा डालती रहती। बदले में बेटा उसके घर के हिसाब के नियंत्रण पर किसी तरह का सवाल न उठाता। इस निरंकुश सत्ता के बीच अभी भी एक बाधा  बाकी थी जो माँ बेटे के दिल में शूल सी चुभती थी। देवर-देवरानी साल में दो बार गाँव आते।  जब भी आते उनकी शांत जिंदगी में मानो उथल पुथल मचा देते जैसे किसी तालाब के स्थिर पानी में कोई  कंकड़ फेंक दे। अम्मा जी को ये बुरा लगता। उनकी आज़ादी में खलल पड़ता। घूमना फिरना कम हो जाता या फ़िर बंद हो जाता। गाँव द्वारे बैठकी कम हो जाती। रोज़ रोज़ का शहर जाना बंद हो जाता।कारण देवर काफी गुस्से वाला था और सब उस से डरते थे।  सबसे अधिक तो इस बात का डर कि पता नहीं क्या पूछ ले और क्या अपने साथ ले जाने को कह दे।सौ बीघे धरती में हालांकि उनका आधे का हिस्सा था। पर इतने समय से जोत बो रहे थे बिना कुछ बाँटे कि कुछ देना तो दूर साल में तीज त्यौहार होली दिवाली दो बार बच्चों सहित आ जाते तो उसमें भी परेशानी होने लगी थी।
                                अचानक एक ऐसी घटना घटी कि देवर वाला काँटा भी उनकी राह से दूर हो गया। गर्मियों की छुट्टी में देवर सपरिवार गाँव आया हुआ था। उन दिनों एक दूर के रिश्तेदार का लड़का  भी वहीं रह रहा था। वो पास ही किसी फैक्ट्री में काम करता था। उस रात देवरानी का भाई उनसे मिलने आया था। सारे पुरुष घेर में सोये थे। अचानक सुबह होते  रिश्तेदार का लड़का चीखने चिल्लाने लगा कि उसकी अंटी से रात को उसके सारे पैसे किसी ने निकाल लिए जो उसे पगार के रूप में मिले थे। जब देवर को ये बात पता  चली तो समझ में आ गया कि ये किसकी कारस्तानी है। देवर अपनी भाभी यानी अम्माजी की आदतों से अच्छी तरह वाकिफ था। वो जानता कि वो बड़े भाई की जेब पर अक्सर हाथ साफ़ करती रही हैं । दूकान पर से भी कुछ इधर उधर करती आई  हैं और दूसरे के घरों से भी। यहां तक की खेत खलिहान में मौक़ा पाकर वहां भी कुछ गुल खिला देंती। ये उनकी आदत में शुमार हो गया था। वे खुद बड़े घर से थीं और ससुराल भी बड़ी थीं। लेकिन आदत तो आदत है। देवर ने घर में  देखा दाखा और जब एक अलमारी में पैसे रखे देखे तो भतीजे से बोले "पैसे कहीं नहीं गए हैं अलमारी में हैं। मेहमान के सामने बात खुले अच्छा  नहीं होगा। मैं मेहमान को छोड़ने जा रहा हूँ। शाम तक लौटूँगा। लडके के पैसे वापस करा देना"। ये कहकर देवर अपने साले के साथ शहर चला गया। अम्माजी को ये बात पता चल गयी। देवर के जाते ही अम्माजी ने पैसे वहां से हटा दिए। बेटा खुद भी अपनी माँ की आदत जानता था। जब बेटे ने अलमारी में देखा तो उसे पैसे नहीं मिले, मिलने भी नहीं थे। इस बीच उस लडके जिसके पिसे निकले थे,ने भी खूब शोर मचाया तो दो चार पास पड़ोस के लोग भी इकठ्ठे हो गए। देवर सबके निशाने पर था। एक तो वो लिख पढ़ कर अच्छी नौकरी पर था। फिर खरी खरी कहने वाला भी था। वैसे भी शहर में रहने वाला गांव वालों के लिए पराया ही हो जाता है। तभी किसी ने कहा "परेसान होने की बात ना है। गाम में सिद्ध सयाना है उसतै बुज्झा ले लो। वो सारी बात खोल दैगा"। गांव का ये सिद्ध सयाना दरअसल एक साधुनुमा भिखारी था जो पहले कभी कभी गांव में दान दक्षिणा लेने आता और गांव के लोगों को अक्सर उनके भविष्य के बारे में कुछ ऐसा बता देता जो उनके कष्टप्रद जीवन को थोड़ी बहुत राहत देने वाला होता। कभी  कभी झाड़ फूंक भी कर देता। गाँव वालों के लिए डाक्टर को दिखाना बड़ी लग्जरी था जिसे वे अफोर्ड कर ही नहीं सकते थे। ऐसे में उसके लिए अपनी जीविका चलाने के लिए एक बढ़िया रोज़गार स्थापित करने के लिए उपजाऊ  भूमि तैयार थी। धीरे धीरे उसने गाँव में ही घर बना लिया। अब वो गाँव वालों के लिए हर मर्ज़ की दवा था। डॉक्टर से लेकर ज्योतिषाचार्य तक सब कुछ। 'हल्दी लगे ना फिटकरी रंग चोखा' की तर्ज़ पर उसका रोज़गार बढ़िया चल रहा था। गाँव के दो चार निठल्ले उसके चेले बन गए थे जो उसके पास दिन भर पड़े रहते और चिलम पीते रहते। बदले में वे सारे गाँव की गतिविधियों की जानकारी उसे देते रहते जिन के दम  पर वो लोगों को जानकारी देकर गाँव वालों को चमत्कृत करता और अपना उल्लू सीधा। जब अम्माजी उस लड़के, अपने बेटे और गाँव के कुछ और लोगों के साथ सिद्ध सयाने के पास पहुँची तो इस बात की खबर उसके चेलों चपाटों द्वारा पहले ही उसके पास पहुँच चुकी थी। उसने अम्माजी से आने का कारण पूछा। अम्माजी ने रोने का नाटक किया और बोली "म्हारी तो सारी बिरादरी में ओर गाम गमांड में नाक काट जागी। यो म्हारे रिस्तेदार का छोरा म्हारे घर में रहवै है इसके पीसे किसी नै काढ़ लिए। इब हम इसके अम्मा बाप्पू नै  के जवाब देंगे"। सयाने ने बड़ी गंभीरता से अम्माजी की बात सुनी और बोला "तू चिता ना करै माई। मैं इबी देक्खूँ यो कुकरम किन्ने करा " . इसके बाद उसने आँख बंद की ,कुछ बुदबुदाया। इस बीच सन्नाटा पसर गया। कुछ देर बाद उसने आँखें खोली और उपस्थित लोगो पर एक सरसरी निगाह डाली और बोला "माए पता चल गिया।म्हारे हिसाब सै थारे घर कल रात एक पाहवाना आरा"। जितने लोग वहाँ थे सब खुसुर पुसुर करने लगे। अम्माजी बोली "हाँज्जी महाराज म्हारी दुरानी का भाई आ रा था"। सयाना बोला "बस थारे घर रात जो पाहवना  आया था यो उसी का काम है"। लोगों के बीच से शोर सा उभरा। लोगों में खुसुर पुसुर तेज हो गई और दो एक लोग देवरानी के भाई को भला बुरा भी कहने लगे। अम्माजी का काम हो चुका था। ये खबर देवरानी तक पहुँची तो वो रोने लगी।शाम को पति के आने तक उसका रो रो कर बुरा हाल हो चुका था। जब देवर ने पूरे घर के सामने अलमारी में पैसे होने की बात की तो किसी ने उसका विश्वास नहीं किया। उसके बाद घर में खूब लड़ाई हुई। अगले दिन सुबह ही देवर अपने परिवार को लेकर नौकरी पर चला गया। उसमें इतनी गैरत थी कि उसने कुछ भी बांटा नहीं। अगले कई वर्षों तक उसने गाँव का रूख नहीं किया। अम्माजी और उनके बेटे के मन की मुराद पूरी हो चुकी थी। उनकी निरंकुशता की राह की अंतिम बाधा हट चुकी थी।
           अब ज़िंदगी मज़े में कट रही थी। कई साल इसी तरह कट गए। ये दिन शायद उनकी ज़िंदगी के सबसे खुशियों भरे दिन थे। लेकिन समय एक सा नहीं रहता। माँ थीं तो सास भी बनना ही था। देर सबेर बेटे की शादी होनी ही थी। आखिर वो दिन आ ही गया। बेटे की शादी तय हो गई। एक सुन्दर लड़की से विवाह तय हो गया और नियत दिन शादी भी हो गयी। बहु यानी अम्माजी अब सास बन गयी। ये उनके जीवन की बड़ी घटना थी। शायद उनके जीवन की दशा बदलनी थी।जो बोया था उसे काटने का समय आ गया था। साल दो साल मज़े से बीता।हनीमून काल तेजी से बीत गया। किसी को आभास तक नहीं हुआ। बहु ने घर और घरवालों की हिस्ट्री ज्योग्राफी सभी अच्छी तरह से जान ली थी। बहु के मन में भी अम्माजी वाली महत्वाकांक्षाएं जाग चुकी थी। अब बहु उसी राह पर चल चुकी थी। बहु को अपने पति पर जादू चलाने में कोई अड़चन ना थी। बहु सुन्दर होने के साथ साथ चतुर सयानी भी थी। सबसे पहले उसने पति पर लगाम कसी। उसे इधर उधर मुँह मारने से रोका और जब पति उसके रंग में रंग गया तो उसने सास के तरफ रुख किया। पर माँ ने भी बेटे पर अपना नियंत्रण बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी। नियंत्रण की बडी कुंजी उनके हाथ में जो थी। घर का हिसाब-किताब अभी  भी उनके हाथ में था।  सास बहु के बीच बेटे को लेकर लुका छिपी चलती रही। इस अदृश्य अबोले संघर्ष में कई वर्ष बीत गए। दोनों तरफ से पैंतरेबाज़ी चलती रही। बेटा दोनों के बीच में मज़े करता रहा। वो  स्थिति का पूरा फायदा लेना जानता था। उसने दोनों के बीच संतुलन बनाये रखा। आर्थिक नियंत्रण माँ के हाथ में बरकरार रहा। लेकिन एक ना एक दिन ये संतुलन बिगड़ना ही था। पांच साल के इस अंतराल में बहू भी सास की तरह दो बेटों और दो बेटियों को जन्म दे चुकी थी और अब इस कार्य से अपने को फारिग समझ लिया था। अब उसने अपनी सास की ओर अधिक ध्यान देने का मन बना उसे सत्ताच्युत करने का फैसला कर लिया और अपने मिशन को पूरा  करने में लग गयी। उसने पति को ये समझाया कि अब बच्चे बड़े हो रहे हैं। अधिक पैसों की आवश्यकता होगी। दूसरी और छोटे भाई भी जवान हो रहे हैं। कल को  शादी होगी,बच्चे होंगे उनकी ज़रूरतें बढ़ेंगी,उससे पहले अपनी स्थिति तो ठीक कर लो। पति को बात समझ में आई। उसे समझ में आ गयी कि माँ से घर का हिसाब किताब अपने हाथ में लेने का समय आ गया है। बेटे ने एक दिन मौक़ा कर माँ से सीधे सीधे कहा "अरी अम्मा मन्ने लगै के यो घराँ का हिसाब अपणे हाथ मै लेल्लूं,इसके बिना खेत्ती के काम मै घनी परेशान्नी होवै है "। माँ समझ गयी बहु ने अपनी चाल चल दी है। उसने पलट कर पूछा "परेशान्नी कुक्कर होवै  है तझे पीसे नी मिलते के " "अरी या बात ना है इब पीसे बिन्क में आंग्गे वां मै तुझे कां काँ ले जात्ता फिरूंगा" "मै तो तेरे साथ कहीं भी जान्ने कू तैयार हूँ " "अरी तू समझै कर। मैं तुझे कहाँ कहाँ ढोत्ता फिरूँगा" बेटे कहा । माँ अच्छी तरह समझ रही थी कि अब उसकी सत्ता में सेंध लगने वाली है। उसने आखरी प्रयास किया "मेरे और बेट्टे बेट्टी भी तो हैं मझे उनकी देखबाल  भी तो करणी, तू अर तेरी लुगाई थोड़े ई कर सकै"। माँ ने अपनी सत्ता बचाने का  पूरा प्रयास किया और  आखरी दाँव खेला। माँ  हिसाब किताब अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी क्योंकि वही उसकी सत्ता का आधार था। उधर बेटा समझ चुका था कि माँ  आसानी से हार नहीं  वाली तो उसने सीधे ब्रह्मास्त्र चला दिया "इसका मतबल यो है कि तन्ने म्हारे पे बिस्बास णा है कि मै  अपने भाई बहनां  की देखभाल कर सकूँ,अर जिबजा थार कूँ म्हार पे बिस्बास ही ना है तो  साथ रहने का कोई फ़ादा ही ना है। तू मन्ने अलग  कर दे" धमकी का तुरंत असर हुआ। वो जानती थीं बँटवारे का घर की स्थिति और विशेष रूप से आर्थिक स्थिति पर क्या असर पड़ता है। स्वयं उनके मायका का उदाहरण उनके सामने था। भाइयों में ज़मीन का जब से बंटवारा हुआ उसके बाद से वे अर्श से फर्श पर आ चुके थे। हालांकि तीन भाई फ़ौज में रह चुके थे और आर्थिक रूप से संपन्न थे। इसके  बावजूद जल्द ही  वे संपन्नता से विपन्नता की स्थिति में आ गए। और ये उनके हाथ में हिसाब किताब रहने का ही लाभ था कि वे गाहे बघाहे अपने भाईयों की आर्थिक मदद बिना किसी रोक टोक  के करती रहतीं थी। सच तो ये है कि चाहे कितनी बड़ी जोत हो बंटवारे के बाद वो आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं  रह जाती।  ये बात वे अच्छी तरह से जानती  थीं। फिर गाँव गमांड में परिवार का नाम था। बंटवारे से परिवार के नाम पर आँच जो आती। यही सोच कर  माँ घर के हिसाब किताब की बागडोर  बेटे को सौपने को राजी हो गई लेकिन इस आश्वासन के साथ कि उसकी ज़रूरतें पूरी करने के लिए उसे पर्याप्त मात्रा में खर्चा पानी मिलता रहेगा। इस तरह आर्थिक सत्ता माँ से वाया बेटा बहु के पास पहुँच गई। सत्ता परिवर्तन बहुत ही सहज और शांतिपूर्वक ढंग से हो चुका था। माँ-बेटे के बल्कि कहें तो सास-बहु के इस द्वन्द में बाप मूक दर्शक था जिसे इस बात से कोई मतलब नहीं था कि सत्ता किसके हाथ में रहती है। वो सुबह नौकरी पर निकल जाता और देर शाम घर लौटता।
    बहु ने घर को अब अपने तरीके से चलाना शुरू कर  दिया था  जिसमें सास की कोई जगह नहीं थी। अम्माजी के हाथ से सत्ता पूरी तरह से हाथ से फिसलती जा रही थी बल्कि फिसल चुकी थी। उन्हें अपने बिंदी टीके और सैर सपाटे और बाकी खर्चों के लिए जितने पैसों की जरूरत थी उसमें कटौती होने लगी थी। भाईयों की  प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष मदद भी संभव नहीं कर पा रहीं थीं। और फिर जिसने सत्ता का स्वाद एक बार चख लिया उसकी लत छूटती नहीं। अम्माजी के हाथ से हिसाब किताब जाने से उन्हें परेशानी महसूस  होने लगी थी।उन्हें जल्द ही लगने लगा कि हिसाब-किताब बेटे के हाथों सौंप कर उन्होंने गलती की। पर जो बीत गयी वो बात गयी। अब उसका हाथ आना नामुमकिन था। लेकिन उन्हें एक आशा की किरण दिखाई दी। इस किरण का झरोखा था उनके बेटे की अलग होने की धमकी। उन्हें समझ में आ गया था कि हिसाब किताब अपने हाथ लेने का इससे बेहतर उपाय कोई दूसरा नहीं हो सकता। अब उन्होंने पति और अपने दूसरे बेटे के जो अब जवान हो रहा था,बड़े भाई और उसकी बीबी के खिलाफ कान भरने शुरू किये।उनका प्रयास रंग लाया।इस काम में चतुर सयानी जो ठहरीं।जल्द ही घर में बड़ा बेटा और बहु  विलेन बन गए।  कलह बढ़ती जा रही थी। जल्द ही बंटवारे की नौबत आ गयी। पिता ने उसको अपने हिस्से की एक तिहाई ज़मीन देकर अलग कर दिया। पर बेटे ने कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं। उसकी नज़र चचा की आधी ज़मीन पर लगी थी। वो सीधे चचा के पास गया। अपने पहले के व्यवहार की माफी माँगी। माँ बाप के खिलाफ भड़काया और उनके हिस्से की ज़मीन की बँटाई देने का वादा किया और चचा को अपने पक्ष में कर लिया। चाचा ने गाँव जाकर अपनी ज़मीन बाँट ली और भतीजे को दे दी।
            अब अम्माजी अपने पति के हिस्से की दो तिहाई ज़मीन की मालकिन बन बैठी। हिसाब-किताब उनके हाथ फिर से आ गया था। लेकिन अब वो पहले जैसी बात नहीं रह गयी थी। ज़मीन का एक बड़ा हिस्स्सा उनके हाथ से जाता रहा था। दूसरा लड़का भी जवान हो गया था। अब उन्हें उसकी शादी की चिंता सताने लगी। आखिर घर का काम करने वाला भी तो कोई चाहिए था। उन्होंने तो कभी करके खाया नहीं था। एक सुन्दर और आठवीं पास बहु के कारनामे वे देख चुकीं थी। उन्होंने  मन में एक नया फार्मूला खोजा बहु को काबू में रखने का। इस बार ऐसी बहु लाओ जो ना पढ़ी लिखी हो ना सुन्दर हो। सामाजिक हायार्की में मध्यम पायदान पर आने वाली खेतिहर जातियों में ऐसी लड़की मिलना  कौन  बड़ी बात थी। तुरंत ही ऐसी लड़की मिल गई।जल्दी ही शादी भी हो गयी।नई बहु के आने के बाद कुछ दिन तो सब ठीक रहा पर जल्द ही समस्याएँ सामने आकर खड़ी हो गई। नई बहु पढ़ी लिखी तो थी नहीं। स्कूल का मुँह कभी देखा नहीं था। मायके में सुबह ही ढोर डंगर चराने जाती या फिर खेत पर काम करने। घर के कामों में मन नहीं लगता।  कुछ ही दिनों में वो घर के काम से ऊब गई। घर उसे कैदखाना लगने लगा। उसका मन खेतों पर जाने को मचलने लगा। अम्माजी अधिक दिनों तक उसे घर पर रोक नहीं सकी। वो बेरोकटोक खेतों में जाने लगी। अब घर की जिम्मेदारी अम्माजी पर आन पड़ी। अम्माजी ने घर का काम किया नहीं था। पर अब समय बदल गया था। ज़मीन का बंटवारा हो चुका था। बड़ा बेटा चाचा के हिस्से  समेत अपना हिस्सा लेकर अलग हो चुका था। घर पर नौकर नहीं रख सकती थीं। हालात से समझौता करना पड़ा। हिसाब किताब हाथ में होते हुए भी पहले जैसी बात नहीं थी। पर बहु से निभ नही सकी। सास ने पहले कोशिश की कि बहु को ही घर से निकाल दिया जाए। उस पर तमाम तरह की तोहमतें लगाने लगीं। बेटा अभी उनके कहने में था। माँ अक्सर बेटे के कान भरती और बेटा अपनी मर्दानगी दिखाते हुए बीवी को जब तब पीटता। पर जब उसे छोड़ने की बात आती तो बेटा चुप लगा जाता। धीरे धीरे अम्माजी की इस बेटे से भी दूरी हो गईं क्योंकि वो उनके कहने से अपनी बीवी को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। कुछ दिनों बाद बिचला बेटा भी अलग हो गया। अब तीसरे बेटे का सहारा बचा था। इस आस में उसकी शादी की शायद ये बहु कुछ सेवा करे।
                          इसी बीच अम्माजी के पति की मृत्यु हो गई। वैसे तो परिवार में उनका कोई रोल नहीं था लेकिन वे अम्माजी का बड़ा सम्बल थे। अम्माजी पर ये बड़ा वज्राघात था। उनका बड़ा सहारा था उनका पति। समाज में विशेष रूप से ग्रामीण समाज में पति की क्या अहमियत होती है ये बखूबी जानती थीं। ये  बात छोटी बहु भी अच्छी तरह समझती थी। उसे भी समझ में आ गया कि सास अब कमजोर पड़ गयी हैं और अब उसने भी अपने रंग दिखने शुरू कर दिए। आये दिन काम और हिसाब किताब को लेकर सास बहु में तकरार होने लगी। शादी होने के दो साल बाद छोटी बहु ने भी ऐलान कर दिया कि वो अब सास के साथ नहीं रह सकती। ये ऐलान सास के लिए बड़ा संकट लेकर आया। बड़ा संकट इसलिए था कि उनके पति नहीं रहे थे और अब तीनों  बेटों बल्कि यों कहें कि बहुओं ने उन्हें अपने पास रखने से मना कर दिया था। अब जाएँ तो कहाँ जाएं। तीनों बेटों ने सलाह मशविरा किया अपनी अपनी पत्नियों से राय ली कि अम्माजी का क्या किया जाए। छोटी दोनों बहुओं ने अपने पास रखने से एकदम साफ़ मना कर दिया। आखिर लोक लाज से बड़ी बहु ने अपने पास रखने की हामी भर दी।
           अजीत के दिमाग में पूरा घटनाक्रम चलचित्र की भांति चल रहा था।  अचानक वो पिक्चर रूक गयी। उसने बहुत पहले ही गाँव आना छोड़ दिया था। उसे नहीं पता था आगे अम्माजी का क्या हुआ। उसे  इतना याद था कि वो जब भी गाँव जाता अम्माजी बड़े प्यार से उससे मिलती। देर तक उससे अपने दुःख सुख की बतियाती। माँ ने उसके विचारों का क्रम तोड़ दिया। वे बड़बड़ा रहीं थीं "इससे अच्छा तो भगवान उसे ठा लै। बिचारी की घनी दुर्गति हो री है। अर भगवान ऐसी औलाद तो दुस्मन कू भी ना दै।"उसने अपनी माँ से पूछा कि ऐसा क्या हुआ अम्माजी के साथ। उसकी माँ बताने लगी और वो एक बार फिर अतीत में पहुँच गया ।जो पिक्चर अचानक रूक गयी थी वो मानो मध्यांतर के बाद फिर शुरू हो गई थी। 
             ये वो समय था जब शहरों  का तेजी से विकास हो रहा था।  प्राइवेट बिल्डर्स किसानों की ज़मीनें औने पौने दामों में खरीद रहे थे। शहरी विकास प्राधिकरण भी इसमें  बराबर के भागीदार बन गए थे।वे बड़े पूंजीपतियों के लिए पब्लिक इंटरेस्ट के नाम पर बहुत ही कम दामों में किसानों की ज़मीन अधिग्रहीत करते और फिर पूंजीपतियों को शहर और देश का विकास करने को दे देते। देश और शहर का जो भी विकास होता या नहीं होता पर पूंजीपति और प्राधिकरण के अफसर कर्मचारियों का खूब विकास हो रहा था और वे अपनी गरीबी दूर कर रहे थे । गाँव शहर से दूर नहीं था। गाँव की ज़मीन पर बड़े बिल्डर्स सहित सरकारी एजेंसी की आँख भी लगी थी। जल्द ही गाँव की ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया गया। हालांकि अधिग्रहण में दिया गया मुआवजा बहुत ही कम था। सही कहें तो औने पौने दामों में किसानों की ज़मीन ले ली गयी थी। इस घटना ने अम्माजी के संकट को कुछ दिनों के लिए टाल दिया। हुआ यों कि ज़मीन का मुआवज़ा उन्हें मिला जिनके नाम ज़मीन थी। अम्माजी के पति के नाम ज़मीन वाला मुआवजा तो तीनों बेटों में बँट गया। पर उसी समय ये भी पता चला कि कुछ ज़मीन अम्माजी के ससुर ने ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून लागू हो जाने के बाद सीलिंग में ज़मीन जाने से बचाने के लिए अपनी  बहुओं के नाम भी करा दी थी। अम्माजी के नाम जो ज़मीन थी उसके हिसाब से उन्हें अच्छी खासी रकम मिलनी थी। जल्द ही पूरे गाँव सहित अम्माजी और तीनों बेटों के बैंक खातों में भरपूर पैसे आ गए। 
              मुआवजा भले ही काम मिला हो और उस धनराशी से भले ही उसकी आधी भी ज़मीन वे ना खरीद सकते हों जितनी ज़मीन उनसे ली गयी थी पर इतनी एकमुश्त धनराशी ज्यादातर लोगों ने नहीं देखी थी। इतने पैसों को संभाल पाना किसान के बूते की बात दूर की कौड़ी थी। तीनों भाईयों में से कोई भी ऐसा नहीं था जो मुआवज़े में मिले पैसों का सदुपयोग कर पाता । ये विडंबना केवल उन्हीं की नहीं बल्कि पूरे गाँव की थी। मुआवजा मिलते ही सारा गाँव शाम ढलते ही शराब के नशे में डूब जाता और देर रात तक कुत्तों के भोंकने की आवाज़ों के साथ गलियों और चीख चिल्लाहट फ़िज़ा में तैरती रहती। हर घर में दो तीन हीरो होंडा मोटरसाइकिल और कुछ घरों में नयी और सेकंड हैंड कारें भी पदार्पण कर गई थीं। गाँव के सारे मकान पक्के घरों में तब्दील हो चुके थे। जिन गलियों में कभी दिन भर हल बैल झोट्टा बुग्गी आते जाते वहां अब मोटर साइकिल और कार फर्राटा भरती और जिन चौपालों पर देर रात तक गाँव वाले मिलकर अपने सुख दुःख की बातें करते या  रागनी गाई जाती वे अब दारु की गंध से गंधाते और माँ बहन की ऐसी तैसी करते जुमलों से गूंजती रहती ।
      कितना भी धन मिल जाए यदि उसे बढ़ाया ना जाए और आप बैठे बैठे खाना चाहे तो वो कितने दिन चल सकता था। मुआवजे में मिले पैसे  काफी थे यदि सदुपयोग होता तो। पर अम्माजी के तीनों बेटे भी इसके अपवाद नहीं बन सके। जब तक अंटी में मुआवज़े के पैसे रहे तब तक तो ठीक ठाक चलता रहा। लड़के अपने में मस्त और अम्माजी अपने में। अब अम्माजी जी भी लाखों की मालकिन थीं। बैंक में जमा पैसों के ब्याज़ से उनका खर्चा अच्छे से चल रहा था। वक़्त ज़रुरत पर अपने बेटों को भी थोड़ा बहुत देती रहतीं। अब बेटों की जमापूँजी ख़त्म होने लगी थी और जैसे ही तीनों भाईयों के पैसे ख़त्म होने लगे तो उन्हें अम्माजी की याद आने लगी। अब अम्माजी के प्रति बेटों और बहुओं के व्यवहार में परिवर्तन आने लगा।वे फिर से कुछ कुछ पहले जैसा अम्माजी का ध्यान रखने लगे। एक बार फिर अम्माजी की बन आई थी।पुराने दिन तो नहीं लौटने थे पर कुछ तो था ही।ये शायद दिए के बुझने से पहले की तेज रोशनी थी।आखिर अम्माजी लाखों की मालकिन जो थीं। तीनों एक दूसरे पर नज़र रखे थे कि कोई अकेला पैसा न हड़प ले। कुछ समय और ऐसे ही ग़ुज़र गया। जैसे जैसे लड़कों की जमा पूंजी ख़त्म होने लगी वैसे वैसे तीनों में अम्माजी के पैसे कब्जाने को लेकर बैचैनी बढ़ने लगी। अंततः तीनों में समझौता हो गया कि अम्माजी के पैसों का बँटवारा कर लिया जाए।  काम को अंजाम देने का फैसला हुआ और एक दिन मौक़ा देख कर तीनों भाई माँ के पास इकट्ठा हुए। बड़ा बोला "अम्मा तझे तो पता ही है म्हारी हालत का"। बिचले ने बात आगे बढाई "लोंडी  लारी भी बड्डी होत्ती जारी। इनके हाथां न भी पीले करने" तीसरे ने बात आगे बढ़ाई "अर अम्मा री तू यूँ भी तो सोच बैंक मै पड्डे पड्डे इन पीसों का के होगा। तेरी औलाद भुक्खी मरे अर पीसे बिंक मै सड़े ! ऐसे पीसे किस काम के"। बिचला बोला " वे सारे पीसे तो खत्म हो गिए। इब तू मदद करैगी तो इन पीसां सै कुछ काम धंधा सुरु करकै अपने दिन सुधार लेंगे "। ये अम्माजी के लिए कठिन परीक्षा की घड़ी थी। वे जानती थी कि ये जमा पूँजी ही उनके संकट का सबसे बड़ा सहारा है। इसे देने का मतलब अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है। पर बच्चों की ममता के आगे वे बेबस थी। वे ये भी जानती थी. या उनकी विवशता थी कि बुढ़ापे में उनकी देखभाल करने वाले इन बेटों के सिवाय और कोई नहीं था। उन्हें  रास्ता  सूझा। फिर वे माँ थी। उनसे अपने बेटों की दुर्दशा देखी नहीं जा  गयी। उन्होंने अपनी सारी जमा पूंजी तीनों बेटों में बाँट दी। अम्माजी जी अपने पैसे बाँट कर खुश थी कि उन्होंने अपना फ़र्ज़ निभाया। वे जानती थी कि पुराना वैभव मौज मस्ती तो लौटने से रही। आगे की उम्र सही सलामत कट जाए यही बहुत है। लेकिन जैसा सोचा हो वैसा ही हो ज़रूरी तो नहीं। अम्माजी के साथ ऐसा ही हुआ। उनका सोचा नहीं ही हुआ। अम्माजी से पैसे मिलने के कुछ दिनों बाद तक तो सब ठीक ठाक रहा। लेकिन जल्द ही वे बोझ लगने लगी।  पैसा देने के समय वे बड़े बेटे के पास रह रहीं थी।क्योंकि उन्होंने बेटों की मुश्किल समय में मदद की थी तो वे  अपना विशेष ध्यान चाहती थीं। पर ऐसा हुआ नहीं। धीरे धीरे एक बार फिर उनकी उपेक्षा होने लगी। अपनी उपेक्षा से वे मर्माहत होती। वे बहु को सुना कर कहती "बुरे समय में अपने ही काम आवै  हैं।माँ तो माँ ही होवै है। समय पड़े पै माँ ने ही मदद करी"। बहु सुनकर अनसुना कर देती। अम्माजी बड़बड़ाती रहती "बुड्ढे माँ बाप की सेवा बालकां का धरम होवै है"। जब ज्यादा कहती तो बहु को कोई उत्तर न सूझता। वो कह देती "दो और भी तो बेट्टे हैं थारे उनके पास रहन लाग्गो।" अब उनके खर्चों में कटौती होने लगी। पैसा तो उन्हें कोई देता ही नहीं था । अब उनका खाने पीने का भी ध्यान रखना उनके लिए मुश्किल होने लगा। खाना वक्त बेवक्त मिलने लगा। बीमार होती तो दवा दारु का इंतज़ाम  कोई ना करता।  एक दिन अम्माजी  ने बेटे से शिकायत की "लाल्ला मेरे पे तो कोई ध्यान ही ना देवै है। तू मुझे किसी डाग्डर नै दिखा दे" वो झल्लाकर बोला "कुछ ना होरा तम्हे। कहीं ना मर री" पीछे से बहु भी बोली "ये जल्दी ना मरने की। ये तो मेरी छात्ती  मूंग दलेंगी।  परेशान कर कै रख रख्खा"इसके बाद बहुत देर तक सास बहु में मुँहजोरी होती रही। अम्माजी बहुत आहत हो गई। वे बहुत देर अकेली रोती रहीं।  इस बीच गाँव की दो तीन औरतें आई। उन्होंने दिलासा दी। अम्माजी ने मन ही मन तय किया कि वे अब बड़े बेटे के पास नहीं रहेंगी । अब उनकी आस दोनों छोटे बेटों पर टिक गई। सबसे छोटा बेटा बिना पत्नी के कोई काम नहीं  करता था। उसने अम्माजी को साथ रखने से एकदम मना कर दिया। बीचवाली बहु भी रखना नहीं चाहती थी। उनकी एक बार फिर वही स्थिति हो गयी जो ज़मीन के मुआवज़ा मिलने से पहले हो गयी थी। बहुत हील हुज़्ज़त और रिश्तेदारों के हस्तक्षेप के बाद और थोड़ी लोकलाज के डर  से बिचले  बेटे ने रखने के लिए हामी भर दी।इसमें बहु की रज़ामंदी नहीं थी। खैर अम्माजी को बड़े के पास नहीं रहना था। अपना सामान लेकर बिचले बेटे के यहाँ आ गई।लेकिन यहाँ भी उनकी स्थिति में कोई अंतर नहीं आया। बहु नहीं चाहती थी कि सास उसके पास रहे। फिर अब अम्माजी को पास रखने का कोई कारण नहीं रह गया था। सारे सम्बन्ध अब आर्थिक नफे नुक्सान पर आकर टिक गए थे। अम्माजी अब वृद्ध हो चली थीं।अब उनमें पहले जैसी ताक़त नहीं रह गई थी। बहुओं को लगने लगा था कि अब उनसे निपटना आसान है। यहाँ भी आये दिन सास-बहु में तकरार होती रहती। सास अक्सर बेटे से शिकायत करती "बहोड़िया मेर सू उल्टी सिद्धि बात करै है। ठीक सै खान कू भी ना देत्ती " और बेटा जब लगाकर आता तो माँ के लाड में आकर बीबी पर लात घूसे बरसाता। ऐसा वो पहले से ही करता आ रहा था। इसका बीवी पर अब कोई असर नहीं होता। बीवी ने इसे अपनी नियति  मान लिया था। वो दुगनी ताकत से सास को गाली देती। इधर तीनों बेटों की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी। बेटे तीनों अपनी हालत सुधारने में लग गए। इस चक्कर में वे भूल गए घर में क्या हो रहा है।अम्माजी शुरू से ही खाने की शौकीन रहीं थीं। जब तक घर की मालकिन रही तीन टाइम बिना पानी वाला निखालिस दूध पीतीं रही थी। ये उस खाने का नतीजा था कि आज भी भली चंगी थी। लेकिन समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। अम्माजी के दिन भी बदल रहे थे जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था शरीर उनका साथ छोड़ता जा रहा था। बहु उनको ठीक से खाने को नहीं देतीं। नौबत यहां तक आ गई कि अब अम्माजी अक्सर जहां कहीं जाती वहीं परोक्ष अपरोक्ष रूप से कुछ खाने को माँग लेती। अम्माजी का ध्यान रखना अब बिलकुल बंद कर दिया था। अब वे अक्सर भूखी रहने लगी थीं।और प्रायः अपनी देवरानी के घर जा बैठतीं।  अब उनका वही एकमात्र ठिकाना रह गया था। देवरानी अभी पूरी शिद्दत के साथ रिश्ता निभा रही थी। जबकि वो उनके द्वारा सबसे ज्यादा सताई गयी थी। लेकिन जब से देवर सेवानिवृत होकर वापस गाँव आया है तब से ही देवरानी उनकी काफी देखभाल करती रही है। वो उनकी हालत देख कर अक्सर दुखी हो जाती और उनकी बहुओं से कहती "तम्हें तन्नक सी भी सरम लिहाज ना रही। उनकी यो दुर्गति तमनै कर रक्खी है। थारे भी औलाद है तम भी सास बनोगी। थारे साथ भी ऐसा हो सके है"।पर बहुओं को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। उस दिन तो हद हो गई। उस दिन जब अम्माजी देवरानी के घर पहुँची तो देवरानी ने अम्माजी से कहा "बीवजी इब तो झाड़ू बर्तन का काम न होवै है। कोई कामवाली मिले तो बता दियो'। इतना सुनते ही अम्माजी ने कहा "तेरा काम मै कर दे करूंगी बस तू मुझे खान कु दे करिये"। ये सुनते ही देवरानी अवाक रह गई। वो एकदम से अम्माजी के गले लगकर रोने लगी। बहुत देर तक दोनों यूँ ही गले लग कर रोती रहीं और अपने गले शिकवे दूर करती रहीं।
   कुछ समय और बीत गया।  अम्माजी की हालत लगातार खराब होती गयी। एक तरफ तो अम्माजी को ठीक  से खाने को नहीं मिल रहा था तो दूसरी तरफ बढ़ती उम्र का तक़ाज़ा था। अब बीमारियों ने उन्हें घेरना शुरू कर दिया था। वे कमजोर  हो चली। वे अक्सर अपने बेटों से कहती कि उनका इलाज़ करा दे। उन्हें अच्छे डॉक्टर को दिखा दे। वे सुनकर भी अनसुना कर देते। कुछ घर की स्थिति भी ऐसी नहीं रहा गयी थी कि इस बात पे वे अगर ध्यान देना भी चाहते तो नहीं दे पाते। उन्हें कम दिखाई देने लगा था। कान से भी कम सुनाई देने लगा था। अब सामने जो घर देवरानी का था वहाँ तक नहीं जा पाती। बच्चों ने उनकी और अधिक उपेक्षा शुरू कर दी थी।  अक्सर भूखी रह जाती। ऐसे ही बाहर दालान में चारपाई पर लेटी  रहती। अब उन्हें गाँव का कोई भी व्यक्ति आता दिखाई देता तो उससे ही चोरी छिपे खाने को मांगने लगती।जब कभी ये बात बहुओं को पता चलती तो उन्हें अच्छी नहीं लगती। जो भी उनको खाने को देता उसी से लड़तीं। बहुएं हर किसी से कहती "उन्हें कोई खाने कू ना दे। उनने तो म्हारी इज्जत ना राखनी। घर मै इतना खान कू पडा रहवै है यहाँ तो खावै ना ओर दूसरां से मांग कै म्हारी इज्जत तारै हैं"।लेकिन ये सच नहीं था जिसे  सभी जानते थे। धीरे धीरे सभी ने उनके पास आना छोड़ दिया था क्योंकि उनके बहु बेटे उनको बुरा भला कहते। अब सही देखभाल और सही ढंग से खाने को ना मिलने से उनकी हालत और बिगड़ गयीं थी। अब देवरानी  उनका एकमात्र सहारा थी। अक्सर वे ही आती और कभी चोरी से और कभी सीनाजोरी से उन्हें कुछ खिला जाती। कुछ दवाइयाँ वैगहरा दे जाती। एक दिन अम्माजी की बहु से नहीं रहा गया। उसने कह ही दिया "चाच्ची जी तम तो चाहो हम यूँ ही परेसान होती रहवै। इन्हें चोरी से खवा खवा के मरन भी ना देने की"। बेचारी चाची अपना सा मुँह लेकर रह गई। वो अंदर से हिल गयी। अब उसने भी आना बंद कर दिया । धीरे धीरे अम्माजी का चलना फिरना भी बंद हो गया। कई बार मल  मूत्र भी चारपाई पर ही निकल जाता। जिसे वे ख़ुद  ही किसी तरह से साफ़ करती। यदि इसका बहुओं को पता चल जाता तो वे खूब खरी खोटी सुनाती और कहती "बुढ़िया मरती भी तो ना है पता नी कितनों कु खा कै मरेगी। पता नी  कब म्हारा पिंड छोड़ेगी"। सच ये था कि उन्होंने अब अम्माजी को मरने के लिए ही छोड़ दिया था।पिछले कई दिनों से बहु बेटों ने उनका खाना पीना लगभग बंद कर दिया है कहीं वे वहीं चारपाई पर गंदा ना कर दें और उन्हें  ही साफ़ ना करना पड़  जाए। उधर अम्माजी  चीत्कार करती रहती "ओ उप्पर वाले मन्ने ऐसी के गलती करी जो महार कू यो सज़ा दे रा है। इस नरक सै ठा लै महार कू"। वे कराहती रहती। पर कोई सुनने वाला नहीं था। हालत और खराब होती गयी। बेटा नशे में धुत्त रहता और बहु और पोते टीवी देखने में मस्त रहते।
              आज दिन भर से अम्माजी को किसी ने एक बार पानी भी नहीं दिया था। पिछली रात से मल मूत्र चारपाई पर ही त्याग रही थी। किसी ने साफ़ नहीं किया था। सब अपने कामों में या कहें तो अपने शौकों में व्यस्त थे। अम्माजी की चारपाई से दुर्गन्ध उठ रही थी। उन पर मक्खियाँ भिनभिना रही थी।  उनमें  कराहने की शक्ति भी नहीं रह गयी थी। वे लगभग निश्चल  हो गयी। घरवाले उनके मरने का इंतज़ार कर रहे थे। इंतज़ार में वे बेचैन हो रहे थे। अब बारी बारी लोग आते और नाक बंद करके देखने आते कि क्या अभी साँस बाकी हैं और जब देखते कि अभी वे पूरी नहीं हुई है तो मायूस से मुँह बना कर लौट जाते। और फिर अपने काम में लग जाते। शायद उनके कष्ट देख कर भगवान भी द्रवित हो उठा था। कितनी देर निष्ठुर बना रहता। आखिर अम्माजी के प्राण निकल गए।  उन्हें जो भोगना था भोग चुकी थीं। घरवाले इसी इंतज़ार में थे। घर से रोने की आवाजे लगी। अजीत की माँ अम्माजी की बातें बताती बताती रूक गईं। उन्हें आभास हो गया था कि उनकी जेठानी नहीं रहीं।वे भी रोने लगीं। अजीत और माँ जल्दी से भाग कर वहाँ पहुँचे। सब ज़ोर ज़ोर से बल्कि चीख कर रो रहे थे। मानो हर आदमी अपने को दूसरे से अधिक दुखी दिखाने में लगा हो।  चीखने की ये आवाजें ऐसी लग रही थी मानो वे खुशी में चीख रहे हो कि 'अम्मा तुमने हमारा पिंड आखिर छोड़ ही दिया'। उनका अंतिम संस्कार किया गया। उसके बाद तीनों भाई बैठे। तेरहवीं के बारे में बात करनी थी।  वे आपस में विचार विमर्श कर थे। सबसे बड़ा कह रहा था "भई  पूरे ज़ोर सोर से तेरहवीं करनी है। कोई आदमी उंगली ना ठा सकै" दूसरा बोला "हम्बै  कम सू  कम हजार लोग तो हो ही जांगे। गाम गमांड का कोई आदमी रह ना जावै"तीसरा बोला "एकदम सही बात है।दावत भी जोर की करनी। पोत्ते पोत्तियों वाली हो री थीं"। अजीत के कानों में ये शब्द पिघले शीशे की तरह उतर रहे थे। वो सोच नहीं पा रहा था कि वह खुश हो या रोए।
























ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...