Sunday 24 July 2016

उड़ान होंसले की



                 
           
 86.48 मीटर की एक छोटी सी उड़ान आपको आसमां पर बिठा सकती है। वो एक उड़ान आपकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी उड़ान हो सकती है। वो उड़ान आपको वो सब दे सकती है जिसकी कि  आपने सिर्फ और सिर्फ कल्पना की हो। द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका और नाज़ियों के अत्याचारों के मूक दर्शक उत्तरी पोलैंड के एक छोटे से  खूबसूरत से शहर बिदुगोष्ट में 23 जुलाई की रात में हरयाणा के पानीपत जिले के एक छोटे से गाँव के एक दुबले पतले लेकिन मज़बूत कन्धों वाले 18 साल के नीरज चोपड़ा ने जब अपनी पहली थ्रो में 79.66 मीटर जेवलिन फेंका तो ये दक्षिण अफ्रीका के जोहान ग्रोबलर की 80.59 से एक मीटर कम दूरी थी। उस समय नीरज सहित किसी को ये अनुमान नहीे  होगा कि उसकी अगली थ्रो एक नया इतिहास बनाने जा रही है।अपनी दूसरी थ्रो के लिए लगभग ढाई मीटर लम्बे और 800 ग्राम वजन वाले फाइबर के जेवलिन को जब नीरज के मज़बूत कंधे हवा में  उड़ान भरने के लिए फेंक रहे थे तो वे केवल एक जेवलिन नहीं फेंक रहे थे बल्कि उस प्रतियोगिता के नए विश्व रेकॉर्ड को भी उड़ान दे रहे थे जिस पर खुद नीरज के गौरव का और साथ साथ देश के गौरव का परचम लहरा रहा था।जब उनके भाले की नोक ने ज़मीन को छुआ तो स्कोर बोर्ड पर 86.48 अंकों के साथ नया 'विश्व रिकॉर्ड' शब्द  चमक रहे थे। उन्होंने दो मीटर से 2011 में लातविया के सिरमेस द्वारा 84.69 मीटर के रिकॉर्ड को ध्वस्त किया।
वे किसी  भी आयु वर्ग में ट्रैक एंड फील्ड प्रतियोगिता को जीतने वाले और विश्व रिकॉर्ड बनाने वाले पहले भारतीय एथलीट बन गए। इस प्रदर्शन की अहमियत को इस बात से समझा जा सकता कि ये इस वर्ष का आठवां  सबसे अच्छा प्रदर्शन है और ये ओलम्पिक स्वर्ण पदक विजेता त्रिनिदाद के वाल्कोट के इस साल के 86.35 मीटर से भी बेहतर है और 2012 के लन्दन ओलम्पिक में वाल्कोट द्वारा स्वर्ण जीतने वाली 84.58 मीटर फेंक से कहीं अधिक है। भले ही उनकी ये उपलब्धि अंडर 20 में हो और वे मिल्खा सिंह,पीटी उषा,अंजू बॉबी जॉर्ज,श्रीराम जैसे एथलीटों वाली ऊंचाईयों पर अभी नहीं पहुंचे हो पर उनकी ये उपलब्धि आश्वस्तकारी ज़रूर है।  

अलविदा नीलाभ सर


      

                    नीलाभ सर का यूं चले जाना अप्रत्याशित भी है और दुखद भी।उनका बहुआयामी व्यक्तित्व था।वे बेहतरीन अनुवादक थे,कवि थे,आलोचक थे,संपादक थे और इन सबसे ऊपर बिंदास जीवन जीने वाले जिंदादिल इंसान थे।लेकिन मेरे मन में उनकी जो पहली और सबसे बड़ी तथा महत्वपूर्ण छवि थी वो एक आला दर्जे के रेडियो प्रसारणकर्ता की थी।बात 1984 में इलाहाबाद आने से तीन चार साल पहले की है।उस समय बीबीसी पर कैलाश बुधवार,रमा पांडेय,अचला नागर की आवाज़ गूँजा करती थीं।अचानक एक दिन एक नई आवाज़ सुनाई दी।धीर गंभीर सी,ठहराव वाली,साफ़ शफ्फाक।मानो लय ताल में निबद्ध हो।कानों से होकर दिल में उतर जाने वाली।ये नीलाभ की आवाज़ थी।ये नीलाभ से पहला परिचय था।विवेचना हो,पत्रोत्तर हो,बच्चों का कार्यक्रम हो,खेल कार्यक्रम हो,वे हर कार्यक्रम को बड़ी संजीदगी से करते थे ।उन्होंने बीबीसी के लिए बहुत से बेहतरीन कार्यक्रम किए ।पर जैज संगीत पर किया गया उनका श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम अद्भुत था जिसमें जैज संगीत के उद्भव से लेकरउस समय तक के उसके विकास के बहाने अफ्रीकी अमेरिकनों के दुख दर्दको बड़ीही बारीकीऔर मार्मिकता से रेखांकित किया था।उसके बाद तो मैं उनके कार्यक्रमों का मुरीद हो गया।इलाहाबाद आने के बाद पता चला वे यहीं के हैं और अश्क जी के पुत्र हैं।लेकिन उनसे मिलना 1994 में आकाशवाणी में आने के बाद हुआ।वे स्वरबेला कार्यक्रम के लिए कविता पाठ करने आए थे।उनसे बीबीसी पर बात हुई।उसके बाद वे जब भी आकाशवाणी आते रेडियो प्रसारण पर बातें होती रहती।उन्होंने आकाशवाणी में कार्य नहीं किया पर उन्हें प्रसार भारती की कार्य प्रणाली की गहरी समझ थी।अभी कुछ दिन पहले अपने ब्लॉग पर लघु उपन्यास हिचकी में प्रसार भारती पर छोटी लेकिन अर्थपूर्ण टिप्पणी की थी।उनसे अंतिम मुलाकात दो ढाई साल पहले हुई थी जब वे आकाशवाणी इलाहाबाद द्वारा आयोजित 'शहर और शख्सियतें' विषयक संगोष्ठी में भाग लेने आए थे।अपने लेक्चर में उन्होंने अपने इलाहाबाद प्रवास के दिनों को और शहर को शिद्दत से याद किया।वेकाफी नोस्टेल्जिक हो गए थे।वो याद मन में कहीं अटकी है।पर बीबीसी स्टूडियो से निकल कर ट्रांज़िस्टर सेट से हम तक पहुँचीउनकी सदाबहार आवाज़ और कार्यक्रम सदैव उनकी याद दिलाती रहेंगी।अपने सबसे पसंदीदा ब्रॅाडकास्टर को विनम्र श्रृद्धांजलि।










Wednesday 20 July 2016

सच में तुम्हारा यूँ असमय चले जाना बेसबब है

        


         मोहम्मद शाहिद का चला जाना केवल एक खिलाड़ी का चला जाना भर नहीं है। एक पूरे युग का चला जाना है।ये हॉकी की एक पूरी शैली का चले जाना है।ये भारतीय हॉकी के गौरव के प्रतीक का चला जाना है।  क्रिकेट से पहले भारत की खेलों में पहचान हॉकी थी। हॉकी की पहचान खिलाड़ियों के कलात्मक खेल से थी। ये कलात्मकता खिलाड़ी के गेंद पर अद्भुत नियंत्रण से आती थी और ये अद्भुत नियंत्रण ड्रिब्लिंग से आता था। जिसमें भारतीय खिलाड़ी माहिर माने जाते थे।ध्यानचंद से लेकर धनराज पिल्लई तक। शाहिद उसी परम्परा के खिलाड़ी थे। उनका गेंद पर अद्भुत नियंत्रण था और गज़ब की तेजी भी। ये दोनों विशेषता मिलकर उन्हें एक लीजेंड बनाती थी। दरअसल वे हॉकी में दो युगों की संधिकाल के खिलाड़ी थे। उनके पहले का काल भारतीय हॉकी का स्वर्णिम युग  और बाद का उसके पतन का।  1975 में भारत ने विश्व कप जीता था। उसके बाद भारतीय हॉकी का पतन शुरू होता है और 1980 में ओलिम्पिक जीत शानदार तरीके से जलते दिए की अंतिम भभक भर थी जिसे शाहिद और जफ़र की  प्रतिभा और मेहनत ने संभव बनाया था। 1975 तक गोविंदा और अशोक की जोड़ी जिस शानदार आक्रमण पंक्ति का निर्माण करती थी, गोविन्द और अशोक के जाने के बाद खाली हुए उस स्थान को शाहिद और ज़फर की जोडी ने भरा था। दूसरी और वे  उस संधि काल के खिलाड़ी थे जहां हॉकी विशुद्ध खेल से व्यवसायिकता में रूपांतरित हो रहा थी,जहां से हॉकी प्राकृतिक घास के मैदान से कृत्रिम घास के मैदान की ओर संचरण कर रही थी.जहां से हॉकी की कलात्मकता शक्ति में तब्दील हो रही थीऔर जहां से विशिष्ट हॉकी टोटल हॉकी की ओर बढ़ रही थी। ऐसे संधि काल में खेलना और उसमें सर्वाइव करना सबसे कठिन होता है। जाते हुए और आते हुए के बीच सामंजस्य बिठाना बहुत ही दुष्कर कार्य  होता है।ऐसे समय में खेल के उच्च्तम स्तर तक पहुंचने का काम कोई लीजेंड ही कर सकता था।ये मो.शाहिद ने कर दिखाया था। सच में तुम्हारा यूँ असमय चले जाना बेसबब है।अलविदा।  

Friday 1 July 2016

मेस्सी

           
         
            ऊँचाई कितना सकारात्मक शब्द है ! हर आदमी उस बुलंदी,उस ऊंचाई पर पहुंचना चाहता है जहाँ अब तक कोई ना पहुंचा हो। लेकिन शब्द की भावाभिव्यञ्जना निरपेक्ष नहीं होती। अलग अलग सन्दर्भ एक ही शब्द को  अलग अलग तासीर में आपके समक्ष ला खड़ा करते हैं। 'ऊंचाई' एक ऐसा शब्द जो हमेशा  आपके कानों में सकारात्मक प्रतिध्वनि उत्पन्न करता है,जो हमेशा आपको कुछ बेहतर करने की प्रेरणा देता है,आपको सुनने में अच्छा लगता है, वही शब्द आपके दिमाग में एक विलेन की तरह चस्पा हो सकता है,आपको अवसाद में डुबो सकता है,आपको निराशा और अन्धकार के गहनतम धरातल पर ला पटक सकता है। ये बात मेस्सी के दुनिया भर के उन लाखों करोड़ों चाहने वालों से बेहतर कौन जान सकता है जो रविवार की रात को कोपा अमेरिका कप का फाइनल देख रहे थे। मेस्सी की पेनाल्टी किक की उस थोड़ी सी अतिरिक्त ऊंचाई ने बिना आवाज़ किये ही अजेंटीनावासियों के उनकी टीम द्वारा कोपा अमेरिका कप जीतने के स्वप्न को ही चूर चूर नहीं किया था बल्कि मेस्सी के फैंस के दिलों को भी तार तार कर  दिया।मेस्सी एक बार फिर खाली हाथ रह गए। ये चौथी बार हो रहा था कि मेस्सी फाइनल में अपने देश को जीत नहीं दिला सके। इन चार फाइनल में 2014 का विश्व कप का फाइनल  भी शामिल था। वे एक बार फिर अपने देशवासियों सहित करोड़ों लोगो की भरी उम्मीदों के बोझ तले दब कर रह गए। वे अपने ही देशवासी माराडोना या पेले की तरह महानतम नहीं बन पाए क्योंकि वे कोई ख़िताब नहीं जीत पाए। रविवार की रात को उस पेनाल्टी किक को बाहर मारने का असहनीय दर्द बच्चे सी मासूमियत वाले मेस्सी के चेहरे की उदास सूनी आँखों से होता हुआ उनके हर चाहने वाले के सीने  पर नुमाया हो रहा था।बॉल की उस अतिरिक्त ऊंचाई ने हमारे समय के सबसे सच्चे खिलाड़ी के खेल से पूरी दुनिया को महरूम कर दिया क्योंकि अब वे अपनी राष्ट्रीय टीम के लिए उपलब्ध नहीं रहेंगे और किसी भी खिलाड़ी का सर्वश्रेष्ठ  अपनी राष्ट्रीय टीम के लिये ही होता है। 
                                             
     हो सकता है वे अपने समकालीन रोनाल्डो क्रिस्टियानो की तरह परफेक्ट ना हो या फिर वे माराडोना की तरह ईश तुल्य भी न हो जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपना सम्पूर्ण झोंक देने के अतिरिक्त  ज़रुरत पड़ने पर बेईमानी भी कर सकता हो जैसे कि हमारी पौराणिक कथाओं में तमाम चरित्र मिलते हैं या फिर पेले की तरह महानतम भी ना हो जिसने अपने देश ब्राज़ील को सफलता की बुलंदियों पर पहुंचाया हो। दरअसल वो अपूर्णताओं का खिलाड़ी था। वो एक ही समय में अविश्वसनीय किक से गोल कर सकता था और अगले ही क्षण पेनल्टी को जाया कर सकता था।  वो एक ही समय में दुनिया भर  श्रेष्ठ रक्षकों को छका सकता  था और साधारण से गोलकीपर से मात खा सकता था।  अपने खेल के दम पे  अपनी टीम को उस समय  जीता सकता था जब कोई उम्मीद नहीं कर रहा हो और जब उससे सबसे ज़्यादा उम्मीद हो तो सबको नाउम्मीद भी कर सकता था।नाउम्मीदी में शानदार खेल दिखा सकता था और उम्मीदों के बोझ से ढेर भी हो सकता था।  वो मैदान में हर क्षण  खेल को जीता था। जब वो ये कहता है कि 'उसे खेलने में जब तक गली मोहल्ले में खेलने वाले लडके की तरह आनंद आता रहेगा वो खेलता रहेगा' तो उस समय उसके भीतर का सच्चा खिलाड़ी बोल रहा होता है। दरअसल उसके खेल की यही अनिश्चितता और अपूर्णता उसे सच्चा खिलाड़ी बनती है और  विशेषता उसे औरों से अलग ही नहीं करती बल्कि एक खिलाड़ी के रूप में महानतम बनाती है।  वो असाधारण प्रतिभा वाला खिलाड़ी था लेकिन उसमें साधारण खिलाड़ी वाली कमजोरियां भी थीं गली में खेलने वाले लडके की तरह। यही साधारणता उसे असाधारण बनाती है। याद कीजिये सचिन तेंदुलकर को ना तो वे लॉर्ड्स के मैदान पर शतक बना सके और ना ही कोई टीहरा शतक लगा सके। ये असफलता उनकी महानता को काम नहीं कर सकती। कोई भी असफलता मेस्सी की महानता को भी कम नहीं कर सकती। वो असफलता पर दुखी हो सकता है और संन्यास लेने की घोषणा कर सकता है,लेकिन असफलताओं से अविचलित होने का दिखावा नहीं कर सकता। ये एक सच्चा खिलाड़ी ही कर सकता है। एक 'सच्चे खिलाड़ी' को एक सलाम तो बनता है।  

















ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...