Friday 25 September 2015

तुम्हारी आँखेँ



मैं जानता हूँ 
तुम्हारी ये छोटी छोटी गोल सी आँखे 
ना तो नीली झील सी गहरी  हैं 
कि इनमें डूब जाऊं मैं 
ना ही ये चंचल चितवन मृग नयन जैसी है 
जिनसे प्यार में डूब सकूँ मैं 
कमल दल जैसी भी नहीं हैं 
कि पूजा कर सकूँ मैं 
फिर भी बहुत खूबसूरत हैं तुम्हारी आँखें 
उतर आता है खूं  उनमें आज भी 
हर बेजा बात पर 
बचा हैं इनमें पानी 
नहीं मरा है अभी तक 
इन आँखों का पानी। 
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Thursday 17 September 2015

ख़्वाहिशें


 हर सुबह 
 जो ख़्वाहिश उग आती है 
 चमकते सूरज की तरह

 शाम ढले
 मद्धम हो बदल जाती है 
 चाँद में 

 और हर रात धीरे धीरे मरते हुए 
 बन के सितारा  
 जड़ जाती है 
आकाश में 

 बस रोज़ यूँ ही बढ़ता जाता है 
 सितारों का ये जमघट 
 रफ्ता रफ्ता 
 तमाम होती  
 ज़िंदगी के साथ में।
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Wednesday 16 September 2015

कोई और घर ढूँढ़ते हैं



परजीवी
कुछ कीटाणु
कुछ विषाणु
कुछ वनस्पतियां
और एक खास प्रकार की आदमी की प्रजाति ही नहीं होते
सबसे बड़े परजीवी होते हैं हमारे दुःख


दुःख जब एक बार किसी से कर लेता है परिचय जाने अनजाने 
नहीं भूलता जल्द उस को 
पहले कभी कभी मिलना होता है दुःख का उस व्यक्ति से 
धीरे धीरे गाढ़ा होने लगता है परिचय 
फिर उसके अंदर ही बना लेता है पैठ 
तब मज़े से भीतर ही भीतर जीवन रस पीकर
दुःख अपने अंदर से ही पैदा कर देता है कुछ और दुखों  
कमी पड़ती है तो कुछ और दुखों को कर लेता है बहार से आमंत्रित 
सिलसिला तब तक अनवरत चलता रहता है 
जब तक वो व्यक्ति नहीं हो जाता मिट्टी 

तब दुःख बतियाते हैं 
उफ्फ ! कितना बेवफा निकला 
हमने जिसका अंत तक साथ नहीं छोड़ा 
उसने हमारी वफ़ा का ये सिला दिया 
चलो छोड़ो इसे 
कोई और ठिकाना ढूँढ़ते हैं 
और उसके आँगन में अपनी महफ़िल सजाते हैं। 

जो ना हो सका



प्रेम 
आदमी के भीतर 

आग सा सुलगा
बादल सा बरसा

फूल सा खिला 
कांटे सा चुभा 

पवन सा चला 
नदी सा बहा

अमृत सा हुआ
विष सा बुझा

बचपन सा मुस्काया 
बुढ़ापे सा रोया 

समंदर सा गहराया
आसमान सा फैला

पक्षी सा उड़ा 
पतंग सा कटा 

विश्वास सा जमा
विश्वासघात सा फटा

सब हुआ किया
फिर भी क्या आदमी सा जिया।
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ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...