Monday 28 November 2016

चीजें अक्सर ऐसे ही बदल जाया करती हैं !


कुछ फासले 
दूरियां नहीं होती 
प्रेम होती हैं 

कुछ बातें 

बतकही नहीं होती 
प्रेम होती है

कुछ दोस्ती 

रिश्ते नहीं होतीं 
प्रेम होती हैं 

कुछ लड़ाईयां 

अदावतें नहीं होती 
प्रेम होती हैं 

प्रेम में चीजें

अक्सर
ऐसे ही बदल जाया करती हैं !  
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चीजें वैसी क्यों नहीं होती जैसी दिखाई देतीं हैं 

Sunday 27 November 2016

सैर कर दुनिया की ग़ााफिल

                 
          
                 हर आदमी अपनी तरह से देश दुनिया को देखना और समझना चाहता है।जितने बेहतर ढंग से आप जानना चाहते है,जितनी गहराई से जानना चाहते हैं उतनी ही ज़्यादा दुनिया भर की खाक छाननी पड़ती है कि 'सैर कर  दुनिया की गाफिल..।'यदि दुनिया की सैर करने का कोई गंतव्य चुनना हो तो यूरोप से बेहतर कोई और जगह शायद ही हो। इसका वर्तमान और अतीत दोनों इस कदर आपको सम्मोहित करते हैं कि बेसाख्ता उसके मोहपाश में बंधे चले जाते हैं।आधुनिकता की चकाचौंध वाले वर्तमान का एक रूमानियत भरा इतिहास है।यहां रोमन और ग्रीक सभ्यता के अवशेष हैं,गोथिक वास्तु शिल्प की शानदार इमारतें हैं,खूबसूरत शहरों के बीच बहती नदियों के अनुपम दृश्य हैं और प्राकृतिक सौंदर्य तो चारों और बिखरा पड़ा ही है।यूरोप को देखना जानना किसी का भी सपना हो सकता है सुशोभित शक्तावत जैसा..."शायद वह दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत शहर होगा नीदरलैंड्स का देल्‍फ़, जहां के उजले नीले रंगों को वर्मीर ने अपने पनीले-से कॅनवास पर उभारा था, जिसकी नहरें हरसोग की फिल्‍म में आज तलक लहलहाती हैं।और देन्‍यूब की बांक का वह शहर, जर्मनी का रेगेंस्‍बर्ग, जहां बवेरिया के घनेरे जंगलों की आदिम दास्‍तानें हैं। म्‍यूनिख़ के दुर्गों को देखना। फ़्लोरेंस, जिसके बाबत महाकवि शैली ने कहा था : "फ़्लोरेंस बीनेथ सन/ऑफ़ सिटीज़ फ़ेयरेस्‍ट वन।" और, ऑफ़कोर्स, वेनिस। वेनिस में आहों के पुल पर खड़े होकर सुबकना है।और नीली देन्‍यूब के वो दो दिलक़श सपने : वियना और बुदापेस्‍त। वियना में मोत्‍सार्ट की वायलिन की छांह तले सपने देखना है। साल्‍त्‍सबर्ग में 'फिगरो के ब्‍याह' वाला ऑपरा सुनना है। स्‍ट्रॉसबर्ग में रेड वाइन के परदे के पीछे सिल्विया को खोजना है। क्रॉकोव देखना है, वॉरसा देखना है, ज़ख्‍़मी और लहूलुहान।  प्राग में वल्‍तावा के पुलों को गिनना है।"
                  कुछ ऐसे ही रूमानियत भरे यूरोप की उम्मीद की थी जब अनुराधा बेनीवाल के यूरोप के यात्रा वृतांत 'आज़ादी मेरा ब्रांड' को पढना शुरु किया था.लेकिन इस किताब को पढ़ते हुए आप जल्द ही एक दूसरी दुनिया में पहुंच जाते हैं।दरअसल हर यात्रा अलग होती है,उसका उद्धेश्य अलग होता है उसका निहितार्थ अलग होता है।घूमने के लिये की गयी यात्राएँ भी अलग-अलग होती हैं।इसीलिए 'आज़ादी मेरा ब्रांड' अन्य यात्रा वृत्तांओं से एकदम अलग है। अलग होना ही था। यात्रा का तरीका जो अलग था,उसका उद्धेश्य अलग था।ये एक तीस साला युवती का निपट अकेले,बहुत ही सीमित संसाधनों से एक महीने लंबी यूरोप की यात्रा का लेखा जोखा है जिसमें वो किसी होटल या हॉस्टल में नहीं रूकती,सार्वजनिक यातायात संसाधनों से यात्रा भी नहीं करती। वो अपने लिए स्थानीय लोगों में होस्ट खोजती है,उनके साथ रहती है,लिफ्ट लेकर यात्रा करती है और घूमती है।उसकी दिलचस्पी वहां के प्रसिद्द पर्यटक स्थलों को देखने से अधिक वहां के गली कूँचों की खाक छानने में है,वहां के लोगों से मिलने जुलने में है। दरअसल उसकी रूचि यूरोप में घूमने या उसे देखने में नहीं, उसे समझने में और उससे भी ज़्यादा अपने को देखने समझने में है। इसीलिये इसमें स्थूल वर्णन बहुत कम है। इस यात्रा वृत्तांत के कई पाठ किए जा सकते हैं या यूँ कहें कि साथ साथ होते चलते हैं । ऊपरी स्तर ये एक यात्रा वृत्तांत है। एक ऐसा इंटेंस वृतांत जिसमें  यूरोप को भौतिक रूप से नहीं बल्कि उसकी संस्कृति को उसकी आत्मा को समझने बूझने की लालसा है। उससे गहरे स्तर पर संस्मरण के रूप में एक आत्मकथ्य है-अपने को समझने बूझने का,अपना मूल्यांकन करने का,अपने भीतर की यात्रा करने का,अपने स्व को खोजने का। एक अन्य स्तर पर ये स्त्री विमर्श का आख्यान है। वो अपनी आज़ादी के बहाने स्त्री की आज़ादी का आख्यान रचती है।दैहिक और मानसिक  दोनों तरह की आज़ादी। केवल अपने लिए नहीं बल्कि हर स्त्री के लिए। जिस्मानी आज़ादी के सन्दर्भों का बार बार उल्लेख करती है। ये कई बार दोहराव लगते हैं। आरोपित से प्रतीत होते हैं। इसके बावज़ूद आपकी एकाग्रता भंग नहीं करते।जो भी हो ये एक शानदार किताब है जिसे ज़रूर से पढ़ा जाना चाहिए। ये जगहों को देखने का,घुमक्कड़ी करने का एक नया नज़रिया देती है। इस सप्ताहांत इस किताब के ज़रिए यूरोप को जानने के लिए एक नहीं बार बार 'वाह' तो बनते ही हैं। शुक्रिया अनुराधा बेनीवाल। 

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'तुम चलोगी तो तुम्हारी बेटी भी चलेगी और मेरी बेटी भी....
अपने तक पहुंचने के लिए और अपने को पाने के लिए घूमना,तुम घूमना'














Saturday 26 November 2016

तोत्तो चान




           ये सप्ताहांत एक प्यारी सी चुलबुली बच्ची तोत्तो चान के साथ बीता।सप्ताहांत ख़त्म होते होते उसका साथ भी खत्म हो गया।अरसा हो गया पर उसका साया लिपटा सा है अभी भी।अजीब सा हैंगओवर है।दरअसल तोत्तो चान तेत्सुको कुरोयानागी की एक छोटी सी पुस्तक है।140 पृष्ठों की।मूल रूप से जापानी भाषा में लिखी पुस्तक का बहुत ही अच्छा हिंदी अनुवाद किया है पूर्वा याज्ञीक कुशवाहा ने किया है।हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली और विशेष रूप से प्राथमिक के सन्दर्भ में बहुत ही प्रासंगिक पुस्तक है ये।हमारी शिक्षा प्रणाली ही ऐसी है जिसमें हम बच्चे की नैसर्गिक प्रतिभा का मार कर बहुत ही टाइप्ड किस्म का इंसान बनाते हैं।हमारी शिक्षा डॉक्टर, इंजीनियर,अफसर,बाबू तो पैदा करती है पर इंसान नहीं।निसंदेह अगर हमें अपने बच्चों को बेहतर इंसान बनाना है तो हेडमास्टर कोबायाशी के स्कूल तोमोए गाकुएन की तरह के इनोवेटिव तरीके ढूंढने ही होंगे।प्राथमिक शिक्षा से जुड़े नीति नियंताओं,अफसरों,शिक्षकों और निसंदेह अभिवावकों को भी ये किताब कम से कम एक बार ज़रूर पढ़नी चाहिए और कोबायाशी का कथन कि 'उनकी महत्वाकांक्षाओं को कुचलों नहीं,उनके सपने तुम्हारे सपनों से कहीं विशाल हैं' को ब्रह्म वाक्य की तरह अपने ज़ेहन में बनाए रखना चाहिए।

ज़िन्दगी


ज़िन्दगी 
सर्दियों के किसी इतवार की अलसुबह सी 
अलसाई अलसाई
बिस्तर में ही गुज़र बसर हो जाती है
ना आगे खुद बढती है
ना बढ़ाने की इच्छा होती है।
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Saturday 5 November 2016

जियो रवीश जियो



                                           टीवी ना के बराबर देखा जाता है। रेडियो सुनाने का शौक है। कल रवीश का प्राइम टाइम नहीं ही देखा था। चर्चा हुई तो आज रिपीट टेलीकास्ट देखा। इस प्रश्न को दरकिनार करते हुए भी कि एनडीटीवी पर प्रतिबन्ध उचित है या नहीं,रवीश का ये कार्यक्रम विरोध प्रदर्शित करने की कलात्मक अभिव्यक्ति का नायाब उदाहरण है। ये दिखाता है कि एक विरोध को शालीन और अहिंसक रखते हुए भी कितना धारदार और मारक बनाया जा सकता है। दरअसल ये कार्यक्रम बहुत ही मुलामियत से अंतर्मन को परत दर परत छीलता लहूलुहान करता जाता है और आपको पता भी नहीं चलने देता। ये बहुत ही मुलामियत से धीरे धीरे गला रेतता है जिससे खून का फव्वारा नहीं फूटता,छींटें भी नहीं पड़ते बल्कि दीवार में पानी की तरह रिसता है और आत्मा तक को सीला कर जाता है। इरोम शर्मिला और ऐसे ही प्रतिरोध के तमाम प्रयासों को,जिनके आप हिस्सा नहीं रहे हैं या जिनको आपने नहीं देखा है यहाँ महसूस कर सकते हैं। हांलाकि यहां मैं अर्नब का ज़िक्र नहीं करना चाहता,फिर भी उसके हद दर्जे के लाउड और हिंसक कार्यक्रम के बरक्स रवीश के इस कार्यक्रम को रख कर देखिए तो समझ आता है अभिव्यक्ति को और प्रतिरोध को भी किस तरह कलात्मक बनाया जा सकता है और जबरदस्त प्रभावी भी। टीवी पर अनर्गल प्रलाप और शोर के इस दौर में रवीश का कार्यक्रम मील का पत्थर है। जियो रवीश जियो।  

Wednesday 2 November 2016

अपने अपने युद्ध



ऐन उस वक्त 
जब एक युद्ध हो रहा होता है सीमा पर 
कई युद्ध कर रहे होते हैं लोग घरों में  
सीमा पे लड़े जा रहे युद्ध से अधिक विध्वंसक  
वे लड़ रहे होते हैं अपने अपने भय से। 

एक युद्ध कर रहे होते हैं माँ बाप

अपनी लाठी के हाथ से छूट जाने के भय से और 
जीवन की साँझ की उम्मीद 
दो मज़बूत कंधों के टूट जाने के भय से। 
पत्नी लड़ रही होती है
पहाड़ सी ज़िन्दगी से लड़ने वाले साथी का हाथ छूट जाने के भय से 
बहन लड़ रही होती है एक कलाई के खो जाने के भय से 
एक बेटी लड़ रही होती है
अपने सबसे बड़े हीरो की उंगली छूट जाने के भय से  
और वे सब एक साथ लड़ रहे होते हैं 
पेट की आग बुझाने के लिए होने वाली चिंता के भय से 

सुनो 

अब जब भी बात करो तुम युद्ध की 
एक बार उन युद्धों की सोचना 
जो किए जा रहे हैं अपने अपने सपनों के मरने के भय से 
और फिर कवि की  उक्ति याद करना कि
 'सबसे खतरनाक  होता है सपनों का मर जाना'
उसके बाद भी हिम्मत बचे 
तो बात करना युद्ध की।  

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क्या युद्ध इतने ज़रूरी होते हैं ?

ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...