Thursday 15 December 2016

लिखना 'प्रेम'






लिखना 'प्रेम'
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जब बहुत सारे लोग कर रहे थे प्रेम
सीखना चाहा था मैंने लिखना
लिखना 'प्रेम'

तमाम लोगो के प्रेम करते रहने के समय में

तुम अचानक से आई थीं एक दिन
भोर में फूल के पत्ते पर सिमटी ओस की बूँद की तरह
तब देखा था तुम्हें पहली बार
मन की ज़मीं पर टपका था एक बूँद प्रेम
जिसे बदल जाना था दरिया में
तब चाहा था लिखना प्रेम।

तुम  लगी थी मेरे प्रेम का आलंबन 

कुछ कुछ खड़ी पाई सी
और मैंने सीखा लिखना प्रेम के प की खड़ी पाई।

ये सीखना था बसंत के उल्लास सा

सब कुछ खिलने लगा था मन के क्षितिज तक
महकने लगा था अबूझ संसार
और मैं किसी डाल सा लचकने लगा था
तुम्हारे प्यार के फूलों को खुद पे सजाये हुए
और लचक कर झुक गया था तुम्हारी ओर
तुम्हारे स्वीकरण से मिल गया था मैं तुममें
सीख लिया था लिखना  प्रेम का 'प'।

तब बर्फ सी जमी तुम पिघलने लगी थी

मेरे प्रेम की उष्मा से
बहने लगी थी प्रेम की अजस्र धारा सी
मैंने सीख ली थी 'प्र' में लगाना र की मात्रा।

हमारे प्रेम के भार में

तुम झुकती गयी थी लगातार
इस कदर
कि तुमने खुद को बना लिया था हमारे प्रेम का आधार
कि तुम धंसने लगी थी ज़मीं में किसी पेड़ की जड़ सी
कि अपने को मिटा कर भी 
सींच रही थी प्रेम को
और मैं तुम्हारे प्रेम से फला फूला
तन गया था किसी पेड़ की सबसे ऊंची डाल सा
कि मैंने सीख ली थी प्रेम के प्रे में 'ए की मात्रा लगाना।

तुम प्रेम को प्रेम बनाए रखने के लिए

धंसती जा रही थी गहरे
और गहरे
और मैं प्रेम के आधे अधूरे प्रे को लिखना सीखने से गर्वोन्नत
तनता हुआ उठता जा रहा था ऊंचा
और ऊंचा
पर ये वो प्रेम तो नहीं था ना
कि हम जा रहे थे दो विपरीत ध्रुबों की ओर
तुम त्याग की मूर्ति
और मैं अहम् का पुतला बन।

आखिर कब तक तुम सींचती

अमर बेल से लिपटे हमारे प्रेम वृक्ष को
कि मेरे अमरबेल बन जाने से तय हो गयी
नियति हमारे प्रेम की
कि सूखना ही था प्रेम वृक्ष
और प्रेम वृक्ष के सूखते हुए देख 
लगा था हम दोनों को ही 
कि सूखने से बचाना है इसे 
तो दोनों को ही मुड़ना होगा विपरीत दिशा में 
कि तुम्हें कुछ सींचना होगा अपने स्व को 
और मुझे सुखाना होगा अपने अहम् को 
इसे सीखने में जो वक्त लगना था 
ये वही था जो लगता है 
'प्रे' से 'म' तक आने में।

तुम्हारे स्व के जगने 

और मेरे अहम् के मरने से 
हम एक बार फिर खड़े हो गए थे दो समानांतर पाई से 
कि समय की धूप छाँव ने सिखाया था 
प्रेम 
द्वैत के अद्वैत में बदल जाने में है 
आत्मा के परमात्मा में विलीन हो जाने में है  
मेरा तुम में समा जाने में है
और इस तरह 
समय की भट्टी में 
तुम्हारे प्रेम के ईंधन से जली आग के ताप से 
कपूर सा उड़ गया था मेरे भीतर का अहम् 
कि मैं पूरी तरह मुड़ के समा गया था तुम में 
और मैंने सीख लिया था लिखना प्रेम के 'म' को ।

हाँ अब ये सच था 

कि एक ऐसे समय में 
जब सब कर रहे थे प्रेम 
मैंने सीखा लिया था लिखना 'प्रेम'।  
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प्रेम करने वाले समय में प्रेम लिखना इतना खूबसूरत क्यूं होता है।

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