Friday 14 October 2016

'तेरे बिना गुज़ारा ऐ दिल है मुश्किल'


सांसों का नाद सौंदर्य  अद्भुत है।
दरअसल साँसे ज़िन्दगी का रागात्मक संगीत है
और साँसे स्त्री पुरुष के रागात्मक संबंधों का जीवन भी है
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जब आप किसी किसी ऐसे माध्यम में काम करते हैं जहां आपके पास सम्प्रेषण के लिए टूल्स के रूप में सिर्फ ध्वनियाँ है। अपनी बात को कहने के लिए उन ध्वनियों से खेलना पड़ता हो। तो वे ध्वनियां आप में रच बस जाती है और आप उनमें।आप उन्हें जीने लगते हैं। उनमे से कुछ ध्वनियां आपको अपना दीवाना बना लेती है। साँसों  का नाद सौंदर्य मुझे हमेशा से ही आकर्षित करता रहा है। वे होती ही इतनी सेंसुअस ( sensuous)हैं कि वे बरबस आपको अपनी और खींच लेती हैं।
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जिस समय आकाशवाणी में काम करने आया सांसों पर नियंत्रण बड़ी कला  मानी जाती थी। उद्घोषक से अपेक्षा की जाती थी श्रोता को उसकी साँस नहीं सुनाई पड़नी चाहिए। यही कार्यक्रम प्रस्तोता से भी अपेक्षा की जाती थी और प्राय ऐसा ही होता भी था। उच्चरित शब्दों के कार्यक्रम (स्पोकन वर्ड ) यथा वार्ता,भेंटवार्ता,बातचीत,परिचर्चा में भाग लेने आने वाले विशेषज्ञों से भी इसी तरह की अपेक्षा होती। यदि उनकी आवाज़ आती भी तो उसको एडिट करने की कोशिश की जाती।ये आकाशवाणी की मान्य परम्परा थी और एक तरह का शुद्धतावादी दृष्टिकोण था।हाँ साँसों का उपयोग नाटक में खूब होता जहां इंटीमेट रिलेशन प्रेषण के लिए इससे उपयुक्त और उपलब्ध इफेक्ट कुछ नहीं हो सकता है। हां कोई संगीत एक विकल्प है लेकिन सिमित भूमिका के साथ। इतना ही कि साँसों से उत्पन्न प्रभाव की तीव्रता को वो कुछ और बढ़ा सकता है,उसे क्रिएट नहीं कर सकता। साँसे ना होने पर रेकार्डिंग या उद्घोषणाएँ साफ़ सुथरी होती है,उनमें एक निरंतरता बनी रहती है।साँसे श्रोता की एकाग्रता को भंग  करती है ऐसा माना जा सकता है। साफ़ सुथरी उद्घोषणाएं या कार्यक्रम सुनने का अपना मज़ा होता,अपना आनंद होता है। रेडियो सीलोन और वॉइस ऑफ़ अमेरिका में भी लगभग इसी तरह के कार्यक्रम होते। लेकिन इसके ठीक विपरीत जब आप बीबीसी से नीलाभ,अचला नागर राजनारायन बिसरिया,कैलाश बुधवार और तमाम लोगों की आवाज़ शार्ट वेव बैंड पर माइक्रोफोन से होती हुई ट्रांजिस्टर सेट से कानो में पहुँचती जिसमे साँसों की स्पष्ट और तीव्र ध्वनियाँ मिली होती तो वो कमाल का प्रभाव दिलोदिमाग पर असर करतीं। ऐसा नहीं कि बिना साँसों वाली आवाज़ आपको मदहोश नहीं करती लेकिन सांसो वाली आवाज़ों की कशिश कहाँ ?दरअसल वे आवाज़ बहुत ही सजीव और नेचुरल लगती हैं और अपनी सेंसुअलिटी से गजब का आकर्षण पैदा करती हैं।अधिक करीब लगती और उसी तीव्रता से कनेक्ट भी करतीं।
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यही बात संगीत में है। गायन में साँसों का नियंत्रण बहुत ही महत्वपूर्ण है। बरसों इसको साधना पड़ता है। ये बड़ी कला मानी जाती गायन में बीच में कितनी सफाई से सांस ले लें और श्रोताओ को पता ना चले। पुराने गाने में गायकों की साँसे नहीं ही सुनाई देतीं। लेकिन अब ऐसा नहीं है।अब आप गाने के बीच में गायक की साँसे सौ सकते हैं। बात लंबी हो गयी। दरअसल मैं बात सिर्फ एक गाने की करना चाहता था।रणबीर की नई फिल्म है 'ऐ  दिल है मुश्किल'.अरिजीत का गाया टाइटल ट्रैक है 'तू सफर है मेरा........' गज़ब का रोमानी।उसके मुखड़े को ध्यान से सुनिए।हाल के बरसों में कम से कम मैंने कोई ऐसा गाना नहीं सुना जिसमें साँसे इतनी प्रोमिनेन्ट हो।नहीं पता ये अनायास है या सायास। पर छोटे से पैच में इतनी बार। संगीत और आवाज़ के साथ साँसे क्या रूमानियत क्रिएट करती है। प्रीतम और अरिजीत के लिए एक वाह तो बनाता है। 
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'तेरे बिना गुज़ारा है ऐ दिल है मुश्किल'  









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