Tuesday 30 June 2015

स्लम है कि कूड़ी

            

        जब कभी भी आप रेल से सफर कर रहे होते  और रात में किसी बड़े शहर में रेल प्रवेश कर रही होती है तो खिड़की से बाहर का नज़ारा देखना मन को कितना भाता है। पूरा शहर दूधिया रोशनी में नहाया हुआ। दूर तक जाती बल्बों की लम्बी कतारें और ऊंची ऊंची इमारतों के भीतर से आता प्रकाश पूरे शहर को आवृत कर रहा होता है। कही कहीं दिखाई पड़ता अंधकार अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्षरत सा प्रतीत होता है। पर उसमें सफल होता नहीं दिख पड़ता। लगता है छुपने के लिए कोने तलाश रहा है। रोशनी से नहाए शहर को देख कर आप किसी और जहाँ में पहुँच जाते हैं.... किसी तिलिस्मी दुनिया में विचरण करने लगते हैं आप…आप खुद इतना हल्के पाते हैं कि आसमान में उड़ता सा महसूस करने लगते हैं....सब कुछ स्वप्न सरीखा सा लगने लगता है.…एक अलग दुनिया में खो जाते हैं आप.…आपके सपनों की दुनिया…चाहतों की दुनिया…इच्छाओं की… अरमानों की दुनिया। पर अचानक किसी सिग्नल पर हलके से झटके से रेल रूक जाती हैं। उस हलके से झटके से आपकी सपनों की दुनिया भी बिखर बिखर जाती है। आप घबराकर सामने से नज़र हटाकर रेल के आस पास निगाहें फैलाते हैं  तो पटरियों के किनारे शहर के दूर छोर से छनकर आते मद्धिम से प्रकाश में सैकड़ों की तादात में दबड़े नुमा छोटी छोटी झोपड़पट्टी नज़र आने लगती हैं। 
            अचानक आप दूसरी फंतासी का शिकार हो जाते हैं। एक नए तिलिस्म में पहुँच जाते हैं । यहां सिर्फ अन्धेरा ही अन्धेरा नज़र आता है। दरअसल मुख्य शहर में रोशनी से पराजित अन्धेरा यहीं तो शरण पाता है। हताश,पराजित अन्धेरा यहाँ मानो अपनी ताकत फिर से संजोता है.…पुनः प्रकाश को चुनौती देने के लिए उठ खड़ा होता है। उसे लगता है जैसे ये उसका अपना ही तो घर है। हताश,निराश,गरीब,जीवन की जद्दोजहद में लगे लोगों के बीच उसे कितना अपनापन लगता होगा। सच में अन्धेरा गज़ब की ताक़त पा लेता है यहां। तभी तो यहाँ रोशनी आने में भी घबराती है। भूले भटके छन छनाकर कर थोड़ी बहुत कहीं से आ भी गयी तो वो अँधेरे से कहाँ पार पा पाती है। यहाँ तो वो खुद भी मरी मरी सी.…  बीमार सी नज़र आने लगती है।
                   और तब समझ आता है अरे ये तो हाशिया है.…और ये लोग ज़िंदगी के विशाल पृष्ठ पर खिंचे हाशिये में पड़े लोग हैं। ये तो सिर्फ जनसंख्या का अंक बताते हाशिये के उन नंबरों की तरह हैं जो सवालों और जवाबों की संख्या बताते हैं। अन्यथा रोशनाई और उससे लिखे अक्षर तो मुख्य पृष्ठ पर हैं। असली पहचान और महत्व तो उन्ही का है। ये.… ये.…  तो बस यूँ ही … बेसबब....अकारण.... कीड़े मकोड़ों की तरह..... डाल से टूटे पत्तों की तरह.…अपनी ज़मीन से कटे.…ना ना कटे नहीं बिछड़े……प्रवासी....विस्थापित। फिर तिलिस्म की एक और खोह में धँसे चले जाते हैं। लगने लगता है कि शायद ये स्लम्स तो राहु केतु की तरह हैं.…वैसे ही महत्वहीन....सौरमण्डल की परिधि से बाहर। सूर्य की ऊर्जा कुछ खास ग्रहों तक सीमित…प्रेम का ग्रह शुक्र,बुद्धि का बृहस्पति,जीवन का पृथ्वी,क्रोध यानी बल का मंगल,धन का बुध,तो न्याय का शनि.…महत्व के तो ये ग्रह हैं.....तो सूर्य का प्रकाश उसका तेज उसकी शक्ति भी तो इन्हीं को मिलेगी.... राहु केतु का क्या ये तो शत्रु ग्रह हैं,बेकार के ग्रह हैं.… इनकी क्या ज़रुरत है…ये तो बहिष्कृत हैं.… इन्हें क्योंकर कुछ मिलना चाहिए.... ये तो सौरमंडल के स्लम हुए ना। या यूँ कहें कि इन्हीं की तरह तो हैं स्लम…उपेक्षित,अनपेक्षित,अवांछित। 
                         आप तिलिस्म में और गहरे उतरते जाते है। एक नई दुनिया में। गाँव की दुनिया दृश्यमान होने लगती है। तभी अपनी बस यात्राओं की याद आ जाती है। वे यात्राएं जो अक्सर शहर से ग़ाँव और गाँव से शहर जाने के लिए की जाती हैं। जैसे ही आपको सड़क के किनारे दोनों और कूड़ियाँ पड़ी दिखाई दें,आप समझ जाएं  कि कोई गांव अाने वाला है,ठीक वैसे ही जैसे शहर जाते समय जब सड़क के दोनों ओर झोंपड़पट्टी दिखाई देने लगे तो आप समझ लेते हैं कि कोई शहर आने वाला है। मैंने तो यही पहचान बना रखी है बचपन से। कूड़ियां.... मतलब गाँव के घरों से निकला ढोरों डंगरों का मल मूत्र  अरे गोबर वगैहरा और घर घेर में सकेर सुकूर कर इकठ्ठा किया गया कूड़ा जहां एकत्र किया जाता है वही तो होती कूड़ी। सड़क बनाने के लिए दोनों किनारों से जब मिट्टी उठा कर सड़क पर डाल दी जाती है तो सड़क के दोनों ओर जो गड्ढे बन जाते हैं उनमें बेचारे किसान अपनी कूड़ी बना लेते हैं। इससे कम्पोस्ट खाद बनती है। भई मुझे तो स्लम और कूड़ी में साम्य ही साम्य नज़र आता है।जैसी कूड़ी वैसा स्लम। अब आप देखिए ना दोनों बाहर हाशिए पर..... एक गाँव के बाहर तो दूसरा शहर के। कूड़ी में क्या होता है घर गाँव का अपशिष्ट और कूड़ा जो उन्हें साफ़ सुथरा बनाने में निकलता है। और स्लम बनता है आदमियों से ऐसे आदमियों से जो अपनी जड़ों से उखड़े लोग हैं,सूखे पत्तों जैसे किस्मत की लहर पर सवार गली-कूंचों,मोहल्लों-मोहल्लों,डगर-डगर,शहर-शहर,भटकते कूड़े की मानिंद लोगों से। जो भटकते-भटकते पहुँच जाते हैं साफ़ सुथरे चमकते दमकते शहरों को गंदा करने। अब बाबूजी लोगों को,हुक्मरानों को,सेठ साहूकारों को ये कूड़ा कहाँ हज़म। ये उनकी शान पर बट्टा जो ठहरे। तो भई नगरपालिका के कारकून उन्हें धकिया धुकियाकर शहर के गड्ढों में कूड़े की तरह भर देते हैं। कई बार तो स्लम वालों को भी कूड़ी की किस्मत पर रश्क होता होगा कि वे स्लम से ज्यादा साफ़ सुथरी जगह पर है,खुली हवा में सांस ले रही हैं। उन्हें तो इतना भी मयस्सर नहीं। कूड़ी और स्लम में समानता यहीं ख़त्म नहीं होती। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। कूड़ी सड़ गल कर अपना अस्तित्व समाप्त कर बहुमूल्य खाद में बदल जाती है। बेजान मिट्टी में मिलकर उसे उर्वर बना देती है जिससे फसलें लहलहाने लगती हैं। किसान खुशी से झूम झूम उठते हैं।दबा कुचला मृतप्राय किसान लहलहाती फसल देख जीवंत हो उठता है। खुद को मिटाकर दूसरे को जीवन देना.... उसे धन धान्य से परिपूर्ण कर देना.... कैसा निश्छल और पूर्ण समर्पण। बिलकुल वैसे ही जैसे स्लम वाले करते हैं। शहरों की ऊँची ऊँची इमारतों को कौन बनाता हैं। शहरों की साफ़-सफाई कौन करता है। घरों का रंग रोगन,सफाई-पुताई,रोज़मर्रा के काम कौन करता है। स्लम वाला ही ना। अपना तन मन सब गला कर शहर की सेवा स्लम वाला ही करता है न। मैं तो कहता हूँ गाँव की कूड़ी और हर का स्लम दोनों एक ही हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कबीर दास की तर्ज़ पर कहूँ तो 'कूड़ी है कि स्लम है/स्लम है कि कूड़ी है/कूड़ी ही स्लम है /स्लम ही कूड़ी है,।  
         ... अचानक एक शोर सा उभरता है,चीख चिल्लाहट कानों से टकराने लगती है कि अचानक एक झटके से रेल रूक जाती है। प्लेटफार्म पर गाड़ी पहुँच चुकी है। ध्यान भंग होता है। तिलिस्म टूटता है।आप रेल से उतरने की जल्दी में सामान पैक करने लगते हैं।




Sunday 28 June 2015

कबूतर और बहेलिया



बहेलिया पहले डालेगा चुग्गा आश्वासनों का
उसमें मिलाएगा सुनहरे भविष्य के सपनों की अफीम
जब मदहोश हो जाएंगे कबूतर सारे
तो बिछाएगा मजबूत जाल
जिसका एक सूत्र होगा नस्ल का
एक बतियाने की बोली का
एक रहने की डाल का
एक उनके शरीर के रंगों का
जो रंगा होगा धर्म और देशभक्ति के गहरे रंगों से
इस बार बहेलिया नहीं खड़ा होगा पेड़ के पीछे
क्योंकि वो जानता है उनके उड़ जाने की बात
बल्कि हाथ में लिए चुग्गा खड़ा होगा कबूतरों के पास
और पेड़ के पीछे होंगे बहेलिए के व्यापारी मित्र
जिनकी गिद्ध दृष्टि टिकी होगी कबूतरों के घोंसलों पर
और भिड़ा रहे होंगे जुगत पेड़ों को कब्जाने की
इस बार नहीं उड़ पाएंगे मदहोश कबूतर
बाई द वे उड़ भी जाएं
तो जाएंगे कहाँ?
चूहे के पास ही ना !
पर वे नहीं जानते कि
चूहा भी मिल चुका है पेड़ के पीछे वाले व्यापारियों से
और खुद भी बन गया है बड़ा बहेलिया
उसके जाल कुतरने वाले दांत हो गए हैं भोथरे
और उसके हाथ लग गया है और भी ज्यादा मदहोशी वाला रसायन
सीख गया है कबूतरों को जाल में फंसाए रखने की जुगत
वो चलाएगा अस्मिता का जादू
नहीं हो पाएंगे आजाद कबूतर
तो मित्रों कहानी थोड़ी बदल गई है
नमूदार हो गए हैं कुछ नए किरदार
बहेलिया सीख गया है कुछ नए दांव पेंच
कबूतर भूल गए हैं कुछ कुछ एकता का पाठ।

Sunday 21 June 2015

दास्तान मुग़ल महिलाओं की



              

                   जब 'नया ज्ञानोदय' और 'बी.बी सी' ने  इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हेरम्ब सर की लिखी पुस्तक  'दास्तान मुग़ल महिलाओं की' को 2013-14 की चर्चित पुस्तकों में शुमार किया और ज्ञानोदय ने उस वर्ष की सबसे चर्चित 6 पुस्तकों में शामिल किया तो पहली बार इस किताब के बारे में जानकारी हुई। ज्ञानोदय की 6 पुस्तकों की सूची में एक यही पुस्तक नॉन फिक्शन किताब थी। इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते इसके प्रति उत्सुकता होना स्वाभाविक ही था। इसके टाइटल ने इसको पढ़ने की ललक थोड़ी और बढ़ा दी। कई महीने पहले इस किताब को खरीद लिया था। ये दीगर बात है कि इसको ख़त्म अभी अभी किया है। किताब को उत्साह से पढ़ना शुरू किया लेकिन जल्द ही उत्साह कम होने लगा।सात अध्याय में लिखी किताब का पहला अध्याय बाबर की नानी इबुस्कुन पर आधारित है जिसकी पृष्ठभूमि में मध्य एशिया है। दरअसल इसके पढ़ने में कठिनाई मध्य एशिया के स्थानों के नाम और व्यकिवाचक फारसी नामों को लेकर है जो आपके पढ़ने की एकाग्रता को कहीं ना कहीं बाधित करते हैं खासकर इतिहासेत्तर किताब के रूप में पढ़ने पर तो अवश्य ही।  इसके विषय में जब मैने हेरम्ब सर से कहा तो उन्होंने मज़ाक में कहा कि 'मैं सबको इसे पीछे से पढ़ने की सलाह देता हूँ'। लेकिन थोड़ा सा धैर्य बनाए रखने पर आप इसमें जल्द ही डूबने उतराने लगते हैं। इस किताब की शुरुआत कठिन ज़रूर है लेकिन जैसे जैसे आप आगे बढ़ते हैं आनंद का सोता एक पहाड़ी नदी की तरह आपके मन में बह निकलता है और आप उसके  तेज बहाव में बहते चले जाते हैं। दरअसल भूगोल और इतिहास एक दूसरे से घात प्रतिघात करते चलते हैं। इसमें भी कुछ ऐसा ही है। जब तक पात्र मध्य एशिया के कठिन और दुर्गम प्रदेशों में रहते है उनकी कहानी भी कठिन और शुष्क सी मालूम दीख पड़ती है लेकिन जैसे जैसे वे पात्र अपेक्षाकृत कम दुर्गम और उर्वर प्रदेश में आते चले जाते हैं वैसे वैसे इतिहास अधिक रंगोंवाला और अधिक रसपूर्ण बन पड़ता है। शायद यही कारण है कि अंतिम दो अध्याय सबसे दिलचस्प और बेहतरीन बन पड़े हैं। क्योंकि उस समय किरदार भारत की समतल उर्वर हरी भरी धरती पर आ चुके होते हैं।
                किताब अपने कथ्य और कहन दोनों ही कारणों से बेजोड़ बन पडी है। मुग़लकालीन महिलाओं के बारे में आप के दिमाग में जो पहले पहला ख्याल आता है उससे या तो आपके मन में मुमताज़महल और नूरजहाँ की और बहुत हुआ तो महम अनगा की तस्वीर उभरती है या फिर हरम में रहने वाली असंख्य बेग़मों,जिनकी स्थिति अपनी दासियों से भी गई बीती होती थी,की तस्वीर उभरती है। लेकिन किताब में इनसे इतर ऐसी मुग़ल महिलाओं की दास्ताँ हैं जिनके बारे में या तो हम बिलकुल नहीं जानते या थोड़ा बहुत जानते हैं जिनका कि इतिहास में पारिवारिक नामावली पूरा करने भर को उल्लेख किया  गया है। इस किताब में उन महिलाओं के मुग़लों के शानदार इतिहास को बनाने में महती भूमिका को स्थापित करने की सफल कोशिश है जिसकी कि तत्कालीन इतिहासकारों ने उपेक्षा की थी।भले ही आधुनिक सन्दर्भों के अनुरूप इसमें नारी विमर्श ना भी हो,भले ही इसमें राजपरिवार की स्त्रियों की दास्ताँ कही गयी हो जिन्होंने राजशाही को ही मज़बूत बनाने की कोशिश की हो लेकिन ये भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि मध्यकालीन समाज में जहाँ नारी का अस्तित्व एक ऑब्जेक्ट से अधिक कुछ नहीं था ऐसे में कुछ महिलाएँ अपनी इच्छा शक्ति और योग्यता के बल पर उस समय के हिंसक और निरंतर संघर्षों वाले माहौल में पुरुषों के वर्चस्व वाले राजनीतिक परिदृश्य को ना केवल प्रभावित करती हैं बल्कि अपने को स्थापित भी करती हैं। ये किताब उन महिलाओं की गरिमा को ही नहीं बल्कि उनके योगदान भी को बखूबी स्थापित करती है जिसे इतिहास ने शायद सायास भुला दिया था। फिर बात चाहे चग़ताई इबुस्कुन की हो या महारानी खातून की हो, ईशान दौलत खानम,हर्रम बेग़म या फिर हमीदा बानो बेग़म की।
                                  जब इतिहासकार कवि भी होता है तो उसके इतिहास लेखन में अतिरिक्त लालित्य आ जाता है। फिर वे प्रो. हरबंस मुखिया हों या प्रो. लाल बहादुर वर्मा और प्रो. हेरम्ब चतुर्वेदी तो यहाँ हैं हीं। प्रो. चतुर्वेदी मुग़लकालीन महिलाओं का इतिहास लिखते है तो उसमे ललित निबंध सा आनंद आता है। ये उद्धरण एक बानगी भर है "..बाबर के जीवन में ये दो महिलाएं ही प्रमुख हुईं। एक ने एक यायावर,संसाधनहीन शासक के जीवन में नई आशा नई दिशा व नया स्वप्न दिया तो दूसरी ने उसे क्रियान्वित करने का उत्साह व सम्बल दिया। एक ने अभिलाषा को जागृत किया तो दूसरी ने उसे ऊर्जा व गति प्रदान की। एक ने विचार दिया तो दूसरी ने उसे व्यवहत करने का संकल्प। एक ने उर्वर भूमि तलाशी व बीज बो दिया दूसरी ने निश्चित कार्य योजना के साथ उसे अंकुरित कर दिया। एक ने मन मस्तिष्क टटोला,दूसरी ने ऐसी मनःस्थिति ही निर्मित कर दी …।"   दरअसल इतिहास निर्मिति और लेखन एक दुष्कर कार्य है। जैसे पत्थरों में से कोई मोती ढूंढ लाना। इतिहासकार उस मूर्तिकार की तरह होता है जो अपनी अंतर्दृष्टि और तर्क की छेनी हथौड़े से पत्थर को तराशकर खूबसूरत मूर्ति का रूप देता है।प्रो. चतुर्वेदी भी मुग़लकाल के सात अनजाने पर महत्वपूर्ण पत्थरों को खोजते हैं उन्हें तराशकर सात खूबसूरत मूर्तियों का निर्माण करते हैं।अगर इनमे से प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में हर्रम बेग़म प्रभावित करती है तो एक प्रेमकथा के रूप में हमीदा बानो की कहानी अद्वितीय बन पडी है। जिसकी तुलना किसी भी बेहतरीन से बेहतरीन प्रेम कहानी से की जा सकती है। लगभग इसी के साथ साथ 'बेदाद ए इश्क़ रूदाद ए शादी' पढ़ी थी। उसमें कई लोगों के अंतर्जातीय और अन्तर्धार्मिक विवाहों को लेकर आत्म संघर्षों के  वक्तव्य बेहतरीन बन पड़े हैं। उन वक्तव्यों में पूरे समय एक तनाव की व्याप्ति रहती है जो उनसे पाठक को बांधता है। उनसे एक अलग धरातल की किस्सगोई होने के बावजूद हमीदा बानो के किस्से में भी उसी तरह के तनाव की व्याप्ति रहती है। अनारकली को लेकर भारतीय जनमानस में एक अलग रोमानी छवि बसी है। प्यार के प्रतीक के रूप में। वे यूरोपियन यात्रियों के वृत्तांत के साक्ष्यों के सहारे इस छवि को तोड़ते हैं। जब ये स्थापित होता है कि सलीम ने अपनी सौतेली माँ अनारकली से बलात् दुष्कर्म किया तो निश्चित ही एक बड़ा मिथक टूटता है। और जब अकबर को ये पता चलता है कि इसमें स्वयं अनारकली की भी सहभागिता तो वो अनारकली को लाहौर के किले  दीवार में चुनवा देता है। दरअसल ये मुग़ल शासकों की विलासिता,लम्पटता  तो बताता ही है साथ ही अन्तःपुर हरम में व्याप्त षड्यंत्रों अनाचारों और बदहाली की भी कहानी कहती है। 
         सच तो ये है जब वे ये किताब लिख रहे होते हैं तो वे केवल एक किताब नहीं लिख रहे होते हैं बल्कि कविता में इतिहास बुन रहे होते हैं और इतिहास में कविता रच रहे होते हैं। फिलहाल उनके एक नए ऐतिहासिक महाकाव्य की प्रतीक्षा में। 



Thursday 18 June 2015

स्वागत नए चैम्पियन और नए स्टार का

चित्र गूगल से साभार 

                                कभी कभी कुछ चीजों का घटना सपने का हक़ीक़त में बदल जाने जैसा होता है। मंगवार की रात जब क्लीवलैंड ऑहियो के 'द क्यू' के नाम से प्रसिद्ध क्विकें लॉन्स एरीना के सेंटर कोर्ट में गोल्डन स्टेट वारियर्स और क्लीवलैंड कैवेलियर्स के बीच एनबीए के फाइनल्स का छठा गेम समाप्त हुआ तो गोल्डन स्टेट टीम के लिए 40 सालों से संजोया सपना उनका अपना बन चुका था।गहराती रात में झूमते खिलाड़ियों के चेहरों से निकलता तेज़ और छलकती खुशी इस बात को बयां करने के लिए पर्याप्त थी कि जीत किसी टीम के लिए क्या मायने रखती है। छठे गेम में गोल्डन  स्टेट वारियर्स टीम ने सच्चे योद्धाओं की तरह खेलते हुए एनबीए के संभवतः सबसे बेहतरीन खिलाड़ी लेब्रोन जेम्स की अगुआई वाली क्लीवलैंड कैवेलियर्स की टीम को 105 -97 अंकों से हराया तो वे सात मैचों की सीरीज 4 -2 से जीत कर इतिहास बना चुके थे। 1962 में वेस्टर्न कोन्फेरेंस में आने के बाद गोल्डन स्टेट ने केवल एक बार 1975 में एनबीए खिताब जीता था। हालांकि 1947 और 1956 में भी वे चैम्पियनशिप जीत चुके थे। वारियर्स की टीम पिछले चालीस वर्षों  की नाकामयाबी भुला कर स्टीफेन करी और क्ले थॉम्पसन की अगुआई में पूरे सत्र में चैंपियन की तरह खेली। उन्होंने शानदार ले अप और 3पॉइंटर किए। बढ़िया रिबाउंड लिए, बेहतरीन टर्न ओवर किए शानदार स्टील भी।अपने खेल में रक्षण और आक्रमण का बेहतर संतुलन का समावेश किया। गोल्डन  स्टेट के खिलाडियों के हाथों की उँगलियों के पोरों से  जब भी गेंद छूटती थी तो कुछ जादू सा कुछ अविश्वसनीय सा कर गुज़र जाती थी।  सामान्यतः टीमें 3पॉइंटर में बहुत ज़्यादा विशवास नहीं रखतीं पर इस टीम ने आरंभ से ही इसी रणनीति पर भरोसा किया। निश्चित ही क्ले और करी ने अद्भुत खेल दिखाया। केवल प्लेऑफ मुकाबलों में करी ने 95 3पॉइंटर बास्केट की। इससे पहले का केवल 53 बास्केट का रेकॉर्ड है। वैसे पूरे सीज़न में करी ने सबसे ज़्यादा 276 और उसके बाद उनके साथी खिलाड़ी क्ले ने 223 3पॉइंटर बास्केट कीं। करी ने अपने खेल से दिखाया कि उन्हें इस साल का एमवीपी का खिताब यूँ ही नहीं मिला।
चित्र गूगल से साभार 
                  दरअसल ये मुकाबला दो टीमों के बीच ही नहीं बल्कि दो बड़े खिलाड़ियों-लेब्रोन जेम्स और स्टीफेन करी के बीच भी था।एक तरफ 6फुट 8इंच लंबे और 113 किलो वज़न के लहीम शहीम खूंखार से दिखाई पड़ने वाले लेब्रोन थे। जब वे स्वयं को एनबीए का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बता रहे थे तो उसमें अतिश्योक्ति नहीं थी। उनके बड़े खिलाड़ी होने का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे दो बार के एनबीए चैम्पियन,चार बार के एमवीपी,दो बार के फाइनल्स के एमवीपी,11 बार आल स्टार टीम में  रह चुके थे। जबकि 6 फुट 3 इंच लम्बे और 86 किलो वजन के लेब्रोन की तुलना में साधारण कद काठी वाले मासूम से चेहरे वाले स्टेफन करी इससे पहले कोई बड़ा नाम नहीं थे। लेकिन इस बार दोनों ने असाधारण खेल दिखाया और अपनी अपनी टीमों को फाइनल तक पहुँचाया। एक ले अप और डंक का माहिर तो दूसरा 3पॉइंटर का। दोनों ने फाइनल में भी शानदार खेल दिखाया। लेब्रोन ने फाइनल्स में 35. 8 की औसत से अंक,13. की औसत से रिबाउंड और 8.8 की औसत से असिस्ट किया। लेकिन इसके बावजूद लेब्रोन वो नहीं कर सके जो करी ने कर दिखाया यानि अपनी टीम को चैम्पियन नहीं बना सके। अंतर इस बात का था कि लेब्रोन संग्राम में अकेले महारथी थे जबकि करी के साथ क्ले, ईगोड़ाला तथा अन्य खिलाड़ी कंधे से कंधा मिलाकर साथ खेल रहे थे। गोल्डन स्टेट वारियर्स एक मज़बूत टीम के रूप में लेब्रोन और एनबीए टाइटल के चट्टान की तरह अड़े थे जिसे भेद पाना लेब्रोन और उनकी टीम क्लीवलैंड कैवेलियर्स के लिए असंभव था। नए चैम्पियन और नए स्टार का स्वागत।

Tuesday 9 June 2015

क्या असंभव कुछ नहीं

                                  




                  फ्रांस की धरती से ही महान सेनापति नेपोलियन ने घोषणा 

की थी कि 'असंभव' शब्द उसके शब्दकोष में नहीं है। तब आज  

तक ना जाने कितने लोगों ने उससे प्रेरणा ली होगी। और निश्चित हीजब 

आज शाम विश्व के न. एक खिलाड़ी नोवाक जोकोविच ने स्टेनीलास 

वारविंका के खिलाफ खेलने के लिए पेरिस के रोलां गैरों के सेंटर कोर्ट की 

लाल मिट्टी की सतह पर कदम रखे होंगे तो उनके दिमाग में नेपोलियन 

का वो कथन लगातार प्रहार कर रहा होगा। वे अपना नाम टेनिस के उन 

सात महान खिलाड़ियों की सूची में लिखवाने को बेताब होंगे जिन्होंने 

टेनिस की चार ग्रैंड स्लैम प्रतियोगिता जीत कर अपना लाइफटाइम ग्रैंड 

स्लैम पूरा किया है। वे क़्वाटर फाइनल में लाल मिट्टी के सुपरमैन नडाल 

को और सेमी फाइनल में अपने लक्ष्य के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी एंडी मरे को 

रास्ते से हटा चुके थे। वे जानते हैं कि वे 28 के हो चुके हैं।और समय रेत 

की तरह उनके हाथ फिसल रहा है। अब उन्हें केवल एक बाधा पार करनी 

थी।लेकिन वे इतिहास बनाने की जगह इतिहास को दोहरा रहे थे। 2012 

और 2014 की तरह वे एक बार फिर फाइनल में हार गए।ये सिद्ध करनेके 

लिए कि 'उनके शब्द कोष में भी असंभव शब्द नहीं है' बारह महीनों का 

लंबा इंतज़ार करना होगा। इस बीच सीन नदी में बहुत पानी बह चुका 

होगा और उनके आंसू मृत सागर के खारेपन को कुछ और बढा चुके होंगे।




Sunday 7 June 2015

एक कहानी अधूरी सी



क्लासरूम में
कभी ख़त्म ना होने वाली 
हमारी बातों के बीच 
वो अनकहा
और पलास के सिंदूरी दहकते फूलों से लदे पेड़ों के नीचे टहलते हुए
हमारी लम्बी खामोशियों के बीच 
बहुत कुछ कहा गया

सीनेट हाल के कॉरीडोर में तैरती हमारी फुसफुसाहटें

और चबूतरे पर बैठकर गाये गीतों की हमारी गुनगुनाहटें

आनंद भवन के सीढ़ीनुमा लॉन पर 

गूंजती हमारी खिलखिलाहटों से
मिलकर बनी 

गुलाब के अनगिनत रंगों की मौज़ूदगी में

अनजाने लोगों के होठों पर तैरती रहस्यमयी मुस्कान
और उनकी आँखों की चमक से
साहस पाती हमारी कहानी

बन चुकी थी प्रतिरोध का दस्तावेज

जिसे जाना था संगम की ओर
मिलन के लिए
पर पता नहीं
क्या हुआ
क्यों बहक गए तुम्हारे कदम 
और चल पड़े कंपनी बाग़ की तरफ
जहाँ ब्रिटेन की महारानी की तरह
तुम्हें करनी थी घोषणा
एक युग के अंत की
ताकि सध सके तिज़ारत का बड़ा मुक़ाम।



Monday 1 June 2015

तिलिस्म




बताओ तो ज़रा
कैसे बिना कोई शिकन लिए चहरे पर
बने रहते हो इतने बड़े कलाकार
कि गरीब की थाली में परोसकर कुछ आश्वासन
छीन लेते हो उसके मुँह का कौर
और वादों का झुनझुना पकड़ाकर
कर लेते हो मासूम सपनों को 
अपनी तिज़ोरी में कैद 

बताओ तो ज़रा

'एकता' के नारे डालकर मज़दूर की झोली में  
कैसे उसकी बिछावन को
बना लेते हो अपने पैरों के नीचे की रेड कार्पेट
कैसे किसान में 'अन्नदाता' होने का सब्ज़बाग़ जगाकर
उसकी  हाड़तोड़ मेहनत के अन्न को  
बदल देते हो अपनी रंगीन शाम के 'चखना' में 


कुछ तो खुलो

बताओ तो ज़रा
कैसे खून के लाल रंग को
हरे भूरे नीले सुफ़ेद रंग में बदल कर 
कर देते हो रंग बिरंगा
और उससे लगी आग के धुँए से कर देते हो पूरे आसमां को स्याह
आखिर कैसे आदमी के दुखों को बना लेते हो
अपने बेहया सुखों का तकिया
और बनकर तीन बंदर
बजाते हो चैन की बंशी।

कुछ तो बताओ

कैसे आदमी के भीतर सुलग रही आग को
अपनी धूर्तता भरी आवाज़ से साधकर
 बना लेते हो अपनी ताकत तथा 
अपनी अय्याश सत्ता की नींव। 


कुछ तो गिरह खोलो और बोलो 

कुछ तो पता चलने दो 
आदमी से सत्ताधारी मठाधीश बनने के 
'अनिर्वचनीय सुख' वाले तिलिस्मी सफ़र का 
ताकि कोशिश हो सके इस तिलिस्म से बचाने की 
आने वाली नस्लों को।

ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...