Wednesday 7 September 2016

दाना मांझी


                         
                
               दाना मांझी द्वारा अपनी पत्नी की लाश को कंधे पर रख कर की गई 12 किमी की उस यात्रा को कई दिन बीत गए हैं.... लेकिन अभी भी लग रहा है कि मानों वो यात्रा जारी है...... अंतर्मन में गहरे कहीं .....बार बार भीतर के मनुष्य को परखने की कोशिश में .....कि अगर वो कही तुम्हारे रास्ते में आता तो तुम क्या करते। क्या उसी तरह एक फोटो खींच कर तमाशा देखते रहते या मुँह फेर कर आगे बढ़ जाते। हर बार जवाब हाँ में ही आता है। आखिर हम रोज यही तो करते हैं.... दाना  मांझी की घटना पहली नहीं है और आख़िरी भी नहीं ... ऐसी कितनी ही घटनाएं हमारे आस पास घटती जाती हैं और हम उन्हें बस देखते जाते हैं। दरअसल ये घटना आदिम समाज से लेकर पूंजीवाद तक की मनुष्य की विकास यात्रा में मनुष्य के धीरे धीरे 'हम' के 'मैं' बदल जाने को और मरती जाती संवेदना को अपनी पूरी विद्रूपता के साथ प्रस्तुत करती है।इसका होना कोई आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य तो तब होता जब उस 12 किमी यात्रा के बीच में कहीं कोई पीछे से आता और धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखता और कहता मेरा कंधा भी तुम्हारे साथ है,फिर कोई और आता,फिर एक और आता और फिर 'चले थे जानिबे मंज़िल अकेले,लोग आते गए कारवाँ बनता गया' की तर्ज़ पर एक बड़ा कारवाँ बन गया होता। तब होता आश्चर्य .....तब होता अजूबा।  
                    दाना के लिए कोई दया या सहानुभूति नहीं उपजती क्योंकि वो हीरो हैं दशरथ मांझी की तरह। 12 साल की अबोध बालिका के साथ कंधे पर अपनी मृत अर्धांगिनी को उठाए दीना एक अद्भुत कारुणिक दृश्य पैदा करता करता है जिसकी पृष्ठभूमि में करुणा का सागर लहरा रहा है। दाना एक ऐसा मनुष्य जिसके पास अपराजेय साहस और अकल्पनीय होंसला है,जिसके मन में प्रेम की अजस्र धारा बह रही है।सरकारी उपेक्षा,उदासीनता और असंवेदनशील रवैये से उपजी उसकी पीड़ा को समझा जा सकता है कि सरकारी वाहन आने का इंतज़ार किये बिना अपनी मृत पत्नी को अपने कंधे पर उठा कर अबोध बालिका के साथ चल देता है।एकदम अकेले.... कंधे पर मृत पत्नी....12 किमी दूरी .... .अद्भुत जीवट है,साहस है,होंसला है और अदुर्दमनीय जिजीविषा है। उस यात्रा के बीच हज़ारों लोग और साथ में मीडिया उसे देखते जाते हैं फोटो खींचते है वीडियो बनाते हैं। हमारे जैसे उन हज़ारों नपुंसकों के बीच वो अकेला है अविचल,अटल,निष्पृह भाव से चला जा रहा है। ऐसा साहस बिरला होता है। वो उसके सुख दुःख की संगिनी थी,एक लंबा समय साथ बिताया था,नेह का अटूट बंधन। उसे अंतिम विदाई उसकी अपनी माटी में देना चाहता था उसके अपनों के बीच। चाहता तो वहीं अंतिम संस्कार कर सकता था। कोई साधन न होने पर खुद के कंधे पर उठा लेता है। उसने प्रेम के ढाई आखर को सही मायने में गुना था। वो जानता था प्रेम की डगर आसां नहीं होती। वो कठिन राह चुनता है।  दरअसल उसकी ये यात्रा ताजमहल से बड़ा शाहाकार है। ये दशरथ मांझी की २२ बरसों की लंबी यात्रा से आगे की यात्रा है। 






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