Wednesday 7 September 2016

रियो व्यथा कथा

   

                                            कथा-1 

            बात जुलाई 2014 की है। ब्राज़ील में विश्व कप फुटबॉल प्रतियोगिता खेली जा रही थी। 8 जुलाई के दिन जर्मनी की टीम  उस विश्व कप को जीतने की सबसे प्रबल दावेदार मेजबान ब्राज़ील की टीम को ही नहीं रौंद रही थी बल्कि लाखों ब्राजील वासियों और उस टीम को चाहने वालों के सपनों को भी रौंद रही थी। उधर जर्मनी की टीम गोलों की झडी  लगा रही थी और इधर हर ब्राजीलवासी की आँख से आसुओं की धार बह रही थी क्योंकि तब उस पानी की ज़रूरत ब्राजीलवासियों को सबसे ज्यादा होनी थी। तब प्रकृति ने विधान रचा था कि प्रशांत महासागर के दक्षिणी अमेरिकी तट में होने वाली अल नीनो प्रक्रिया से हिन्द महासागर के देशों में कम वर्षा होगी।अब 2016 में एक बार फिर प्रकृति ने हमारे दर्द को समझा है।इस बार आँखों से पानी बहाने की ज़रुरत हमें है। जगह वही है ब्राजील।अवसर भी खेल आयोजन का है। 31वें ओलम्पिक खेलों का।यहां पर अब तक का सबसे बड़ा भारतीय ओलम्पिक दल खाली हाथ है। जिससे डबल डिजिट में पदकों की उम्मीद की जा रही थी उससे अब डबल पदक की उम्मीद भी जाती रही है। इस बार भारतीयों की उम्मीदें स्वाहा हो रही हैं। दर्द भारतीयों की आँखों से बह रहा है।इसीलिये अल नीनो यहाँ पर खूब पानी बरसा रहा है।हमारे साथ प्रकृति भी ग़मज़दा है। हमारे दुःख में हमारे साथ है। अभी कुछ दिन ऐसे ही पानी बरसेगा। आप अपने को अकेला मत समझिए।   


                                             कथा-2


    ज़िंदगी जब निराशा और हताशा के घने काले बादलों से आवृत हो ऐसे समय में क्षण भर के लिए चमकने वाली बिजली भी उम्मीद की बड़ी किरण लगती है। वो आपमें आशा और विश्वास का संचार कर देती है। रियो में भारतीय खिलाड़ियों के घोर निराशाजनक प्रदर्शन के बीच दीपा करमाकर का शानदार प्रदर्शन बिजली की तरह कौंध जाता है और हममें उम्मीद और विश्वास की किरण जगा जाता है।रियो ओलम्पिक में 120 खिलाड़ियों का भारतीय दल 11वें दिन भी खाली हाथ खड़ा है।अब तक जो तीन सबसे अच्छे प्रदर्शन हैं वे दीपा,अभिनव बिंद्रा और सानिया -बोपन्ना के हैं। ये तीनों ही कांस्य पदक से चूक कर चौथे स्थान पर रहे हैं। जहां बिंद्रा और सानिया-बोपन्ना का प्रदर्शन आपको निराश करता है वहीं दीपा का प्रदर्शन आश्वस्ति की तरह आता है। दरअसल कुछ हार भी जीत  जितनी ही  खूबसूरत  होती हैं क्योंकि वे आने वाले कल की सुन्दर तस्वीर बनाती हैं। दीपा का चौथे स्थान पर रहना भी उसके पदक जीत लेने जैसा अहसास दिलाता है। 
         एक तरफ अभिनव बिंद्रा हैं जिनके पास ढेर सारा अनुभव है। वे इसी प्रतियोगिता में स्वर्ण जीत चुके हैं। उनके पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है। उनकी अपनी शूटिंग रेंज है। वे जब चाहते है जहाँ चाहते हैं देश से लेकर विदेश तक प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। उनके पास सबसे महंगे उपकरण हैं। सानिया -बोपन्ना विश्व के डबल्स के श्रेष्ठ खिलाड़ी है जिनके पास ना तो अनुभव की कमी है, प्रशिक्षण की ना और किसी तरह के संसाधनों की। वे एटीपी टूर्स में खेलते हैं शानदार प्रदर्शन करते हैं। लेकिन ओलम्पिक में सब के सब फुस्स हो जाते हैं। ऐसे देश के सुदूर पूर्व के छोटे से राज्य त्रिपुरा से एक साधारण सी लड़की असाधारण प्रदर्शन कर आपके लिए,देश के लिए गौरव के क्षण ले आती है। ये उसके भीतर का जोश है,जूनून है,लगन है,महत्वाकांक्षा है,उसके भीतर की आग है, जो उसे ना केवल  अपनी शारीरिक अक्षमता से लड़ने की ताक़त देती है बल्कि अभावों ,संसाधनों की कमी ,सिस्टम के दुष्चक्र को तोड़ कर ,उससे जूझ कर एक शानदार जिम्नास्ट में  तब्दील कर देती है। उसने एक ऐसे खेल में भारत को पहचान दिलाई में जिसमें वो कहीं नहीं है। उसने क्वालीफाई करने के समय से लेकर अब तक निरंतर अपने प्रदर्शन में सुधार किया है और आज चार सर्वश्रेष्ठ  जिम्नास्ट में शुमार हो गयी है। उसने ये दिखाया है कि जीत केवल सुविधाओं और संसाधनों की मोहताज़ नहीं होती बल्कि जोश ,जूनून ,लगन, कड़ी मेहनत और जज़्बे से जीत आती है।  



                                               कथा-3 

         नारी शक्ति ज़िन्दाबाद-साक्षी मलिक,दीपा करमाकर,पी वी सिंधु,सानिया मिर्ज़ा और ललिता बाबर !


                                               
                                               कथा-4




           


 भारत के अब तक के सबसे बड़े ओलंपिक दल के औसत से भी कमतर प्रदर्शन से दिलों में जो निराशा का रेगिस्तान पसर गया था उस मरु भूमि में साक्षी और सिंधु की सफलता नखलिस्तान की तरह आती हैं।इन दो लड़कियों के पदकों के रंग अलहदा होने के बावजूद इनकी खनक की प्रतिध्वनि एक सी सुनाई देती है।इन्होंने सवा अरब भारतीयों को गर्व करने का मौका दिया।विश्व के दूसरे सबसे बड़ी आबादी वाले देश के अब तक के सबसे बड़े दल के खाली हाथ लौटने पर शर्मसार होने से बचाया।दरअसल इनकी सफलता की कहानी बहुत कुछ कहती हैं। इनकी सफलता इनके परिवार के त्याग और संघर्ष की गाथा,इनकी सफलता इनके प्रशिक्षकों की उनकी काबिलियत में विश्वास और उनके परिश्रम की कहानी,इनकी सफलता इनकी लगन,कड़े परिश्रम,जज्बे और हौसले की दास्ताँ ।ये दोनों ही दो नए मुकाम हासिल करती हैं।वे सफलता की नई इबारत लिखती हैं। इनकी जीत बताती है कि  सफलता संसाधनों और सुविधाओं से ज्यादा होंसलों और कठिन परिश्रम की मोहताज होती है।
           


 लेकिन जब जीत के इन दो लम्हों को ध्यान से देखेंगे तो ऐसा भी लगेगा कि इनकी जीत के क्षणों की तस्वीरों से तमगों के अलहदा अलहदा रंगों की तरह छवियां भी जुदा जुदा सी बन रही हैं।सिंधु अपने सारे भोलेपन के बावजूद अभिमान और अभिजात्य से लबरेज दिखाई  है। हर जीत पर मुट्ठी भींच कर अपने को चीयर अप करने में उसमें कूट कूट कर भरा आत्मविश्वास छलक छलक जाता है। तो दूसरी और पहलवान की तमाम कठोरता चेहरे पर होने के बावजूद साक्षी के चेहरे से एक भदेसपन और करुणा बहती रहती है। वे दोनों ही एक से कार्य को अंजाम देती है फिर अंतर ? ये अंतर उनके  सामाजिक पृष्ठभूमि से और उनके खेल से तो नहीं उपजता? साक्षी उस समाज से आती है जहां खाप पंचायतें हैं,जहाँ लैंगिक अनुपात देश में सबसे कम है,जहां लैंगिक भेद अपने क्रूर रूप में है,जहाँ से देश का प्रधानमंत्री बेटी बचाओ बेटी बढाओ का कार्यक्रम शुरू करता है।एक ऐसे समाज में जहां लड़की को अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए कदम कदम पर संघर्ष करना पड़ता हो,वहां उसकी दृढ़ता और मजबूती में करुणा अन्तर्निहित हो ही जाती है। दूसरी और सिंधु दक्षिण के उस समाज से हैं जहां अपेक्षाकृत लैंगिक भेदभाव बहुत कम है,समानता और सम्मान  है। उसे आगे बढ़ने में उस तरह के सामाजिक अवरोधों का सामना नहीं करना पड़ता। इसीलिये उसमें अपने होने का आत्मविश्वास होता है। ये खेल का अंतर भी है। कुश्ती ज़मीन से जुड़ा खेल तो बैडमिंटन एलीट खेल।तो कुश्ती और उसके खेलने वालों में एक खास तरह का भदेसपन आना ही है।अपनी शिष्या को अपने कंधे पर बैठा कर एक कुश्ती का कोच की एरीना  चक्कर लगा सकता है।        पर अन्तर चाहे जो हो जेंडर बाएस्ड वाले इस देश में ये लडकियाँ ही जो देश की उम्मीदों का संबल हैं। एक सलाम तो बनता ही है फिर वो सिंधु साक्षी हो या दीपा अदिति सानिया और ललिता हो या कोई और। 






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