Friday 29 September 2017

बने रहें ज़िंदगी में रंग


ताकि बने रहें ज़िंदगी में रंग 


वे ख़्वाहिशें 
जो सबसे छोटी होती हैं 
होती हैं हमारी पहुँच के अंदर 
कि कर सकते हैं 
उन्हें सबसे सुगमता से पूर्ण 
उनका पूरा होना 
होता है सबसे भयावह। 


उन छोटी ख़्वाहिशों से 

जुडी होती हैं 
हमारी सबसे बड़ी ख़्वाहिशें 
कि छोटी ख्वाहिशों के पूरा होने पर 
अक्सर खिसक जाती है बड़ी ख़्वाहिशों की ज़मीन 
कि टूट कर बिखर बिखर जाती हैं किरचें 
लहूलुहान हो जाती है आत्मा।।


मेरी अब सबसे बड़ी ख़्वाहिश है 

कि सबसे छोटी ख़्वाहिश 
कभी ना बन सके हक़ीक़त
ताकि फलती फूलती रहे बड़ी ख़्वाहिशें 
बने रहें ज़िंदगी में रंग 
बनी रहे तरलता 
और बनी रहे गति।।। 

Sunday 17 September 2017

एक अनिर्णीत संघर्ष जारी है



एक अनिर्णीत संघर्ष जारी है 


                       यकीन मानिए बैडमिंटन चीन और इंडोनेशिया के बिना भी उतना ही रोमांचक और शानदार हो सकता है जितना उनके रहते होता है। इस बात की ताईद वे सब कर सकते हैं जो एक बार फिर नोजोमी और पुरसला के खेल के जादू में डूबते उतराते अभी भी उनके शानदार खेल के हैंगओवर से बाहर नहीं आए होंगे। एक महीने के भीतर ये दूसरा अवसर था जब जब ये दोनों खिलाड़ी एक बार फिर कोर्ट में आमने सामने थे। फ़र्क़ केवल जगह का था। वे यूरोप की धरती छोड़ अपने महाद्वीप में आ चुकी थीं। इस बार संग्राम स्थल ग्लास्गो से बदल कर सियोल हो गया था।
                                  सियोल में मुकाबला ठीक वहीं से शुरू हुआ जहां ग्लास्गो में ख़त्म हुआ था। ग्लास्गो में स्कोर था 21-19,20-22,22-20 नोजोमी के पक्ष में।अब यहां सियोल में पहले अंक से ही तय हो गया था ये ग्लास्गो का मुकाबला आगे खेला जा रहा है। हर पॉइंट के लिए वैसा ही संघर्ष। पहले गेम के अंत में स्कोर 20-18 . नोजोमी के पास दो गेम पॉइंट। पर इस तरह के क्लासिक संघर्ष में चीज़े आसान नहीं होतीं।पुरसला ने लगातार चार अंक जीते और गेम 22-20 से अपने नाम किया। ये हार नोजोमी के लिए सोए शेर को जगाने जैसी थी। आखिर वो विश्व चैम्पियन थी। दूसरे गेम में उन्होंने नेट पर शानदार खेल दिखाया और कुछ शानदार स्मैशेस लगाए। ऐसा लगा पुरसला थक गई हैं। गेम 21-11 से नोजोमी ने जीता। दरअसल इन दो मैचों में ये एक गेम ऐसा था जो इस क्लासिक प्रतिद्वंदिता की धार को कुछ भोथरा कर रहा है,थोड़ा डाइल्यूट कर रहा था। लेकिन इस गेम को एक क्षणिक व्यवधान माना जाना चाहिए। शायद उस गेम में पुरसला अपनी शक्ति और अपनी एकाग्रता पुनः संचित कर रही थीं। तभी तो अगले गेम में पुरसला ने शुरू से ही बढ़त बना ली और अंत तक उसे कायम रखा। इस गेम में संघर्ष एक बार पुनः चरम पर था। फिर बड़ी बड़ी रैलियाँ खेली गयी। 19-15 के बाद वाले पॉइंट के लिए 56 शॉट्स की रैली हुई। एक बार बैडमिंटन का खेल ऊंचाइयों पर था। इस बार पुरसला ने धैर्य बनाये रखा और गेम 21-18 से जीत कर कोरियाई सुपर सीरीज का खिताब अपने नाम कर लिया।





            अगर विश्व कप वाला मुकाबला 110 मिनट चला तो ये भी 83 मिनट चला। निसंदेह ये विश्व कप जैसा मैच नहीं था फिर भी लगभग उस जैसा ही था-क्लासिक,शानदार ,संघर्षपूर्ण,रोमांचक जिसमें खेल ऊंचाइयों को छूता है। निसंदेह ये भी ग्लास्गो की तरह निर्णायक जीत नहीं है। ये एक शानदार नयी प्रतिद्वंदिता का आग़ाज़ भर है। अंजाम  देखना बाकी है। और अगली बार जब वे फिर कोर्ट में आमने सामने होंगी तो वो इस मैच का एक्सटेंशन भर होगा,इस अनिर्णीत संघर्ष का अगला पड़ाव भर। फिलहाल तो पुरसला की इस जीत और ग्लास्गो की हार के 'स्वीट रिवेंज' पर बल्ले बल्ले। 
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और हाँ आज चेन्नई में क्रिकेट की याद मत ही दिलाइयो 

Saturday 16 September 2017

कम बैक मैन ऑफ़ इंडियन क्रिकेट




कमबैक मैन ऑफ़ इंडियन क्रिकेट


                                  कुछ फोटो अपनी अंतर्वस्तु में इतने समृद्ध और शक्तिशाली होते हैं कि आइकोनिक बन जाते हैं। वे केवल एक चित्र भर नहीं होते। वे एक पूरी कहानी कहते हैं।वे एक युग का, एक पूरे काल खंड का,एक सम्पूर्ण प्रवृति का प्रतिनिधित्व करते हैं।मोहिंदर अमरनाथ की हुक वाली इस फोटो को देखिए।ये केवल मोहिंदर का या उनके एक शॉट का फोटो भर नहीं है।ये मोहिंदर के पूरे खेल का,उनकी बैटिंग कौशल का, उनके चरित्र का,उनके साहस और आत्मविश्वास का,उनके संघर्ष करने के ज़ज़्बे का,किसी भी परिस्थिति में हार न मानने की ज़िद का और साथ ही साथ क्रिकेट के एक पूरे काल खंड का भी प्रतिनिधित्व करता है।एक ऐसा काल खंड जो क्रिकेट में बल्लेबाज़ों के लिए सबसे कठिन काल माना जाता है।तेज़ गेंदबाज़ों के खौफ का काल।तेज़ गेंदबाज़ों के उस खौफनाक समय में जब सुरक्षा उपकरण अपनी आदिम अवस्था में थे,ये चित्र उस खौफ के विरुद्ध बल्लेबाज़ों के अदम्य साहस का चित्र है।

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                               कुछ पीछे जाइए।अपनी स्मृति के घोड़े दौड़ाइए। सत्तर और अस्सी के दशक में गौते लगाइए। क्रिकेट को सोचिए और पांच दिनी टेस्ट मैचों को हेराइए। आने को तो बहुत कुछ याद आएगा। लेकिन अगर सबसे ज़्यादा कुछ याद आएगा तो अनिर्णीत और बोरिंग होते टेस्ट मैचों में तेज़ गेंदबाज़ों की रफ़्तार याद आएगी। याद आएगा ये वही समय था जब वेस्ट इंडीज़ की टीम की अपने तेज़ गेंदबाज़ों के दम पर तूती बोलती थी।ये एंडी रॉबर्ट्स,माइकेल होल्डिंग,गार्नर और मेल्कॉम मार्शल की कहर बरपाती गेंदों का समय था। ये जेफ़ थॉम्पसन और डेनिस लिली की आग उगलती गेंदों का समय था। ये इमरान खान,सरफ़राज़ नवाज,कपिल देव,इयान बॉथम,डेरेक अंडरवुड,रिचर्ड हेडली की घातक और मारक इन/आउट कटर/स्विंगर का समय था। गनीमत थी कि दक्षिण अफ्रिका उस समय तक क्रिकेट बिरादरी से बाहर था। और उस पर तुर्रा ये कि बॉलर चाहे जितनी बाउंसर फेंके कोई प्रतिबन्ध नहीं और सुरक्षा उपकरण ना के बराबर।

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                           यों तो उस समय भी तमाम महान बल्लेबाज़ हुए,पर मोहिंदर उन सब से अलग थे। दरअसल तेज़ गेंदबाज़ों के विरुद्ध उनकी जो अप्रोच थी वो सबसे अलग थी जो उन्हें अपने समकालीन सब बल्लेबाज़ों से अलहदा स्पेशल बनाती है। (सामान्यतः तेज़ गेंदबाज़ जो बाउंसर फेंकते हैं उसके पीछे बल्लेबाज़ के मन में खौफ पैदा करना होता है।बल्लेबाज़ उछाल वाली गेंदों को या तो गेंद की लाइन से अलग हट कर या नीचे बैठ कर विकेट के पीछे जाने देते हैं। ये सबसे आसान और प्रचलन वाला तरीका है। और जब बल्लेबाज़ उसे डक कर जाने देता है तो गेंदबाज़ों के लिए बल्लेबाज़ों का ये जेस्चर उन्हें सबसे सुकून देने वाला होता है।लेकिन मोहिंदर ने ये तरीका नहीं अपनाया।) वे बाउंसर को डक नहीं करना चाहते थे बल्कि हर उछाल वाली गेंद को खेलना चाहते थे और खेलते थे। इसीलिये हुक उनका सबसे पसंदीदा शॉट होता था। ये निसंदेह बहुत साहस की बात होती है।और केवल साहस की बात ही नहीं थी बल्कि तेज़ गेंदबाज़ को सबसे माकूल जवाब भी होता है,सबसे बेहतर काउंटर अटैक। एक तेज़ गेंदबाज़ के लिए इससे ज़्यादा चिढ़ वाली और कोई बात नहीं हो सकती कि उसके सबसे बड़े अस्त्र के विरुद्ध आप डक कर उसकी ताकत को मानने के बजाय आप उसकी आंखों में आँखें डाले खड़े हैं और उसे हुक करके उसको उल्टी चुनौती पेश कर होते हैं,उसके मर्म को भेद रहे होते हैं। मोहिंदर ऐसा ही करते थे,ये जानते हुए भी कि सीने या उससे ऊंची गेंदा की लाइन में आना और उस पर हुक खेलना निसंदेह खतरे से भरा शॉट होता है क्यूँकि चूकते ही बॉल से चोट लगने की  बहुत ज़्यादा संभावना होती है। ये उनका साहस और जिद थी। वे हर परिस्थिति में हुक शॉट खेलते थे और हुक शॉट उनका ट्रेडमार्क बन गया था। 
                                     उन्हें हेडली की गेंद पर सर में हेयर लाइन फ्रेक्चर हुआ,इमरान खान की गेंद पर बेहोश हुए,मेलकॉम मार्शल की गेंद ने उनका दाँत तोड़ दिया और जेफ़ थॉमसन की गेंद ने उनका जबाड़ा ही तोड़ दिया। पर इनमें  से कोई भी  उन्हें अपना हुक शॉट खेलने से नहीं रोक पाया। 
                                       बात 1982-83  के वेस्ट इंडीज़ दौरे के ब्रिजटाउन टेस्ट की है। मोहिंदर को सर में होल्डिंग की गेंद से चोट लगी और टाँके लगवाने के लिए उन्हें मैदान छोड़ना पड़ा। वापस मैदान में आने पर माइकेल होल्डिंग फिर सामने थे। स्वाभाविक था उन्हें डराने के लिए होल्डिंग ने बाउंसर फेंकी। कोई भी दूसरा बल्लेबाज़ होता तो डक करतापर वे मोहिंदर थे।उन्होंने बॉल को हुक कर गेंद को चार रन के लिए सीमा रेखा से बाहर का रास्ता दिखाया। हुक उनका सबसे पसंदीदा शॉट था और 1984-85 में इंग्लैंड के विरुद्ध दिल्ली के फ़िरोज़ शाह कोटला मैदान पर खेले गए टेस्ट मैच के दौरान उनका हुक शॉट वाला ये चित्र एक क्लासिक प्रतिनिधि चित्र है।

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                             दरअसल मोहिंदर अमरनाथ भारत के सबसे बेहतरीन बल्लेबाज़ों में से एक थे।खासकर तेज़ गेंदबाज़ों के विरुद्ध। 1983 में विश्व कप जीतने वाली टीम के वे हीरो थे। वे सेमीफाइनल और फाइनल के मैन ऑफ़ द मैच के अलावा मैन ऑफ़ थे टूर्नामेंट भी थे। वे बहुत ही ज़हीन खिलाड़ी थे। बहुत ही नफ़ासत से खेलने वाले खिलाड़ी। उनके खेल में गज़ब का ठहराव था।एक अलसायापन था। उनके पास तेज़ से तेज़ गेंद खेलने के लिए पर्याप्त समय होता था। वे तेज़ गेंदों को भी इतने आराम से खेलते प्रतीत होते मानों स्पिन खेल रहे हैं। सचिन के बारे में कहा जाता है कि उनके पास किसी भी गेंद को खेलने के लिए दो शॉट होते थे। पर मोहिंदर को खेलते देखकर ऐसा लगता मानो उनके पास एक साथ दो बॉल खेलने का समय होता था। उनका खेल इतना नफासत भरा होता कि उनके शॉट को देख कर लगता ही नहीं वे गेंद पर प्रहार कर रहे हैं। ऐसा लगता मानो वे गेंद को पुचकार रहे हों।उनके हुक जैसे शॉट भी। 
                              दरअसल वे जेंटलमैन गेम के प्रतिनिधि खिलाड़ी थे।शांत,उत्तेजनाविहीन,अलसाएपन  के बावजूद एक खास किस्म के ओजपूर्ण अभिजात्य से युक्त। उनके खेल को देखना दरअसल संगीत को विलंबित लय में सुनना है। एक ऐसी रचना जो सिर्फ और सिर्फ विलम्बित में बज रही है जो ना मध्यम में जाती है और ना द्रुत में। ये बात उनकी बैटिंग में ही नहीं बल्कि बॉलिंग में भी थी।हल्का सा तिरछा रन अप।धीमे धीमे दौड़ते हुए,सहज,प्रवाहपूर्ण।वे मध्यम तेज़ गति के गेंदबाज़ थे। पर लगता ही नहीं था कि वे माध्यम तेज़ गति से गेंदबाज़ी कर रहे हैं।बैटिंग की तरह बॉलिंग में भी वे विलम्बित से शुरू करते हुए विलम्बित पर ही ख़त्म होते । 


                   उनको भारतीय क्रिकेट में वो मुकाम हासिल नहीं हुआ जिसके वे हकदार थी। वे अपनी तमाम योग्यताओं के बावजूद टीम में अंदर बाहर होते रहे। वे जब जब बाहर होते हर बार वे अपने को सिद्ध करते और टीम में शामिल होते। इसीलिये वे 'भारतीय क्रिकेट के कमबैक मैन' कहे जाने जाते हैं। वे कुछ अलग  थे और शायद इसीलिये ऐसे लोग काम भी कुछ अलग हट के करते हैं। वे अपने साइड ऑन बैटिंग स्टांस के लिए जाने जाते हैं।तभी तो  वे एकमात्र भारतीय क्रिकेटर हैं जो 'हैंडलिंग द बॉल' और 'ऑब्स्ट्रक्टिंग द फील्ड' तरीकों से आउट हुए हैं और विश्व में एकमात्र जो इन दोनों तरीकों से आउट हुए हों। 


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  24 सितम्बर को मोहिंदर अमरनाथ भारद्वाज का जन्मदिन है। अपने सबसे पसंदीदा क्रिकेटर 'जिमी' को जन्मदिन की बहुत बहुत बधाइयाँ। 





Tuesday 12 September 2017

टेनिस इस साल



                    आज सुबह फ्लशिंग मीडोज के आर्थर ऐश सेंटर कोर्ट की खूबसूरत नीली प्रो डेको सतह पर यूएस ओपन के फाइनल मैच में राफ़ा ने अंतिम सर्विस काफी डीप की और फिर केविन एंडरसन के रिटर्न को नेट पर आकर किशोर सुलभ मुस्कान और चालाकी के साथ बॉल हलके से क्रॉस कोर्ट टैप भर करने के साथ ही एक और ग्रैंड स्लैम ख़िताब अपने नाम कर लिया। ये उनका 16वां खिताब था। इस सोलहवें शब्द की फितरत ही कुछ ऐसी है उसके ख्याल भर से मन उमग उमग जाता है।शायद उस 16वें खिताब के ख्याल भर ने राफा के मन को कैशोर्य उमंग से भर दिया होगा जो मैच के  उस आख़िरी शॉट को खेलते समय राफा के चहरे से छलक छलक जाती थी। और इस तरह राफा ने जितना शानदार सत्र का आग़ाज़ किया था उससे कहीं शानदार समापन किया।
                               
    
     दरअसल टेनिस में ये साल केवल और केवल राफेल नडाल और रोजर फेडरर के और उनके खेल इतिहास के सबसे शानदार 'कमबैक' के साल के तौर पर जाना जाएगा। अगर राफा के लिए 2015 और 2016 चोटों और असफलताओं का काल था तो फेड के लिए पिछले कई सत्र भी बिलकुल राफा के इन दो सालों जैसे ही थे। लेकिन इस साल दोनों ही अपनी असफलताओं की कहानी को पीछे छोड़ कर नए जोश और जज़्बे के साथ ऑस्ट्रेलियन ओपन में दाखिल ही नहीं हुए बल्कि फाइनल में पहुंचे। और तब टेनिस इतिहास के सबसे रोमांचक मुक़ाबले में से एक हुआ। बाज़ी फेडरर ने मारी। पर फेडरर कहने के मज़बूर हुए 'काश!ये मैच ड्रा हुआ होता'।ये शायद विधि का उवाच था जिसे साल के अंत में सही सिद्ध होना था। दोनों ने दो दो ग्रैंड स्लैम ख़िताब आपस में बाँट लिए। स्कोर रहा 2-2 ।ऑस्ट्रेलिया फेड ने जीता,फिर फ्रेंच राफा ने,विंबलडन फेड ने जीता तो यूएस राफा ने। हाँ राफा इस मामले में आगे रहे कि उन्होंने तीन फाइनल खेले और फेड ने दो। अगर फेड ने विंबलडन रिकॉर्ड आठवीं बार जीत कर अपने खिताबों से स्विस भूमि के खूबसूरत शुभ्र श्वेत हिमाच्छादित जैसे लगभग अजेय पर्वत की रचना की जिसे देख कर टेनिस प्रेमी आह्लादित और आनंदित होते रहेंगे पर शायद ही कोई खिलाड़ी उसे पर करने की हिम्मत जुटा सके तो राफा ने फ्रेंच ओपन रिकॉर्ड 10वीं बार जीत कर खूबसूरत 'ला डेसिमा' कविता की रचना कीजिसे शायद ही और कोई दूसरा रच पाए।

              
                           अगर पुरुषों में ये साल राफा और फेड के नाम रहा तो महिलाओं में ये साल जैज़ संगीत की धुनों से स्पंदित होती एफ्रो अमेरिकन बालाओं के नाम रहा।साल के पहले ही ग्रैंड स्लैम ऑस्ट्रेलियाई में विलियम्स बहनों के पावर गेम के सामने कोई टिक नहीं सका। 37 वर्ष की वीनस और 35 वर्ष की सेरेना के बीच फाइनल में बाज़ी सेरेना के हाथ रही। यदि अगर मगर की गुंजाइश हो तो ये साल सेरेना के डोमिनेशन के लिए जाना जाता क्यूंकि वे जिस तरह की टेनिस खेल रही थी उसमे और किसी के लिए स्पेस बचता ही नहीं था। लेकिन अपनी प्रेगनेंसी के चलते वे टेनिस से अलग रही और एक वैक्यूम बना जिसे चारों और से अलग अलग खिलाड़ियों ने भरा। फ्रेंच जेलेना ओस्टोपेन्को ने जीता,विंबलडन मुगुरुजा ने जीता और यूएस स्लोअने स्टीफंस ने। यूएस ओपन के सेमी फाइनल में वीनस सहित चारों अमेरिकी खिलाड़ियों में तीन एफ्रो अमेरिकन्स थी। निसंदेह 1957 में पहली बार किसी एफ्रो अमेरिकन्स महिला खिलाड़ी एल्थिया गिब्सन द्वारा यूएस ओपन जीतने की 60वीं वर्षगाँठ का एफ्रो अमेरिकी  खिलाड़ियों द्वारा इस शानदार ट्रिब्यूट बेहतर और कुछ नहीं हो सकता था।  

           
           जो भी हो पुरुषों में राफा और फेड को कोई चुनौती नहीं दे सका। डोमिनिक थिएम,अलेक्सेंडर ज़्वरेव,डोलगोपोव,एंडरसन जैसे युवा खिलाड़ी कोई कड़ी चुनौती पेश नहीं कर सके। युवा जोश अनुभव के सामने घुटने टेकता नज़र आया। वहीं महिलाओं में कही ज़्यादा कड़ी प्रतिस्पर्द्धा दिखाई दी और चार ग्रैंड स्लैम में चार अलग विजेता बनी।  
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Sunday 10 September 2017

स्लोने स्टीफेंस



स्लोने स्टीफेंस
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            ये एक अद्भुत दृश्य था जिसमें  दो प्रतिद्वंदी खिलाड़ी मैच के खत्म होने पर एक दूसरे को इस तरह से जकड़े थीं मानो अब जुदा ही नहीं होना है और दोनों की आँखों से अश्रुओं की ऐसी अविरल धारा बह रही थी जैसे सावन बरस रहा हो।वे एक अद्भुत दृश्य भर नहीं था बल्कि टेनिस इतिहास की और एफ्रो अमेरिकन्स इतिहास के एक अविस्मरणीय क्षण की निर्मिति भी कर रही थीं। आज से ठीक साठ बरस पहले 1957 में पहली बार किसी एफ्रो अमेरिकन्स महिला खिलाड़ी एल्थिया गिब्सन द्वारा यूएस ओपन जीतने की 60वीं वर्षगाँठ का पहले एफ्रो अमेरिकी पुरुष एकल यूएस ओपन विजेता आर्थर ऐश कोर्ट पर दो एफ्रो अमेरिकी खिलाड़ी मेडिसन कीज और स्लोने स्टीफेंस फाइनल खेल कर जश्न मना रही थीं। 

               
                 
                         और जब स्टीफेंस ने कीज को 6-3,6-0से हरा कर अपना पहला ग्रैंड स्लैम खिताब जीत रही थीं तो ये निसंदेह एक कल्पना का हक़ीकत में तब्दील होना या किसी सपने का साकार होना या फिर किसी असंभव का संभव में बदल जाने जैसा था। 24 वर्षीय स्टीफेंस खाते में इससे पूर्व केवल तीन खिताब थे। वे इस प्रतियोगिता से पहले 11 महीने पैर  की चोट के कारण मैदान से दूर थीं और यूएस ओपन से पहले उनकी  83वीं रैंकिंग थी। दरअसल ये अपने पर भरोसे की जीत है। हौंसले और ज़ज्बे की जीत है। स्टीफेंस की इस शानदार जीत को सलाम !
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Thursday 7 September 2017

ये कमबैक ड्रीम रन' का उदास अंत है



ये कमबैक ड्रीम रन' का उदास अंत है 


ज़िंदगी में कुछ ऐसे जिंक्स होते हैं जिनसे पार पा पाना बहुत मुश्किल होता है। रोजर फेडरर के लिए जुआन डेल पोत्रो को एक ऐसा ही जिंक्स माना जा सकता है जिसे तोड़ने में फेडरर एक बार फिर नाकामयाब रहे और यूएस ओपन के क्वार्टर फाइनल में फिर पोत्रो से 5-7,6-3,6 -7(8-10),4-6 से हार गए। 

पोत्रो की जीत और फेडरर की हार दो मायनो में महत्वपूर्ण है। 


एक,खेल इतिहास के सबसे शानदार 'कमबैक ड्रीम रन' का अंत कर पोत्रो ने फेडरर को एक बार फिर इतिहास बनाने से रोक दिया ठीक वैसे ही जैसे 2009 में किया था। पिछले साल की चोटों से उबर कर इस साल फेडरर ने शानदार वापसी की थी।फेडरर पहले ऑस्ट्रेलियन ओपन और उसके बाद विंबलडन जीत कर 36 साल की उम्र में एक साल में तीन ग्रैंड स्लैम जीतने का अविश्वसनीय इतिहास रचने की राह पर थे।वे इस हार से पहले इस साल ग्रैंड स्लैम के लगातार 18 मैच जीत चुके थे। याद कीजिए2 009 के यूएस ओपन के फाइनल को। तब एक शानदार संघर्षपूर्ण मैच में पोत्रो ने फेडरर को 3-6,7-6,4-6,7-6,6-2 से हरा कर फेडरर के यूएस ओपन के लगातार 41 मैचों की जीत के सफर को ही नहीं रोका था बल्कि ओपन एरा में लगातार छठवें खिताब को जीतने से रोक कर दुर्लभ इतिहास बनाने से भी रोक दिया था। उस साल यदि फेडरर जीत जाते तो 1969 में रॉड लेबर के बाद एक कैलेंडर ईयर में फ्रेंच,विंबलडन और यूएस जीतने और ग्रास,क्ले और हार्ड कोर्ट पर खिताब जीतने वाले पहले खिलाड़ी होते। 


दो, नडाल और फेडरर के बीच संभावित ड्रीम सेमीफाइनल की संभावनाओं को समाप्त कर दिया। अगर यहाँ फेडरर जीतते तो नडाल और फेडरर यूएस ओपन में पहली बार आमने सामने होते। इस हार ने ना केवल दोनों महान खिलाड़ियों के बीच एक और क्लासिक मुकाबले से वंचित किया बल्कि फाइनल से पूर्व एक और फाइनल के रोमांच को भी समाप्त कर दिया। फिलहाल इस हार ने फेडरर की 20वां ग्रैंड स्लैम खिताब जीतने की संभावना को तो खारिज कर दिया पर अभी भी नडाल के 16वें ग्रैंड स्लैम खिताब जीतने की संभावनाएं बरकरार है।


देखिए आगे आगे होता है क्या। 





ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...