Wednesday 12 October 2016

बिखरी स्मृतियाँ_1

  
        स्मृतियाँ तरल होती हैं।आप जब भी रिक्त होते हैं,शुष्क से,वे आपको तरल कर जाती हैं।10 Oct 2015 की पोस्ट से /मित्र के जन्मदिन को याद करते हुए-----
तुमने एक कहानी सुनाई थी। एक आठ दस साल का लड़का एक बगीचे से अक्सर गुलाब के फूल चुराता था। एक दिन चौकीदार ने पकड़ लिया और कमरे में बंद कर दिया। लेकिन वो लड़का मस्त रहा। उसने कमरे में चारों और निगाह घुमाई तो उसे बैडमिंटन का रैकेट दिखाई दिया। अब लडके का पूरा ध्यान इस बात पर था कि उस रैकेट को भी साथ ले जाने की कोई संभावना बन सकती है क्या। तुमने ये कहानी उस समय सुनाई थी जब हम लोग दोस्त बन चुके थे और डी.एम.कम्पाउंड से अक्सर आलू खोद(सही शब्द चुरा कर) कर लाते और पास के ऑफिस के फेंके हुए कागज़ जला कर भूनते और खाते।वो लड़का कोई और नहीं तुम थे और वो रैकेट मेरा था। वो हम लोगों की पहली मुलाकात थी मैं तुम्हारी बहादुरी पर अचंभित था। दोस्ती परवान चढ़ती गयी। क्या बेफिक्री के दिन थे। आँखों में बड़े बड़े सपने थे पर उन सपनों को पूरा करने का कोई दबाव नहीं था। या यूँ कहो कि ये पता ही नहीं था कि सपनों को पाने के लिए कोई जद्दोज़हद भी करनी होती है।बस सपनों पर सवार रोज़ शाम अपनी अपनी साइकिलों पर उस छोटे से शहर को एक छोर से दूसरे छोर तक आकाश में आवारा बादलों की तरह नापते रहते।उस घुमक्क्डी में ना जाने कितने ठौर आते। जीआईसी, अलीगंज अड्डा,जेल रोड,क्रिश्चियन कॉलेज,हाथी दरवाज़ा,घंटाघर,ग़ांधी मार्केट,अरुणानगर,हनुमान गढ़ी,माल गोदाम और भी ना जाने कितने रास्तों से गुज़रते, पर आख़िरी पड़ाव अवनींद्र का घर ही होता और कई कई जग पानी पीते। वो रोज़ गाली देता और आने के लिए मना करता और हम रोज़ वही पहुँच जाते। लेकिन धीरे धीरे वे सपने जो कभी बादलों की मानिंद होते,उम्मीदों के बोझ से भारी होने लगे। किशोरावस्था की वो मस्ती और बेफिक्री धीरे धीरे कब ज़िंदगी से फिसलने लगी थी पता ही नहीं चला,कम से कम उस समय तक तो बिलकुल नहीं जब तक तेरे उस शहर में रहे। आज जब तुम अपना एक और जन्मदिन मना रहे होतो तुम्हें उन यादों में घसीट कर ले जाकर छोड़ देता हूँ। 
जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक हो। जुग जुग जियो बेटा!
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यादें याद आती हैं

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