Tuesday 25 April 2017

सौरव गांगुली और मेस्सी


सौरव गांगुली और मेस्सी 
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       ये रविवार की रात रियाल मेड्रिड के घरेलू सेंटियागो बेर्नाबेउ स्टेडियम में अपने चिर प्रतिद्वंदी बार्सेलोना से खेले गए शानदार रोमांचक 'ऐल क्लासिको' मैच से कुछ दिन पहले 8 मार्च की बात है।कैंप नोउ में बार्सेलोना चैंपियंस ट्रॉफी के प्री क्वार्टर फाइनल मैच में फ्रांस की नम्बर एक टीम सेंट जर्मैन पेरिस के विरुद्ध खेल रही थी। वो पहले चरण के मैच में पेरिस की टीम से 4-0 से हार चुकी थी और इस दूसरे चरण के मैच में रेगुलर समय के दो मिनट शेष रहते बार्सेलोना को जीत के लिए तीन गोलों की ज़रुरत थी कि नेमार जूनियर ने दो मिनट में दो गोल कर दिए और फिर इंजरी टाइम में 95वे मिनट में सर्गियो रॉबर्टो ने गोल कर चैंपियनशिप का सबसे बड़ा कमबैक कर  इतिहास रच दिया।कल रविवार की रात वे एक बार फिर यही कारनामा दोहरा रहे थे। मैच 2-2 से बराबर था। इंजरी टाइम के अंतिम क्षण थे। केवल तीस सेकंड बाकी थे। सेर्गेई रोबर्टो लेफ्ट विंग से शानदार मूव बनाता है .पेनल्टी बॉक्स में गेंद मेस्सी के पास आती है और फिर मेस्सी के जादुई पैरों से दिशा पाकर वो गेंद 15 मीटर की दूरी तय कर रियाल मेड्रिड के गोलकीपर नवास  के दाहिने से गोलपोस्ट के भीतर धंस जाती है। ये इस शानदार मैच का आख़री शॉट था जिससे उसने ना केवल अपने चिर प्रतिद्वंदी को 3-2 से परास्त कर दिया था बल्कि ये बार्सिलोना के लिए मेस्सी के जादुई पैरों से निकला 500वां गोल भी था। 500वां गोल बनाने का इससे शानदार अवसर और कोई हो भी नहीं सकता था। ये आउट राइट मेस्सी का मैच था जिसमें उसने दो गोल किये।
               जैसे ही मेस्सी ने दूसरा गोल दागा वो बाँए साइड लाइन की और दौड़ा,दौड़ते हुए अपनी जर्सी उतारी और दर्शकों के और लहरा दी। ऐसा करके वो एक ऐतिहासिक क्षण की निर्मिती कर रहा था जिसे किंवदंती बन जाना है ठीक वैसे ही जैसे 13 जुलाई 2002 को नेटवेस्ट सीरीज जीतने के बाद सौरव गांगुली ने क्रिकेट के मक्का लॉर्ड्स के मैदान पर ऐतिहासिक क्षण की निर्मिति की थी। जिस समय मेस्सी अपनी 10 नम्बर की जर्सी दर्शकों को दिखा रहे थे तो उनके मन में क्या चल रहा था ये सिर्फ वो और उनका ईश्वर जानते हैं। पर अनुमान लगा सकते हैं कि ज़रूर वे दर्शकों को कह रहे थे कि ये 10 नम्बर की जर्सी है। इसे ध्यान से देखो। इसे केवल लीजेंड पहनते हैं। वे ये भी बता रहे थे कि वे ही पेले और माराडोना की शानदार विरासत के सबसे वाजिब हक़दार हैं। वे ये भी बता रहे थे कि वे उस महाद्वीप से आते हैं जहा वर्ग संघर्ष की लम्बी परम्परा रही है,जहां एक बड़ा तबका आर्टिसन है जो किसी भी चीज़ को अपने हुनर से कलात्मक लालित्य में बदल देता है फिर वो चाहे फुटबॉल का खेल ही क्यों न हो। और वे उस कलात्मक फुटबॉल के असली नुमाइंदे हैं। वे ये भी बता रहे थे कि वे तुम्हारे चैम्पियन क्रिस्टियानो की तरह शक्ति और पावर से नहीं जीतते बल्कि लय ताल से बद्ध कलात्मक गति से जीतते हैं। वे बता रहे थे कि वे तुम्हारे चैम्पियन की तरह केवल मैच ही नहीं जीतते बल्कि दिलों को भी जीतते हैं। वे केवल जीत कर ही नहीं जीतते बल्कि हार कर भी वे ही जीतते हैं।
                  सौरव गांगुली और मेस्सी द्वारा जर्सी उतारना दो अलग खेलों में अलग अंदाज़ की दो अलग सन्दर्भों वाली परिघटनाएं हो सकती हैं। जहाँ सौरव अधिक अपने तेवर में अधिक आक्रामक और उत्तेजित थे वहीं मेस्सी शांत सहज और निर्विकार थे। पर दोनों में एक समानता ज़रूर थी।दोनों ही अपने गर्वीले प्रतिद्वंदियों के दम्भी समर्थकों एक ज़रूरी नसीहत और सबक दे रहे थे।
            पुनश्च मेस्सी तुम चैंपियन भले ही ना हो पर लीजेंड तुम ही हो। तुम हमारे दिलों पर राज़ करते रहोगे।

Sunday 23 April 2017

फेसबुक की दुनिया_३

                        


                         ये जो आभासी दुनिया है ना ये वास्तविक दुनिया के समानान्तर एक और दुनिया रचती है।तमाम सम्भावनाओं के साथ।बिलकुल वास्तविक दुनिया जैसी खूबियों के साथ। वास्तविक दुनिया से घात-प्रतिघात करते हुए। एक दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए।एक दूसरे की सीमाओं को विस्तार देते हुए। वास्तविक जीवन में अभिव्यक्ति के लिए एक तो अवसर और स्पेस बहुत ही कम उपलब्ध है।जो थोड़ा बहुत उपलब्ध है वे भी लगातार संकुचित होते जा रहे हैं। ऐसे में आभासी दुनिया एक अतिरिक्त स्पेस उपलब्ध कराती है।वो अव्यक्त जो भीतर ही भीतर कंप्रेस होता जाता है,जैसे ही मुखपुस्तिका के आभासी संसार के खाली स्पेस में प्रवेश करता हैं,छलक छलक पड़ता है। अलग अलग रंगो में। अलग अलग रूपों में। अलग अलग मात्रा में। तब बनती हैं खूबसूरत दीवारें। मुख पुस्तिका पर उपस्थित लोगों की दीवारें। भीतर छुपे की अभिव्यक्ति पाने की चाह से बनी भित्तियाँ। दीवारें जो उनके भीतर छुपे की भित्ती होती है।भित्तियां जो उनके अनुभवों,उनके सपनों,उनकी इच्छाओं,उनके उसूलों,उनके संघर्षों,उनकी हारों,उनकी जीतों के खूबसूरत रंगों से बनी होती हैं। भित्तियाँ जिन्हें जतन से,मेहनत से सजाया गया है।आप घूमिये। देखिये। और चमत्कृत होते जाइये। 
                                ये एक ऐसी ही दीवार है।यथार्थ के कैनवास पर भावनाओं की तूलिका से कल्पनाओं के रंग से बनी अद्भुत भित्ती। इसमें यथार्थ का स्याह रंग है,उम्मीदों का उजला रंग है,विश्वास का चमकीला रंग है,संघर्षों का गाढ़ा रंग है,नेह का सुर्ख़ रंग है,सपनों का सुनहरा रंग है। संघर्षों के ताप से तपी यथार्थ की रूक्ष भूमि पर सपनों और उम्मीदों की बूंदों से निर्मित भित्ती सी। जेठ की तपती गर्मी से जलती धरती पर सावन के पहली बारिश के पड़ने से उठती सौंधी महक से लबरेज पुरवाई लोगों को  जिस अनिर्वचनीय आनंद से अभिभूत करती है वैसे ही ये भित्ती अभावों के ताप से तपती यथार्थ की भूमि पर सपनों की बूंदों के पड़ने से नेह की खुशबू से लदी उम्मीदों की पवन से आपादमस्तक पोर पोर सुवासित और मदहोश करती जाती है।ये यथार्थ की दुनिया की घोर अतृप्त आकांक्षाओं के प्रतिक्रिया स्वरुप कल्पनाओं और उम्मीदों से बनी रंग बिरंगी दुनिया है या फिर यथार्थ दुनिया के खूबसूरत अनुभवों और नेह संस्कारों से विस्तारित सीमाओं से बनी दुनिया है ये दीवार। बड़े श्रम से सजाई गई मन के आसमां की प्रतिकृति है ये दीवार। छोटी छोटी उम्मीदों और छोटे छोटे सपनों से ज़िंदगी का बड़ा कोलाज़ बनाती सी है ये दीवार।नाउम्मीदी की काली रात में उम्मीदों की शीतल सुनहरी चांदनी सी है ये दीवार। जीवन की रात में एक अद्भुत तिलिस्म रचती और इंद्रजाल की भूल भुल्लैया में भटकाती है ये दीवार।   
                               अगली बार जब आप इस आभासी दुनिया में प्रवेश करें तो आस पास बिखरे जीवन के अद्भुत रंगों से बनी इन दीवारों को खोजिए। ये अद्भुत तिलिस्म है दोस्तों। महसूस कीजिए। 
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आभासी दुनिया के रंग _३ 

Tuesday 18 April 2017

प्रतीक्षा का रंग


प्रतीक्षा का रंग

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सुनो जोगन
तुम विराग में भी ढूंढ रही हो राग 
और खड़ी हो चिर प्रतीक्षा  में 
कि विराग से कभी तो छलकेगा राग रस 

और उस पार जोगी देख रहा है 
उजले स्याह होते 
तुम्हारी प्रतीक्षा के रंग 
पढ़ रहा है उसका इतिहास 
जो अनंत काल तक जाता है पीछे 
जब पहली बार आदम और हव्वा के मन में जागी थी आदिम इच्छा 
देख रहा है उसका लगातार विस्तार पाता भूगोल 
क्षितिज पार फ़ैल रही है जिसकी सीमाएं 
माप रहा है आकार 
जो फ़ैल रहा है अंतरिक्ष में 

तुम्हें शायद पता नहीं  
प्रतीक्षाएँ चाहे जैसी हो 
स्याह होता जाता है उनका रंग 
पुराना होता जाता है इतिहास  
सीमाओं पार फ़ैलता जाता है भूगोल 
अनंत दूरियों को नापता हुआ 
जहां से लौट कर वापस नहीं आतीं अनुगूँजे भी 

प्रतीक्षा अक्सर दुःख की भाषा गढ़ती है 
और तुम चुन रही हो वही 
जो तुम्हें नहीं ही चुनना था। 

Sunday 16 April 2017

फेसबुक की दुनिया_२

                         



चंद्रकांता बनाम मुख पुस्तिका
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              मुख पुस्तिका(फेसबुक)की किसी साहित्यिक कृति से तुलना करना बेमानी है। पर पता नहीं क्यूँ जब-जब मैं मुख पुस्तिका पर आता हूँ,चंद्रकांता संतति मेरे ज़ेहन में रह रह कर उभर आती है।और ज़ुकरबर्ग के साथ देवकीनंदन खत्री भी शिद्दत से याद आते हैं। चंद्रकांता संतति मैंने अस्सी के दशक में पढ़ी थी।उसके तीन दशक बाद अब मुख पुस्तिका का सहवास है। दोनों में मुझे गज़ब की समानता दीखती है। दरअसल चंद्रकांता अपने तिलिस्म के कारण ही इतना मक़बूल हुआ है। बिलकुल ऐसा ही तिलिस्म मुख पुस्तिका रचती है।हूबहू चंद्रकांता जैसा। कई बार मुख पुस्तिका चंद्रकांता संतति का आधुनिक संस्करण लगती है। 
                    चंद्रकांता भले ही साहित्यिक दृष्टि से कोई बहुत महत्वपूर्ण कृति ना हो। लेकिन रहस्य रोमांच की दृष्टि से अल्टीमेट है। कथानक बहुत तेज़ी से आगे बढ़ता है। कहानी पल पल नया रुख अख्तियार करती है। घटनाएँ इतनी तेजी से घटित होती हैं कि आपको तनिक भी अवकाश लेने का अवसर नहीं मिलता। उसमें रचा गया तिलिस्म अद्भुत है।अनिश्चितता इतनी कि आप कोई अनुमान नहीं लगा सकते। दिल थाम के पढ़ना पड़ता है। पाठक को पता ही नहीं चलता कब वो यथार्थ में है और कब तिलिस्म के बने जाल में है। जब पाठक ये सोच रहा होता है कि घटनाएं यथार्थ में घटित हो रहीं हैं तो अचानक पता चलता है वो किसी ऐयार द्वारा बना गया इंद्रजाल था। आप धम्म से ऊपर से नीचे गिर पड़ते हैं। अगले ही पल जब आप किसी इंद्रजाल की कल्पना कर रहे होते हैं तो पता चलता है कि ये तो यथार्थ घटित हो रहा था।आपकी सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह जाती है। धड़कनें तेज़ हो जाती हैं। तिलिस्म और ऐयारी का गज़ब का शाहाकार है चंद्रकांता जिसका हैंगओवर किताब से बाहर आकर भी लम्बे समय तक बना रहता है। 
                        इसी के समानांतर मुख पुस्तिका को रखकर देखिए। ये भी तिलिस्म का आधुनिक शाहाकार है जो गज़ब का इंद्रजाल बुनती है जिसके आकर्षण से कोई नहीं बच पाता। जो इस इंद्रजाल में फंसा वो इसके आकर्षण से बाहर नहीं आ पाता। ये भी चंद्रकांता की तरह एक अद्भुत तिलिस्म बनाती है जिसमें ये पता ही नहीं चलता कब यथार्थ में चीज़े हो रही हैं और कब इस पर सक्रिय ऐयारों के इंद्रजाल में घटित हो रही हैं। इसमें भी आप किसी चीज़ पर विश्वास नहीं कर पाते। पता नहीं चलता क्या सच और क्या झूठ। वो सब जो आपको सच्चाई के बहुत करीब लगता है वो ही सबसे बड़ा झूठ होता है। जिसे झूठ समझते हैं अक्सर वो सच बन कर आपके मन को सहलाता है। कब शत्रु मित्र के वेश में ऐयारी कर रहा हो और कब कोई दोस्त शत्रु बना दूर से आपको तक रहा हो,कब दोस्त दुश्मन और दुश्मन दोस्त की भूमिका में आ जाए आप अनुमान नहीं लगा सकते।कब तलवारे तन जाएँ और कब कौन गले आकर मिल जाए नहीं जान सकते।घटनाएं भी गज़ब की तीव्रता से घटित होती रहती हैं। कई बार तो चंद्रकांता के कथानक को भी मात देती। चंद्रकांता का रहस्य रोमांच,लड़ाई,संघर्ष,प्रेम,वैराग्य,राग-द्वेष,झूठ-सच,छल-फरेब सब कुछ मुख पुस्तिका पर हूबहू मिलता है। मुख पुस्तिका से बाहर आकर भी इसका मोह जल्द नहीं छूटता। अक्सर लम्बे समय तक इसका हैंगओवर नहीं उतरता। 
                    अगर चंद्रकांता के प्रकाशन के समय उसे पढ़ने के लिए   बड़ी संख्या में लोगों ने हिंदी सीखी तो ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं जिन्होंने मुख पुस्तिका को चलाने के लिए स्मार्ट फोन चलाना सीखा।हिंदी या अंग्रेजी में टाइप करना सीखा।    
                चंद्रकांता व चंद्रकांता संतति और मुख पुस्तिका में या फिर देवकी नंदन खत्री और मार्क ज़ुकरबर्ग के बीच लगभग सौ वर्षो का अंतराल है। ये कहा जाता है साहित्यकार भविष्य का वाचक होता है। वो भविष्य को पढ़ लेता है। तो क्या चंद्रकांता और संतति रचते हुए उन्होंने 100 साल आगे का समय देख लिया था। या कि ज़ुकरबर्ग ने मुख पुस्तिका को बनाने से पहले कभी चंद्रकांता और संतति को पढ़ा या उसके बारे में सुना था और उससे प्रभावित थे।पर दोनों में गज़ब की समानता तो है। 
              तो दोस्तों जिन्होंने चंद्रकांता को पढ़ा है और मुख पुस्तिका का आनंद नहीं लिया है तो चंद्रकांता के आधुनिक संस्करण का ज़रूर मज़ा लें और जिन्होंने मुख पुस्तिका का आनंद लिया है और चंद्रकांता नहीं पढ़ी है वे मुख पुस्तिका के 'प्रोटो टाइप' के रहस्य रोमांच में अवश्य ही डूबें उतराएं। मज़ा आएगा। 
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कुछ सम्बन्ध बेमेल होते हुए अद्भुत होते हैं और ये भी कि बिना बात दो चीजों में संबंध बनाने का अपना आनंद है। 
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आभासी दुनिया के रंग _2 








Friday 14 April 2017

मोको कहां ढूंढे रे


मोको कहाँ ढूंढे रे 
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'मैं इक परछाई हूँ 
या हूँ छलावा 
या हूँ कुछ भरम सा'
ये मानना ही भरम है तुम्हारा
दरअसल 
तुम ढूंढ रही हो बाहर  
कुछ ठोस ठोस सा 
और मैं हूँ तुम्हारे भीतर 
तरल तरल सा 

जैसे होती है बारिश में आर्द्रता 
मैं हूँ तुम्हारे मन में गीलेपन सा 
जैसे होता है आग में ताप  
मैं हूँ तुम्हारे प्यार में उष्मा सा 
जैसे होती है चांदनी में शीतलता
मैं हूँ तुम्हारी आहों में ठिठुरन सा  
जैसे होते हैं किताबों में फ़लसफ़े 
मैं हूँ तुम्हारे दिल में ख्यालों सा 
जैसे होती है माटी में उर्वरता 
मैं हूँ तुम्हारी साँसों में जीवन सा 

जैसे होती है मृग कुण्डिली में कस्तूरी 
मैं हूँ तुममें अहसास सा   
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ना मंदिर में ना मस्जिद में ना काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बन्दे मैं तो तेरे पास में


Sunday 9 April 2017



पतंग 
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                                  पतंग आपको हमेशा आकर्षित करती हैं।केवल बचपन में ही नहीं बल्कि जीवन के किसी भी मोड़ पर।किसी भी वक़्त। किसी भी जगह। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक।सर्दी से लेकर गर्मी तक। छतों से लेकर मैदानों तक।गली कूंचों से लेकर चौराहों तक। गांव से लेकर शहर तक। रंग बिरंगी खूबसूरत सी,हमेशा अपनी और खींचती सी लगती हैं। आपको हमेशा लगता है आपके पास खूब सारी पतंग हो। जब मर्ज़ी हो उड़ाए,पेंच लड़ाए और जब चाहे उतार कर अपने पास रख लें। ये पतंग आपको केवल रंग रूप के कारण ही अच्छी नहीं लगती बल्कि अपनी पूरी बनावट,अपनी सम्पूर्णता में अच्छी लगती हैं।ये महज़ कागज़ का एक टुकड़ा भर नहीं है। गौर से देखने पर एक अभिव्यक्ति सी दिखाई देती है।कई बार रंग अच्छे नहीं होते,कई बार आकार मुफीद नहीं होता,कई बार बनावट अच्छी नहीं होती। इस सब के बावजूद पतंगें अच्छी लगती हैं। दरअसल अपनी अन्विति में पतंगें इतनी परफेक्ट होती हैं कि आप दीवाने हो जाते हैं। वे आपके दिलो दिमाग पर छा जाती हैं।
                      वो दरअसल एक ऐसी ही पतंग थी जिसके रंग बहुत चमकीले नहीं थे। वो पतंग कुछ ऐसे रंग की थी जिसे सामान्यतः लोग पसंद नहीं करते।मटमैला सा फीका फीका सा रंग था उसका। जो भी आता उसे देख कर अलग कर देता। दुकानदार बड़े इसरार से कहता बहुत अच्छी है बहुत उड़ेगी। पर लोग उसे ना लेते। दरअसल ये खरीदने वालों की समझ का फेर था। उसका निर्माण किसी बड़े शहर के बड़े पतंगसाज़ के कारखाने में नहीं हुआ था। वो एक कस्बाई हुनरमंद हाथों से गढ़ी गयी थी। ध्यान देने की बात है वो बनाई नहीं गयी थी बल्कि गढ़ी गयी थी। उसमें किसी मशीन वाली सफाई नहीं थी बल्कि हाथों की बनावट वाला कच्चापन था। ये कच्चापन ही उसके सौंदर्य का चरम बिंदु था।उसका ये आंतरिक सौंदर्य लोगों को नहीं दिखाई देता।उस पतंग की पूरी बनावट,उसके विभिन्न अवयवों की आंतरिक संगति नहीं दिखाई देती। वो अपनी पूरी अन्विति में एक गज़ब का अनगढ़ सौंदर्य उत्पन्न करती। इस सौंदर्य को देखने के लिए मन की आँख की ज़रुरत थी।वो परफेक्ट नहीं थी। उसकी फिनिशिंग और पोलिसिंग नहीं हुई थी। लेकिन पूर्ण थी। अपूर्ण रूप से पूर्ण।दरअसल उसकी अनगढ़ता,उसकी अपूर्णता ही उसका असल सौंदर्य था। पर एक दिन पतंग का खरीदार आ ही गया।पतंग चली गयी। अब किसी और के पास उस अनगढ़ सौंदर्य को पढ़ने का मौक़ा नहीं था। 
           पतंग के अपने जीवन का भी एक शास्त्र होता है,एक दर्शन होता है,निश्चित नियति होती है। उसे एक बंधन में रहना है। डोर के बंधन में,उससे बंधकर। इस डोर का एक सिरा पतंगबाज़ के हाथ में। पतंगबाज़ जितना ऊंचा उड़ाए वो उड़े। जितनी ढील दे वो आगे जाए। जब डोर खींचे,वापस आए।  वो तो कठपुतली भर है ,पतंगबाज़ के हाथों की।पर सोचता हूँ आखिर एक पतंग की अपनी भी कोई इच्छा होती होगी। उसके पास आकाश में उड़ने का मौक़ा तो है पर पतंगबाज़ की इच्छा तक सीमित।और वो भी बंधन के साथ। उसकी नियति  बंधन में बंधना,पतंगबाज़ के हाथों की कठपुतली बनना ही क्यूँ है।  
                 कभी आप ध्यान से देखिए कटी पतंगें कितनी खूबसूरत लगती हैं। केवल ढील देने भर से उसमें कितना गज़ब का उत्साह आ जाता है। मंद गति से लहराती गजगामिनी की तरह मस्त नई उंचाईयों,गंतव्यों की तलाश में चल देती है। तो फिर कटी पतंगों का क्या कहना। ये सच है कटी पतंग का कोई ठिकाना नहीं होता। पर उसकी आज़ादी तो है। जहां चाहे बसेरा कर ले कभी किसी डाल पर तो कभी तार पर,कभी किसी छत पर तो कभी किसी वृक्ष पर। चाहे तो किसी और पतंगबाज़ के हाथ लग जाए और अपनी पर आ जाये तो  मिट जाए फट जाए पर कही ऐसी अटके कि किसी के हाथ ना आये। ये एक विरोधाभास है पतंग के जीवन का। वो सुन्दर है  इसलिए बंधन में है। क्या हर सुन्दर उपयोगी चीज़ का आदमी के हाथ  की कठपुतली बनना नियति है ,यहां तक कि सुंदर प्रकृति को भी। 
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क्या ऐसी कल्पना करना बेमानी है कि कभी पतंगें भी पक्षियों की तरह खुले आकाश में बिना डोर बिना बंधन के उन्मुक्त उड़ सकें। 













Thursday 6 April 2017

एनबीए सीज़न 71


आईपीएल का नया सीज़न 10 शुरू हो गया है। अगर मेरी तरह आपको भी इस लीग में कोई दिलचस्पी नहीं है और मेरी तरह आपको भी ये इंडियन प्रहसन लीग लगती हो और ये भी कि आपको दूसरे खेलों में दिलचस्पी हो तो एनबीए का रोमांच आपके लिए एक बेहतर विकल्प हो सकता है। एनबीए के 71वें संस्करण का रेगुलर सीज़न ख़त्म होने को है और प्ले ऑफ मुकाबले तय हो चुके हैं जो 15 अप्रैल से शुरू होने हैं। पिछले साल की विजेता गोल्डन स्टेट वारियर्स वेस्टर्न कांफ्रेंस में सबसे ऊपर है तो पिछले साल की उपविजेता क्लीवलैंड कैवेलियर्स ईस्टर्न कांफ्रेंस में सबसे ऊपर। लम्बे चौड़े लहीम शहीम खिलाड़ियों के पावर गेम का रोमांच और अपेक्षाकृत छोटे और हलके खिलाड़ियों के क्लासिक खेल का आनंद आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है।आप चाहे तो इस साल की असामान्य गर्मी के ताप को शानदार खिलाड़ियों के ज़ोरदार संघर्ष की आंच से रिप्लेस कर सकते हैं। 
                       निःसंदेह बास्केटबॉल लम्बे खिलाड़ियों का खेल है। सेंटर और पावर खिलाड़ी यानी पांच और चार पोजीशन वाले लम्बे चौड़े और भारी खिलाड़ी होते हैं जिनके पावर गेम से आप चमत्कृत होते है। रिंग के आसपास  शानदार स्कोर करते हैं। अपनी शक्ति और लम्बाई के बल पर विपक्षी का रक्षण भेदते है। शकील ओ नील,याओ मिंग,टिम डंकन,डिर्क नोवित्ज़की,लेब्रोन जेम्स,केविन गार्नेट,ड्रेमंड ग्रीन,अब्दुल ज़ब्बार,माइकेल जॉर्डन,मार्क गैसोल,जेम्स हार्डेन,लामार्केस एल्ड्रिज जैसे खिलाड़ियों का खेल है बास्केटबाल जिनका पावर खेल आपको जोश,उत्साह और उत्तेजना से भर देता है। लेकिन ये केवल इन बड़े खिलाडियों का खेल भर नहीं है और ना ही पावर खेल भर है। ये जैसन किड, स्टीव नैश,कोबे ब्रायंट और स्टीफन करी जैसे लाजवाब खिलाड़ियों का भी खेल है। इनकी शानदार ड्रिब्लिंग अविश्वसनीय पास और खूबसूरत और कलात्मक ले अप और फिर अविश्वसनीय दूरी से किये थ्री पॉइंटर शेक,जॉर्डन,टिम,लेब्रोन जैसे खिलाड़ियों के शक्तिशाली खेल से उपजी उत्तेजना को असीम आनंद के स्तर पर ले आते हैं। ये बिलकुल वैसे ही है जैसे क्रिकेट में सहवाग,लारा,गेल या फिर ग्रीनिज,रिचर्ड्स जैसे खिलाड़ियों के धुंआदार खेल के बरस्क गावस्कर,गुंडप्पा विश्वनाथ, अज़रुद्दीन ,लक्षमण या फिर राहुल द्रविड़ के कलाईयों के शानदार कलात्मक और क्लासिक खेल से उपजी अनुभूति ;टेनिस में फेडरर,जोकोविच जैसे खिलाड़ियों के सर्व और वोल्ली के पावरफुल खेल के बरस्क नडाल के बेसलाइन से टॉप स्पिन के क्लासिक खेल से उपजी अनुभूति या फिर हॉकी में सोहैल अब्बास,बौव्लेंडर,जेरेमी,टेकेमा,ट्रॉय एल्डर या जुगरान सिंह के पावरफुल ड्रैग और फ्लिक से पेनाल्टी कॉर्नर के गोल के बरस्क,धनराज पिल्लै या हसन सरदार की शानदार और अद्भुत  ड्रिलिंग और कलात्मक फील्ड गोल्ड से उपजी अनुभूति ।


           आज भले ही जैसन किड,स्टीव नैश और कोबे ब्रायंट मैदान में ना हो पर स्टीफन करी ने अपनी पिछले सीज़न की लय पा ली है। जिस तरह आप केवल सचिन के लिए साल दर साल क्रिकेट के दीवाने बने रह सकते हैं और क्रिकेट देख सकते हैं,आप स्टीफन करी के लिए सीज़न दर सीज़न बास्केटबाल फॉलो कर सकते हैं।फिलहाल लेब्रोन जेम्स का पॉवर खेल और करी के कलात्मक खेल का रोचक द्वंद आपका इंतज़ार कर रहा है। बाकी आप प्रहसन देखना चाहे तो मर्ज़ी आपकी क्यूँकि समय की बर्बादी भी आपकी। 
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Monday 3 April 2017

तुम्हारे लिए


तुम्हारे लिए 
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वे तुम्हारी बेवजह की बतकही
दिल के आँगन में जो पडी थी 
बेतरतीब सी
इस तनहा समय में उग आयी हैं
बेला चमेली के पेड़ों की तरह
जिनसे यादें झर रही हैं
फूलों सी 

कि तुम्हारी बेवजह बेसाख्ता फूट  पड़ती खिलखिलाहट

अब कानों में गूंजती है
बिस्मिल्लाह की शहनाई पर बजाई किसी धुन की तरह

कि तुम्हारी यूँ ही निकली आहें

घुल रही हैं मेरी साँसों में
अमृत सी 

कि तुम्हारा यूं ही बेसबब कनखियों से देखना

चिपका है पीठ पर
जैसे किसी ने हल्दी लगे हाथो से
छाप दिए हों अपनी हथेलियों के निशां
किसी सगुन से 
और टांक दी हो अपनी किस्मत की रेखाएं मेरे साथ

कि बेवजह होना भी 

बेवजह नहीं होता
जैसे साँसों का आना जाना 
नहीं  होता बेवजह। 
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ज़िन्दगी में आने वाली हर चीज़ इतनी अर्थपूर्ण क्यूँ होती है। 















ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...