Sunday 27 November 2016

सैर कर दुनिया की ग़ााफिल

                 
          
                 हर आदमी अपनी तरह से देश दुनिया को देखना और समझना चाहता है।जितने बेहतर ढंग से आप जानना चाहते है,जितनी गहराई से जानना चाहते हैं उतनी ही ज़्यादा दुनिया भर की खाक छाननी पड़ती है कि 'सैर कर  दुनिया की गाफिल..।'यदि दुनिया की सैर करने का कोई गंतव्य चुनना हो तो यूरोप से बेहतर कोई और जगह शायद ही हो। इसका वर्तमान और अतीत दोनों इस कदर आपको सम्मोहित करते हैं कि बेसाख्ता उसके मोहपाश में बंधे चले जाते हैं।आधुनिकता की चकाचौंध वाले वर्तमान का एक रूमानियत भरा इतिहास है।यहां रोमन और ग्रीक सभ्यता के अवशेष हैं,गोथिक वास्तु शिल्प की शानदार इमारतें हैं,खूबसूरत शहरों के बीच बहती नदियों के अनुपम दृश्य हैं और प्राकृतिक सौंदर्य तो चारों और बिखरा पड़ा ही है।यूरोप को देखना जानना किसी का भी सपना हो सकता है सुशोभित शक्तावत जैसा..."शायद वह दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत शहर होगा नीदरलैंड्स का देल्‍फ़, जहां के उजले नीले रंगों को वर्मीर ने अपने पनीले-से कॅनवास पर उभारा था, जिसकी नहरें हरसोग की फिल्‍म में आज तलक लहलहाती हैं।और देन्‍यूब की बांक का वह शहर, जर्मनी का रेगेंस्‍बर्ग, जहां बवेरिया के घनेरे जंगलों की आदिम दास्‍तानें हैं। म्‍यूनिख़ के दुर्गों को देखना। फ़्लोरेंस, जिसके बाबत महाकवि शैली ने कहा था : "फ़्लोरेंस बीनेथ सन/ऑफ़ सिटीज़ फ़ेयरेस्‍ट वन।" और, ऑफ़कोर्स, वेनिस। वेनिस में आहों के पुल पर खड़े होकर सुबकना है।और नीली देन्‍यूब के वो दो दिलक़श सपने : वियना और बुदापेस्‍त। वियना में मोत्‍सार्ट की वायलिन की छांह तले सपने देखना है। साल्‍त्‍सबर्ग में 'फिगरो के ब्‍याह' वाला ऑपरा सुनना है। स्‍ट्रॉसबर्ग में रेड वाइन के परदे के पीछे सिल्विया को खोजना है। क्रॉकोव देखना है, वॉरसा देखना है, ज़ख्‍़मी और लहूलुहान।  प्राग में वल्‍तावा के पुलों को गिनना है।"
                  कुछ ऐसे ही रूमानियत भरे यूरोप की उम्मीद की थी जब अनुराधा बेनीवाल के यूरोप के यात्रा वृतांत 'आज़ादी मेरा ब्रांड' को पढना शुरु किया था.लेकिन इस किताब को पढ़ते हुए आप जल्द ही एक दूसरी दुनिया में पहुंच जाते हैं।दरअसल हर यात्रा अलग होती है,उसका उद्धेश्य अलग होता है उसका निहितार्थ अलग होता है।घूमने के लिये की गयी यात्राएँ भी अलग-अलग होती हैं।इसीलिए 'आज़ादी मेरा ब्रांड' अन्य यात्रा वृत्तांओं से एकदम अलग है। अलग होना ही था। यात्रा का तरीका जो अलग था,उसका उद्धेश्य अलग था।ये एक तीस साला युवती का निपट अकेले,बहुत ही सीमित संसाधनों से एक महीने लंबी यूरोप की यात्रा का लेखा जोखा है जिसमें वो किसी होटल या हॉस्टल में नहीं रूकती,सार्वजनिक यातायात संसाधनों से यात्रा भी नहीं करती। वो अपने लिए स्थानीय लोगों में होस्ट खोजती है,उनके साथ रहती है,लिफ्ट लेकर यात्रा करती है और घूमती है।उसकी दिलचस्पी वहां के प्रसिद्द पर्यटक स्थलों को देखने से अधिक वहां के गली कूँचों की खाक छानने में है,वहां के लोगों से मिलने जुलने में है। दरअसल उसकी रूचि यूरोप में घूमने या उसे देखने में नहीं, उसे समझने में और उससे भी ज़्यादा अपने को देखने समझने में है। इसीलिये इसमें स्थूल वर्णन बहुत कम है। इस यात्रा वृत्तांत के कई पाठ किए जा सकते हैं या यूँ कहें कि साथ साथ होते चलते हैं । ऊपरी स्तर ये एक यात्रा वृत्तांत है। एक ऐसा इंटेंस वृतांत जिसमें  यूरोप को भौतिक रूप से नहीं बल्कि उसकी संस्कृति को उसकी आत्मा को समझने बूझने की लालसा है। उससे गहरे स्तर पर संस्मरण के रूप में एक आत्मकथ्य है-अपने को समझने बूझने का,अपना मूल्यांकन करने का,अपने भीतर की यात्रा करने का,अपने स्व को खोजने का। एक अन्य स्तर पर ये स्त्री विमर्श का आख्यान है। वो अपनी आज़ादी के बहाने स्त्री की आज़ादी का आख्यान रचती है।दैहिक और मानसिक  दोनों तरह की आज़ादी। केवल अपने लिए नहीं बल्कि हर स्त्री के लिए। जिस्मानी आज़ादी के सन्दर्भों का बार बार उल्लेख करती है। ये कई बार दोहराव लगते हैं। आरोपित से प्रतीत होते हैं। इसके बावज़ूद आपकी एकाग्रता भंग नहीं करते।जो भी हो ये एक शानदार किताब है जिसे ज़रूर से पढ़ा जाना चाहिए। ये जगहों को देखने का,घुमक्कड़ी करने का एक नया नज़रिया देती है। इस सप्ताहांत इस किताब के ज़रिए यूरोप को जानने के लिए एक नहीं बार बार 'वाह' तो बनते ही हैं। शुक्रिया अनुराधा बेनीवाल। 

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'तुम चलोगी तो तुम्हारी बेटी भी चलेगी और मेरी बेटी भी....
अपने तक पहुंचने के लिए और अपने को पाने के लिए घूमना,तुम घूमना'














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